विपक्ष-विरोध-विसम्मति – गोपाल कृष्ण गांधी

गोपाल कृष्ण गांधी

चुनावों के दस्तावेजों को देखे, तो पहले निर्दलीय या स्वतंत्र उम्मीदवारों की बडी संख्या होती, उसमें से कई जीत भी जाते थे। स्वतंत्र पार्टी करके जब पार्टी शुरू हुई तो स्वतंत्र नाम अलग से हो गया, पर निर्दलीय जुडा रहा। लेकिन बाद में निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या बराबर घटती रही। अब बिलकुल कम हो गई है।

पत्रकारिता में स्वतंत्र पत्रकार, निष्पक्ष पत्रकार, जो किसी पार्टी या पक्ष या फिर बिना खुशामद के लिखने वाले बहुत कम हो गए हैं। इस हकीकत की वजह क्या है। दो तीन है। नामवर बाबू कुछ और बता सकेंगें। क्योंकि उनकी परिपक्वता के आज बहुत कम हैं, जो भारत की

राजनीति के प्रवाह को एक साक्षी की तरह देखते आएं हैं।वह स्वार्थ या अपने हित के सोच के बिना यही देखते आ रहे हैं, कि भारत की राजनीति या समाजिक क्रियाएं कहां जा रही हैं। मै समझता हूं, दो तीन वजह ऐसी है। 1947 से पहले विपक्ष का प्रश्न नही था, क्योंकि संसद नही थी। एसंबली थी, लेकिन वो जनमत से जुडी नही थी। पहली लोकसभा के बाद पक्ष-प्रतिपक्ष की बात शुरू हुई। फिर भी कास्टुएंट असंबली से जो परंपरा बनी थी, जो कांग्रेस से जुडे नही थे वे भी कांस्टुएंट असेंबली में मौजूद थे। जो राजनीति से भी जुडे नही थे वे भी कांस्टुअंट एसेंबली में मौजूद थे। डा. राधाकृष्ण कांसेटुअंट असंबली मे थे, वे राजनिति से जुडे नहीं थे।

जेरोम डिसूजा. प्रो.हीरेन मुखर्जी भी कांसटुअंट असंबली में थे, डिप्टी चेयरमैन थे, राजेन्द्र बाबू के साथ।इसलिए तब से ही कोई विपक्ष ही दूसरा कोई मत व्यक्त करेगा ऐसा नही था। कोई पक्षधर हो, ये आवश्यक नही था। निष्पक्षता के लिए स्थान था। स्वतंत्रता के लिए स्थान था। पहली दूसरी लोकसभा में भी कुछ ऐसा ही था। सोचने वाली बात है कि प्रो.हीरेन मुखर्जी हमारे वरिष्ठ नेता, सिर्फ ऐसा ही नही कि वे साम्यवादी थे, वे वामपंथी थे। उन्होने एक बार प. नेहरू के बारे में कहाकि वे लीडर आफ हाउस ही नही, बल्कि लीडर आफ आपोजीशन भी हैं।

हमारी बात वे खुद सोचते हैं, और हमारी बात वह खुद ही कह देते हैं, क्योंकि हमारी संख्या कम है। लेकिन प्रजातंत्र और जनतंत्र के जो तरीके हैं उसमें आवश्यक हो जाता है कि विपक्ष हो, प्रतिपक्ष हो। स्पीकर भले ही किसी पार्टी का हो, लेकिन स्पीकर बन जाने के बाद वह किसी पक्ष का नहीं होता, न इस पक्ष का, न विपक्ष का, निष्पक्ष। पर इस व्यवस्था का एक इतिहास है, बहुत पुराना इतिहास। दूसरी राय या दूसरा मत, लोकसभा या राज्यसभा के ज्यामीतीय से या आर्किटेक्चर से जुडा नहीं है। वाम में विपक्ष होगा, इस तरफ प्रतिपक्ष होगा, सरकार इधर होगी,ऐसी लकीरें बाद में बनी। लेकिन उन लकीरों से पहले एक तथ्य था, वह यह कि सत्ता हमेसा होती है और होनी चाहिए। सरकार के बिना कोई समाज व्यवस्थित नही रह सकता। लेकिन लोकतंत्र से पहले भी समाज कई सरकारें देख चुका था।

