भूमंडलीय तापन एवं प्रदूषण का संकट

टाइबर नदी पर दो हजार साल पहले रोमन सम्राट नीरो द्वारा बनवाये गए पुल, जिसके अवशेष पानी में डूबे रहते है, इस बार नदी के सूखने के कारण देखे जा सकते हैं. यह सूचना इतिहास में रूचि रखने वालों के लिए उत्सुकतापूर्ण हो सकती है किंतु पर्यावरणीय दृष्टि से चिंताजनक है. यह अपवाद नहीं. ‘पो’ (इटली की गंगा),आरनो, एनीऐन आदि नदियां भी सूखे का सामना कर रही हैं. आर्बीटेलो लैगुन का जल इतना गर्म हो गया है कि जलीय जीवन मरने लगे हैं. फ्रांस और स्पेन में तापमान 40 डिग्री के पार चला गया है. यूरोप जो की सामान्यतः ठंडे महाद्वीप माना जाता है, भीषण गर्मी की मार से कराह रहा है.
  यह हालात मात्र यूरोप, अमेरिका या एशिया की नहीं बल्कि पूरी दुनिया तप रही है. भारत में कई स्थानों पर तापमान 48 से लेकर 50 डिग्री तक जा पहुंचा है. इस साल की गर्मी में पिछले 122 सालों का रिकॉर्ड टूट गया है. बढ़ता तापमान अपने साथ कई सारी परेशानियां लेकर आ रहा है जैसे कि बढ़ता जल संकट, विभिन्न प्रकार की बीमारियों की आमद, फसलों को नुकसान और उससे उपजता खाद्य संकट. लेकिन इसकी मूल वज़ह क्या है?
 आज जिस संकट से हम जूझ रहे हैं, वह कोई आकस्मिक घटना नहीं बल्कि एक सुनियोजित रूप से आमंत्रित समस्या का प्रतिफल है. दूसरे शब्दों में कहें तो पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा पर्यावरण के विद्रुप शोषण का दुष्परिणाम है. मौसम वैज्ञानिकों की मानें तो औद्योगिक क्रांति के पश्चात् अब तक धरती के औसत तापमान में करीब 1.6 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है. इस वृद्धि का आधा हिस्सा मात्र पिछले 5 दशकों के ‘विकास यात्रा’ का परिणाम है. अगर वर्ष 2100 तक यह वृद्धि 2 डिग्री तक पहुंच जाये तो मानव जीवन के अस्तित्व के लिए चुनौती साबित होगी. इससे लू की तीव्रता और नियमितता 30 गुना तक बढ़ सकती है.
 इस भूमंडलीय तापन (ग्लोबल वॉर्मिंग) के मुख्य कारकों में कार्बन डाइऑक्साइड, मेथेन, जलवाष्प, ओजोन, नाइट्रस ऑक्साइड, क्लोरोफ्लोरो कार्बन्स  जैसी ग्रीन हाउस गैसों का तेजी से बढ़ता उत्सर्जन है. जिसके स्रोत हैं जीवाश्म ईंधन (कोयला, पेट्रोल, डीजल आदि) के अधिकाधिक प्रयोग.
 औद्योगिक क्रांति के बाद से अब तक पृथ्वी के पर्यावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा 30 प्रतिशत बढ़ गई है. पिछले 25 वर्षों में ही इसका उत्सर्जन 40 फ़ीसदी बढ़ा है. इस समय वातावरण में उपस्थित CO2 पृथ्वी के आठ लाख इतिहास में चरम पर है. यूरोप एवं अमेरिका के साथ ही भारत दुनिया के शीर्ष कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन देशों में शामिल है. अनुमान है कि देश में तक़रीबन 250 करोड़ मीट्रिक टन CO2 उत्सर्जन होता है.
 इधर दुनियाभर में वनक्षेत्र सिकुड़ते जा रहे (डिफोरेस्टेशन) हैं. भारत में ही पिछले 10 वर्षों में लगभग चार फ़ीसदी तथा 20 वर्षों में साढे पांच फ़ीसदी वन क्षेत्र घटे हैं. तुलनात्मक रूप से देखें तो यह करीब 100 करोड़ टन CO2 उत्सर्जन के समतुल्य है.
 भूमंडलीय ऊष्मीकरण ने जलचक्र के प्रतिरूप (पैटर्न) को व्यापक तौर पर प्रभावित किया है. भारत में वैश्विक वर्षा का लगभग चार प्रतिशत वर्षा प्राप्त होती है. यहां प्रति वर्ष औसतन 114 सेमी वर्षा होती है और औसतन प्रति वर्ष 4000 घन किमी वर्षा का जल उपलब्ध होता है. जिसमें से मात्र 1869 घन किमी सतही जल और भूजल के रूप में प्राप्त होता है. इसमें से हम भी 60% भाग उपयोग कर पाते हैं.