कई सरकारें रह चुकी थी। राजे-महराजे रह चुके थे। अंग्रेजी हुकूमत रह चुकी थी।तब विपक्ष के लिए निर्धारित स्थान नहीं था। समाज में जो भी विरोध किसी भी चीज के लिए होना चाहिए था, वो होता था। उसकी आवाज कभी सुनी जाती थी, कभी नहीं सुनी जाती थी। जब नही सुनी जाती थी, तब उस विपरीत विचार के लिए उन विचारकों को अपने तरीके बनाने पडते थे। हम सब जानते हैं, जब शहीद भगत सिंह बटुकेश्व दत्त के साथ सेन्ट्रल एसंबली में दो बम फेंके, बम कहलाए जाते थे, जब उन्होने वह काम किया तो सारे सदन में धुंआ फैला, तब उन्होंने कुछ अपने हाथ से लिखे हुए, कुछ छपे हुए कागजात हाल मे फेंके और इंकलाब जिंदाबाद कहकर वहीं खडे रहे, भागे नहीं। बाद में उन्होंने कहाकि हमने जो किया है, वह जो सुन नहीं रहे उनके कानों को खोलने के लिए किया। तो ये, विरोध हुआ, विपक्ष नहीं के बराबर, तो विरोध। कांग्रेस और गांधी जी का तरीका भिन्न था। वो समाज में अपने आंदोलन कर रहे थे। दो बडे आंदोलन तब तक हो चुके थे। सत्याग्रह का आंदोलन तब चल रहा था। विरोध कायम था। उससे भी पहले मुगल बादशाह औरंगजेब के समय विपक्ष का तो प्रश्न ही नही था।

औरंगजेब ने अपने बडे भाई दाराशिकोह को अपने विपरीत विचारो के लिए बेरहमी से मरवाया। लेकिन उससे पहले दाराशिकोह बहुत कुछ कह चुका था। जो आज भी सुनने और सोचने लायक है। दारा के साथ साथ ही सरमद शहीद के साथ भी यही हुआ। सरमद शहीद का किस्सा भी बहुत ही अनूठा है। सरमद यहूदी थे, या मुस्लमान थे, क्या थे, ये पता नहीं, लेकिन स्वतंत्र थे, दारा का गुरू समान थे। अर्धनग्न नही, नग्न। औरंगजेब को कहा गया कि इस तरह का व्यक्ति हमारे वसूलों के खिलाफ है, यही काफी है कि उसको सजा–ए-मौत दी जाए। औरंगजेब ने कहाकि इसके अलावा भी उसके खिलाफ कुछ है? जवाब आया हां, वो कलमा पूरा नहीं पढता। जब हम कहते हैं कि कलमा पढों, तो वह पूरा नहीं पढता, आधा पढकर ही वह रोक देता है। इसके बाद सरमद को पेश किए गया। सरमद से कहा कलमा कहो, तो वह कलमा का सिर्फ पहला हिस्सा ‘ला इलाहा..’ कहकर चुप हो गया। देयर इज नो गाड,  देयर इज नो गाड इक्सेप्ट अल्ला। देयर इज नो गाड कह कर चुप हो गया।.. पूरा कहो। नही कहूंगा। क्यों?  अभी मै निगेटिब मूड में हूं, इसलिए नहीं कहूंगा। जब मै पाजिटिव मूड में आ जाऊंगा तो कहूंगा। इनफ, दस्तखत हुए, उसे सजा-ए-मौत दी गई। यह न विरोध था, न विपक्ष, सरमद की विसम्मति थी। इसका असर सजा-ए-मौत, उससे भी पहले जाते हैं।