  सतत विकास लक्ष्य 6 वर्ष 2030 तक सबके लिए सुरक्षित रूप से प्रबंधित पेयजल उपलब्ध कराने से सम्बंधित है. यूनिसेफ के अनुसार भारत की आधी आबादी शुद्ध पेयजल अनुपलब्धता से जूझ रही है. देश के कुल 718 जिलों में से दो तिहाई जल संकट का सामना कर रहे हैं. प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष पानी की उपलब्धता के मामले में भारत विश्व में 133वें स्थान पर है। वर्ष 2025 तक भारत के कई हिस्सों में पानी की पूर्ण कमी का सामना करना पड़ेगा.
 भारत में प्रति वर्ष होने वाली लगभग दो लाख मौतों का कारण साफ पानी का अभाव होता है. जल गुणवत्ता सूचकांक के अनुसार एक भारत 120वें स्थान पर है. नीति आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में माना है कि देश की 60 करोड़ आबादी के सामने इस समय गंभीर जल संकट है. आयोग के अनुसार वर्ष 2030 तक देश में स्वच्छ पेयजल की मांग वर्तमान आपूर्ति के मुकाबले दो गुना तक बढ़ जाने की संभावना है.
  पर्यावरण के क्षरण ने कई विरोधाभासों को जन्म दिया है. एक तरफ जहां भारत के उत्तर और पश्चिमी हिस्से पानी की कमी के संकट से जूझ रहे हैं एवं वर्षा को तरस रहे हैं. वही दूसरी ओर पूर्वोत्तर बाढ़ की विकराल समस्या का सामना कर रहा हैं. पिछले दिनों लगातार हो रही भारी बारिश के कारण असम के अलावा मेघालय, त्रिपुरा और अरुणाचल प्रदेश में हज़ारों लोग बाढ़ और भूस्खलन से प्रभावित हुए हैं. अब तक लगभग 60 से अधिक लोगों की जान गई है जबकि 50 लाख से अधिक लोग बेघर हुए हैं.
  हिमनद (ग्लेशियर) तेजी से पिघल रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप सागरों का जलस्तर बढ़ता जा रहा है. आर्कटिक महासागर की तीन चौथाई हिस्से की बर्फ पिघल चुकी है. IPCC के अध्ययन के अनुसार संभावना है कि 2050 तक हिमनद बिल्कुल समाप्त हो जाएंगे. वर्ष 2005 से 2015 के बीच प्रति वर्ष समुद्र के जलस्तर में 3.6 मिलीमीटर की वृद्धि हुई है. अनुमानतः वर्ष 2100 तक यह बढ़ोतरी 60 सेंटीमीटर से लेकर एक मीटर तक हो सकती है. आशंका है कि इस कारण मात्र अगले 100 वर्षों में ही चेन्नई समेत दुनिया के कई शहर समुद्र में समा सकते हैं.
 इंसानी कुकृत्य से व्याप्त प्रदूषण का दंश सिर्फ धरती ही नहीं बल्कि महासागर भी भुगत रहे हैं. महासागर प्रकृति-चक्र का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. जीवों के श्वसन के लिए जितनी ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है, उसके 50 फीसदी हिस्से की पूर्ति महासागरों द्वारा होती है. साथ ही श्वसन से उत्सर्जित कुल CO2 का 25 फ़ीसदी का अवशोषण भी महासागर ही करते हैं. परंतु बढ़ते ग्लोबल वॉर्मिंग और ग्रीन हॉउस गैसों  उत्सर्जन के कारण महासागरीय जल का पी.एच. मान (वैल्यू) कम हो रहा है जिससे अम्लीयता धीरे-धीरे बढ़ती जा रहे हैं. धरती पर सिकुड़ते वन क्षेत्र के कारण CO2 के अवशोषण का दबाव महासागरों पर बढ़ता जा रहा है. एक बड़ा खतरा प्लास्टिक अपशिष्ट है. एक शोध के अनुसार प्रतिवर्ष तक़रीबन 80 लाख टन प्लास्टिक अपशिष्ट महासागरों में पहुंच रहा है. साथ ही कच्चे तेल का रिसाव एवं सागर में होने वाले खनन अन्य प्रदूषण के कारक हैं.
  इसके अतिरिक्त कचरा एवं सीवेज तथा उद्योगों द्वारा उत्सर्जित विषैले केमिकल साथ ही कृषि में इस्तेमाल किए जाने वाले कीटनाशक एवं रासायनिक खाद नदियों के जरिए पहुंच महासागरों तक पहुंच रहा है. इसके चलते महासागरीय पारिस्थितिकी तन्त्र (इकोसिस्टम) नष्ट होता जा रहा है. सागरीय जीव-जंतु संकट ही नहीं विश्व का दूसरा सबसे समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्र प्रवाल भित्तियाँ (कोरल रीफ) प्रदूषण की मार से संकट में हैं.
 भूमंडलीय तापन का दुष्प्रभाव से क़ृषि भी अछूती नहीं है. इससे पहले से मौजूद खाद्य संकट में और वृद्धि की हुई है. इसी आशंका को देखते हुए भारत सरकार ने इस साल गेहूं के निर्यात पर स्थाई रूप से रोक लगा दी. संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि बढ़ती आबादी को देखते हुए वर्ष 2050 तक अनाजों का उत्पादन तीन अरब टन प्रति वर्ष  करना होगा जो कि नजदीकी वर्षों में 2.1अरब टन है.