कृष्ण-अर्जुन संवाद मेरी समझ में उसका मंच पर आधुनिक नाट्यकरण अभी हुआ नही है। क्योंकि कृष्ण, कृष्ण हैं, भगवान हैं जीत उन्ही की होती है। लेकिन अर्जुन जब कृष्ण से प्रश्न पूछते हैं, छोडिए मै लडना नहीं चाहता। मुझे इन सब को मारने में दिलचस्पी नही है। मैं खडी बोली में कह रहा हूं। संस्कृत कहने के लिए मै अपने आपको अयोग्य समझता हूं। मेरा उच्चारण भी थोडा बिगड सकता है। संस्कृत थोडा आकाश जुडी भाषा है और मै धरती का हूं। अर्जुन के प्रश्न के जवाब में क्या सुनने को मिला। अरे, इतने कायर, अरे अनार्य हो, अनार्य कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं। अर्जुन भगवान कृष्ण से सुन रहे है कि तुम अनार्य हो। विस्म्मति का क्या असर, उनको यह भी सुनना पड रहा है कि तुम आदमी हो कि नहीं। संस्कृति आप पर छोड देता हूं, आप उस श्लोक को खुद ही देंखे। गांडीव जमीन पर गिर जाता है, तो विस्मिमति का इतिहास बहुत पुराना है। पर विसम्मति आवश्यक है। क्या अर्जुन ने सवाल नहीं पूछा होता तो गीता का उपदेश हमें मिलता? अगर अर्जुन शुरू से ही हां में हां मिलाता तो उपदेश की क्या जरूरत होती। सरमद और दाराशिकोह अगर विसम्मत न होते तो क्या उनकी कुर्बानी का उदारहरण हमे मिलता। शहीद भगत सिंह ने जो किया अगर वह न किया होता, जब विपक्ष नही था तब क्या देश की आवाज को सुना जा सकता था। गांधी ने जो किया विस्म्मति से शुरू किया, काठियावाड़ से शुरू किया, विसम्मति जो होती है वह अपनो से होती है। शहीद भगत सिंह सेन्ट्रल असंबली में जो हिन्दुस्थानी थे उन्हें ज्यादा कह रहे थे बनिस्बत अंग्रेजो के।

आज विपक्ष है, तो फिर विसम्मति की जगह आज उतनी है, जो हमेशा रही है जितनी कृष्ण के रथ मे, औरंगजेब के दीवाने खास में, सेंट्रल असेंबली में, आज उतनी ही जरूरी। सिर्फ इसलिए कि नही कि एक दल का बडा भारी वहां वर्चस्व है, सिर्फ इसलिए नहीं। लेकिन इसलिए कि, हर दल में भारत के हर राजनीतिक दल में विसम्मति की आवाज बहुत कम हो गई है। साम्यवादी दलों से लें, नामवर बाबू मौजूद है अगर मेरी समझ में कुछ गलती हुई हो, तो उसे सुधारें। जो जनता की तरफ से जनता का नाम लेकर जनता के लिए जो कार्यवान्यित रही साम्यवादी पार्टी बाद में दो साम्यवादी पार्टी, उनके पोलित ब्यूरो में विसम्मति के लिए स्थान नही के बराबर है। इसका दूसरा पक्ष है, अनुशासन, लेकिन अनुशासन जो कि स्वतंत्र विचार को सुला दे, वह अनुशासन अनुशासन नही एक प्रकार का शासन है। जो साम्यवादी दल में विसम्मतिका इतिहास झीर्ण है, और कई वर्षों से कांग्रेस में भी विसम्मति का स्थान झीर्ण रहा। सुभाष चंद्र बोस ने विसम्मति का उदाहरण दिया, गांधी जी के सामने, तो आप समझ सकते हैं कि कांग्रेस मे विसम्मति की कितनी कदर थी, एक जामने में। पर नेता जी का भी अनुभव जरा कटु था। बाद में आज के संदर्भ में मै नही बोल रहा हूं, पर आजादी के बाद जब तक की पं नेहरू हमारे बीच में थे, तब कांग्रेस में जनतांत्रिक और लोकतांत्रिक पद्धतियां बहुत सुदृण थी। कांग्रेस के अंदर कई लोग थे जो कंग्रेस की दफ्तरी नीतियों के खिलाफ बोल लेते थे।

कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी का जन्म ही विसम्मति से हुआ। आचार्य नरेन्द्र देव, जय प्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया तब नंबूदरीपाद जो बाद में साम्यवादी दल से जुडे, ये सब कांग्रेस की ही उपज थे। कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी न कि सोसलिस्ट पार्टी, तो सीएसपी भी। विसम्मति की जडे बहुत मजबूत थी। मेरी समझ में सन 1959 साल बहुत महत्वपूर्ण साल है। जब 1959 में केरल की नंबूदरीपाद की साम्यवादी सरकार को केन्द्र की सरकार, कांग्रेस की सरकार और पंडित जी की सरकार ने जब पद से हटाया, पदासीन किया, तब विपक्ष को, विरोध को, विसम्मति को बहुत गहरी चोट लगी। और उसके बाद एक प्रकार से कांग्रेस के अंदर अनुशासन के नाम पर और विसम्मति के खिलाफ एक नई परंपरा का उद्घाटन हुआ।

हम जानते हैं कि 1975 में क्या हुआ। रायसाब ने लोकनायक का उल्लेख किया। हममे से जो 50, 60 या 65 के यहां उपस्थित हैं, उन सबको याद है कि रामलीला मैदान में रामधारी सिंह दिनकर की कविता का उद्धरण करते हुए लोकनायक ने कहाकि ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ विपक्ष में नही, वह किसी पक्ष में नहीं थे, विरोध में थे। लेकिन उस विरोध की शुरूआत विसम्मति से हुई। जयप्रकाश जी का आंदोलन विसम्मति का आंदोलन था। जिससे कि उनको बाद में लोकनायक का नाम मिला। नारों की वियुत्पत्ति को देखिए। आजादी से पहले के नारों को देखिए, सबसे मशहूर शहीद भगत सिंह का दिया हुआ इंकलाब जिंदाबाद। हाल में मैने चेन्नै में योगेन्द्र यादव को ये कहते सुना कि उन्होने हाल ही में पुणें में उसे एक परिस्थिति में सुना, पर उसको रूटनली नहीं कहा जा रहा था। इंकलाब जिंदाबाद, इंकलाब जिंदाबाद..जैसे की कोई मंत्र हो, दिल से कहा जा रहा था, जोर से कहा जा रहा था। इंकलाब इंकलाब इंकलाब..जिंदाबाद जिंदाबाद..वो जिंदाबाद। तो “वो” से कितना फर्क आ जाता है। आजादी के पूर्व नारों में एक सामूहिक संदेश होता था, जैसे की इंकलाब जिंदाबाद, जैसे की भारत माता की जय, जैसे कि जय हिंद नेताजी का दिया हुआ। हां महात्मा गांधी की जय होती थी, पं. जवाहरलाल नेहरू की जय होती थी सुनी जाती थी। नेताजी की जय होती थी सुनी जाती थी। लेकिन वह प्रासंगिक होता था, जब गांधी जी आते थे तो उनका जय जय कार होता था। लेकिन वो बाकी नारों के बाद उनकी जगह नहीं लेता था। जय हिंद अपने में था।

आजादी के बाद सारे नारे व्यक्ति विशेष हो गए, समाज विशेष नहीं, व्यक्ति विशेष। जिसमें अंग्रेजी में था, जो नारा नहीं था लेकिन नारा जैसा ही था, इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा। जिसकी वजह से बाद में काउंटर में इंदिरा हटाओं का व्यक्ति विशेष नारा दिया गया। बाद में कई  व्यक्तियों से जुडे हुए नारे हैं जिनको कि मै आवश्यक नहीं समझता कि आज अभी यहां दोहराऊं। आप जानते हैं उन सबों को। लेकिन विषय ये है समझने और सोचने योग्य कि, व्यक्ति विशेषता से उस व्यक्ति के विचारों की विशेषता बनती है। उस व्यक्ति के रूझान और ख्यालात से एक माहौल बनता है, जो कि विसम्मति के विपरीत होता है। यानी कि जो स्वतंत्र विचार के विपरीत होता है। मजाल है कि 1975-77 में कोई इंदिरा गांधी के विरूद्ध कुछ बोले, या कुछ कहे। उस समय एक नारा नहीं, चुटुकुला कहें या क्या कहें मुझे पता नही, इसे आप बताएंगे कि, क्या कहें। हर दफ्तर में एक इश्तहार छपता था, बातें कम, काम ज्यादा। मेरे स्वर्गीय भाई रामचंद्र गांधी, जो कि मजाकिया भी थे, और फिलासफर भी थे, उन्होने उसका संशोधन किया कि बातें कम चाय ज्यादा। जब कभी कभी रो नही पाता है कोई तो हंसी के जरिए रोता है। तो मौन का मंत्र जो है, अपने आंतरिक स्नात के लिए नहीं। हम अगर अपने घर में मौन रखें तो हमारा उससे कल्याण हो सकता है। लेकिन समाज को जब, जैसे 1975-77 में मौन का उपदेश दिया गया था कि बोलो मत तब वह स्वास्थ्य का नहीं, अस्वस्थता का प्रतीक होता है।