 इसके मद्देनजर दुनियाभर में खेती योग्य जमीन की बढ़त के लिए तेजी से जंगलों को साफ किया जा रहा है. किंतु अधिक उपज का लालच वातावरण को नष्ट कर रहा है. भारत जैसे देश, जो सघन आबादी की समस्या से जूझ रहे हैं, अपने सीमित क्षेत्र में अधिक से अधिक अनाजों का उत्पादन करना चाहते हैं. इस फेर में लगातार बहुतायत के साथ प्रयोग किये जाने वाले कृत्रिम रसायन मिट्टी की गुणवत्ता को नष्ट करने के अलावा ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव में भी बढ़ोतरी कर रहे हैं. साथ ही निर्वनीकरण (डिफारेस्टशन) की तेज गति के कारण मिट्टी का कटाव बढ़ता जा रहा है.
  भीषण गर्मी के चलते जंगलों में लगने वाली आग की घटनाएं आम हो चली है. निकट ही उत्तरी स्पेन के नवारा के जंगलों में लगी आग के कारण हजारों हेक्टेयर जंगल जल गये. उधर ग्रीस का इविया द्वीप भी दावानल से जूझ रहा है. जंगल की आग से जानवर बेघर हो जाते हैं और नए स्थान की तलाश में वे शहरों की ओर आते हैं जिससे इंसानों के साथ उनका टकराव बढ़ता हैं. वनों की मिट्टी में मौजूद पोषक तत्वों में भी भारी कमी आती है जिसके पुनर्प्राप्ति में भी लंबा समय लगता है. यह मात्र पर्यावरणीय नुकसान ही नहीं बल्कि संसाधनों पर भी चोट है. भारत भी इससे जूझ रहा है. भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग ने देश में वनाग्नि से होने वाली वार्षिक हानि को 440 करोड़ रुपये आंका है.
 मुनाफे की अंधी दौड़ में शामिल ‘मुनाफिक’ पूंजीवाद एवं उसके  कदमों तले पड़ी सरकारें मानव अस्तित्व बचाने में नहीं बल्कि लाभ के गुणा-गणित में लगी हैं. वर्ष 2015 की पेरिस संधि और 2021 के COP 26 की वार्ता को देखकर प्रतीत नहीं होता कि वैश्विक सरकारें इस विनाश के विरुद्ध कोई कारगर कदम उठाने को उत्सुक है. इनसे किसी प्रकार की उम्मीद मूर्खता होगी. तब मूल प्रश्न यह है कि आम लोग इस विनाश को  इसे कैसे रोक सकते हैं? इसका उत्तर सरल है. साइकिल और पैदल यातायात को तरजीह दीजिए, लंबी दूरियों के लिए सार्वजनिक यातायात के साधनों का प्रयोग कीजिए. नित नए उत्पाद खरीदने से बचिए एवं पुरानी चीजों को फेंकने के बजाय उन्हें मरम्मत करा के प्रयोग में लाइए. जीवाश्मीय ईंधनों के तर्कहीन उपयोग को रोकिये. ऊर्जा जरूरतों के लिए स्वच्छ ऊर्जा साधनों जैसे सौर ऊर्जा की तरफ बढिये. धारणीय विकास के संबंध में समाज को जागरूक बनाइए. जितना अधिक संभव हो वृक्षारोपण का प्रयास कीजिए. पर्यावरण सुरक्षा के प्रति जागरूक रहिए और दूसरों को भी जागरूक कीजिए. सबसे जरुरी है कि अपनी सरकारों पर पर्यावरणीय सुरक्षा हेतु ठोस कदम उठाने का दबाव बनाइये.
  एलियोनोरा ड्यूज कहतें हैं, “यदि आकाश का नीलापन आपकी आत्मा को खुशियों से भर देता है, हरी घास के पत्तियों को निहारते हुए आपके अंदर कुछ होता है, यदि कुदरत की छोटी-छोटी चीजें आपको संदेश देती प्रतीत होती हैं तो समझ लीजिए आपकी आत्मा जीवित है.” मानव जीवन का अस्तित्व प्रकृति के संतुलन पर आधारित है. विकास की अंधी दौड़ में मानव समाज प्रकृति को व्यापक तौर पर क्षतिग्रस्त कर चुका है. वर्तमान वस्तुस्थिति यह है कि कि अपनी ऐतिहासिक गलतियों को सुधारने के लिए हमारे पास ज्यादा वक्त नहीं है. भौतिक विकास कि जिस आयाम तक हम अपनी प्रकृति को खींच लाये है वहां से मानव जाति का अस्तित्व अंधकार पूर्ण दिख रहा है. अतः तत्क्षण प्रकृति के संबंध में ठोस निर्णयों एवं प्रतिबद्ध प्रयासों की महती आवश्यकता है.
[सर्वोदय जगत से साभार ]

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