विसम्मति जो है विपक्ष और विरोध का पूरक होता है। जब विपक्ष कमजोर हो जाता है और विरोध बदनाम हो जाता है, कि ये माओवादी है, अरे इससे तो अनार्की बनेगी। सच हो, न हो, तब विसम्मति का एक स्थान होता है। विसम्मति यानी डिसेंट, फ्रीडम आफ एक्सप्रेशन का एक मिशाल मुझे 1965 के करीब मिला था। कश्मीर में तब शेख अब्दुल्ला साहब रिहा करे गए थे, तब चैन्नै में तब की एक बहुत ही मर्यादा के पात्र, विसम्मति के प्रतीक चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने कहा कि शेख साहब जो कह रहें है उसको जरा गौर से सुनना चाहिए।

कश्मीर के खाडी के लोगों के विचार से हमें संपर्क रखना चाहिए। और अपने अंग्रेजी लेख जो स्वराज्य में छपा था, अपनी पुरानी प्रतियां चतुर्वेदी जी जिसे बार बार पढ चुके हैं, उसमें उन्होने सेल्फ डिटरमिनेशन का बार बार उपयोग किया। तब के चीफ मिनीस्टर तमिलनाडु में भग्तवत्सलम जी बहुत ही उत्तेजित हुए, और कहा कि इनके खिलाफ हमें ट्रीजन का आरोप लगाना चाहिए। वे प्रधानमंत्री लालबहादुर जी के पास गए और कहाकि “राजा जी हैस गान ओवर बोर्ड, ही इस टाकिंग द सेल्फ डिटरमिनेशन, देयर इज इनफ ग्राउंड टू सी हिम अंगेस्ट आन द ग्राउंड आफ ट्रीजन” लालबहादुर शास्त्री की सोच छरछरी नहीं थी। वे जरूर रहें होंगे भारत भूमि की उपज, लेकिन वो दुनिया की रीतियों से किसी से कम परिचित नहीं थे। उन्होने कहा “भग्तवत्सलम जी हैव यू हर्ड आफ बरटेंड रसल,” द मैसेज वाज सेंट। तब विकीपीडिया नहीं होता था, भग्तवत्सलम जी बरटेंड रसल के बारे में जो भी किताब मिली होगी लेकर वापस चेन्नई चले गए।

बरटेंड रसल का जो डिसेंट थी लालबाहदुर शास्त्री ने, वो भारत के संदर्भ में भारत के एक मुख्यमंत्री को जो कि ट्रीजन के नाम से खेलने वाला था उसको समझाया। शास्त्री जी का ये भी था कि जब उस कद का कोई आदमी विसम्मत होता है और उसके खिलाफ सरकार कोई ऐसा छोटा मोटा रवैया करती है तो उससे सरकार की छति होगी, उस आदमी की छति नहीं होगी। कभी वो आदमी जिसको कि “कांशेंस कीपर आफ महात्मागांधी” कहा गया था। अब उनको किसी जेलकीपर के हवाले किया जाता तो लोग सरकार को देखकर सरकार की हंसी उडाते। और कभी अपनी विसम्मति कर रहा हूं फास्टफारवर्ड कर रहा हूं 74-75, दस साल बाद। जयप्रकाश जी ने जब कहा कि सिंहासन खाली करो कि जनता आती है, तो उस जय प्रकाश नारायण को एक व्यक्ति विशेष नारा मिला, अंदेरे में एक प्रकाश, जय प्रकाश जय प्रकाश। पर उस व्यक्ति विशेष नारे में अंतर ये था कि उसमें एक साहित्यिक खेल था। अंधेरा, प्रकाश और जय प्रकाश का जो पन था, वह गजब का पन था। तो अंधेरे में प्रकाश का काम विसम्मति करती है। अंधेरे में बिजली का का विपक्ष करता है, अंधरे में मशाल का काम विरोध करता है। लेकिन प्रकाश का काम विसम्मति करती है, और आज हमें उसी विसम्मति को कायम रखने की बहुत आवश्यकता है।

अंतत यह कहना आवश्यक है कि विसम्मति सिर्फ सरकार के विरूद्ध नहीं होती है। सरकार के खिलाफ भी होती है, होनी भी चाहिए, लेकिन विसम्मत व्यक्ति समाज के खिलाफ भी समाज को बताता रहता है। जो बताना चाहिए। इसलिए बाबा साहब अंबेडकर का उल्लेख आवश्यक समझता हूं, उन्होने संविधान में फ्रीडम आप एक्सप्रेश इसलिए जरूरी नही कि सरकार सचेत रहे, बल्कि समाज भी सचेत रहे, उन लोगों से जो कि फ्रीडम आफ एक्सप्रेशन का उपयोग करते हैं, जो कि डिसेंट करते हैं। आज समाज को बहुत कड़वे संदेश देने की जरूरत है। जो कि कोई राजनीतिक दल नहीं देने वाला। क्योंकि राजनीतिक दलों को वोट चाहिए। विसम्मत को वोट नहीं चाहिए, और न ही उसके पास नोट है। सिर्फ उसके पास विचार है। और समाज को कडवे सच सुनाने के लिए कौन है, सिर्फ वही है, जो विसम्मति से प्रेम करता है।

उन संदेशों में क्लाइमेट चेंज एक बहुत बडा संदेश है। कौन कहेगा कि कल पानी नही आने वाला, कौन कहेगा सरकार या विपक्ष का नेता। सर, क्योकि वो, पबल्कि घबरा जाएगें, वोट खतरे में पड जाएंगे। पर सोशल फिलासफर पब्लिक इंटलेक्चुअल, जो कि फ्री है, कह सकता है, और कहेगा। आज भी कुछ हैं, जो कि कह रहे हैं। सबसे बडी विसम्मति की विजय हाल में हुई। जिसके साथ प्रभाष जी जुडे थे। आरटीआई, ये जो तीन अंग्रेजी के अक्षर हैं, आज गांव-गांव से जुडे है। हर आरटीआई अपील जो है वो न्यायिक होती है, ये मै नहीं कहता, कुछ ऐसे भी आरटीआई डाली जाती है कि किसी अफसर की नाक रगडी जाए। लेकिन मोटे तौर पर आरटीआई जो है वह विसम्मति का सबसे प्रबल उदाहरण है। हर आरटीआई “एप्लीकेशन इज एन एक्ट आफ क्रियेटिव डिसेंट, आस्किंग फार इनफर्मेशन” जो कि राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति तक जवाबदेह बना चुकी है। प्रभाष जी आरटीआई के समर्थक थे क्योंकि वो पत्रकारिता के प्रतीक थे।

आज आप सब के साथ मै उनकी स्मृति को प्रणाम अर्पित करता हूं। इन शब्दों के साथ भारतीय लोकतंत्र और भारतीय गणराज्य के अंतर को आपके सामने रखना चाहता हूं। गणराज्य रिपब्लिक। गणतंत्र यानि डेमोक्रेसी। गणतंत्र का मंत्र है बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय। पर गणराज्य का मंत्र है बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय, सर्वलोकाश्राय। और भगवान बुद्ध ने कहा है लोकानुकंपाय। रिपब्लिक इज द होम टू इवरीवन इक्वली। डिमोक्रेसी, हाउस विद मेजारटी रूल्ज। रिपब्लकि, द होम इज इवरीबडी

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