‘गीता’ हमारे हृदय और हमारी बुद्धि दोनों को तुष्ट करती है

कुछ दिन पहले, बातचीत के दौरान, मेरे एक मिशनरी मित्र ने पूछ लिया कि यदि भारत वास्तव में आध्यात्मिक रूप से काफी आगे बढ़ा हुआ देश है, तो फिर ऐसा क्यों है कि यहां बहुत थोड़े से विद्यार्थियों को अपने धर्म की, यहां तक कि ‘भगवतगीता’ की भी, मामूली सी ही जानकारी है। वे खुद ही एक शिक्षाविद हैं, सो अपने इस कथन के समर्थन में, उन्होंने कहा कि वे जब भी विद्यार्थियों से मिलते हैं, उनसे यह पूछना नहीं भूलते कि उनको अपने धर्म या ‘भगवतगीता’ की कोई जानकारी है या नहीं; और विद्यार्थियों की एक बहुत बड़ी संख्या ऐसी ही मिलती है, जिसे कोई जानकारी नहीं होती।

मैं अभी इस तर्क की संगति या असंगति पर विचार नहीं करना चाहता कि कुछ विद्यार्थियों को यदि अपने धर्म की जानकारी न हों तो भारत को आध्यात्मिक रूप से उन्नत देश नहीं माना जा सकता। यहां मैं इतना ही कहूंगा कि विद्यार्थियों का धार्मिक ग्रंथों से अपरिचित रहने का मतलब अनिवार्यतः यही नहीं लगाया जा सकता कि भारतीय समाज में, जिसके कि वे विद्यार्थी अंग हैं, धार्मिक जीवन का नितांत अभाव है, या आध्यात्मिकता की कमी है। परंतु इसमें कोई शक नहीं कि सरकारी शिक्षण संस्थाओं से निकलने वाले विद्यार्थियों की विशाल संख्या धार्मिक शिक्षा से सर्वथा वंचित रहती है।

मेरे मिशनरी मित्र, मैसूर के विद्यार्थियों के बारे में, बात कर रहे थे। मेरा मन इस बात से कुछ दुःखी भी हुआ कि मैसूर की राजकीय पाठशालाओं में भी विद्यार्थियों को धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाती। मैं जानता हूं कि कुछ लोग इस विचार के हैं कि सार्वजनिक पाठशालाओं में केवल दुनियावी शिक्षा ही दी जानी चाहिए।

मैं यह भी जानता हूं कि भारत जैसे देश में धार्मिक शिक्षा का प्रबंध करने में कड़ी कठिनाइयां हैं; क्योंकि इस देश में संसार के अधिकांश धर्मों के लोग मौजूद हैं और एक धर्म में ही अनेक संप्रदाय मौजूद हैं। परंतु यदि भारत अपने-आपको आध्यात्मिक रूप से दिवालिया घोषित नहीं करना चाहता तो उसे, अपने यहां के नवयुवकों के लिए धार्मिक शिक्षा का प्रबंध करना, कम-से-कम उतना आवश्यक तो समझना ही चाहिए, जितना आवश्यक वह दुनियावी शिक्षा के लिए प्रबंध करना समझता है।

यह बात बिल्कुल सच है कि धर्म-ग्रंथों की जानकारी रखना और धार्मिक आचरण, दोनों एक ही चीज नहीं हैं। परंतु यदि हम अपने जीवन को धार्मिक नहीं बना सकते तो हमें कम-से-कम इतना तो चाहिए ही कि हम अपने बालक-बालिकाओं के लिए धार्मिक शिक्षा का प्रबंध करें। धार्मिक जीवन के अवभाव में, ऐसा ही एक चीज है, जिस पर हम संतोष कर सकते हैं पाठशालाओं में ऐसी शिक्षा का प्रबंध हो या न हो, पर हमारे देश के वयस्क विद्यार्थियों को, अन्य मामलों की भांति धर्म के मामले में भी, अपने-आप सीखने और करने की योग्यता विकसित करनी चाहिए। वे अपने वाद-विवाद क्लबों या आजकल कताई-क्लबों की तरह ही, धार्मिक शिक्षा के लिए भी, अपनी कक्षाएं शुरू कर सकते हैं।

मैंने शिमोगा में, कालेजिएट हाईस्कूल के विद्यार्थियों की सभा में, अपने भाषण के दौरान, वहां उपस्थित विद्यार्थियों से पूछा तो पता चला कि सौ से कुछ अधिक हिन्दू विद्यार्थियों में, मुश्किल से आठ ही ऐसे थे, जिन्होंने ‘भगवतगीता’ पढ़ी थी। जब उन आठ विद्यार्थियों से भी मैंने पूछा, कि वे ‘गीता’ को समझते हैं या नहीं, तो किसी ने भी हाथ नहीं उठाया। वहां पांच या छह मुसलमान बालक भी थे। ‘कुरान’ पढ़ने के बारे में, उनसे पूछने पर सभी ने अपने हाथ उठा दिए, पर उनमें से सिर्फ एक ने ही, उसका अर्थ समझने का दावा किया था।

मेरी राय में तो ‘गीता’ को समझना काफी आसान है। हां, उसमें कुछ ऐसी मूलभूत समस्याएं पेश की गई हैं, जिनका समाधान निस्संदेह बड़ा कठिन है। परंतु मैं समझता हूं कि ‘गीता’ का सामान्य अर्थ बड़ा ही स्पष्ट है। सभी हिन्दू संप्रदाय उसको प्रामाणिक ग्रंथ मानते हैं। उसमें किसी भी प्रकार की कट्टरता नहीं है। उसमें बड़े ही पुष्ट तर्कों पर आधारित नीति-नियमों की एक पूरी संहिता, संक्षिप्त रूप में, प्रस्तुत की गई है। ‘गीता’ हमारे हृदय और हमारी बुद्धि दोनों को तुष्ट करती है। इस तरह, उसमें दर्शन भी हैं और आस्था एवं भक्ति भी। उसके संदेश सब के लिए है। भाषा उत्यंत ही सरल है। लेकिन मेरा खयाल है कि भारत की हर प्रादेशिक भाषा में उसका एक प्रामाणिक अनुवाद होना चाहिए और अनुवाद इस ढंग से किए जाने चाहिए कि वे पारिभाषिक शब्दों की उलझन में न फंसते हुए, ‘गीता’ के उपदेशों को ऐसे ढंग से प्रस्तुत कर दें, कि साधारण पाठक उनको हृदयंगम कर सकें। मेरे कहने का यह मतलब कदापि नहीं कि मूल ग्रंथ को कुछ प्रक्षिप्त किया जाए। क्योंकि, मैं तो फिर यही कहता हूं कि मेरे विचार से प्रत्येक हिन्दू बालक-बालिका को संस्कृत का ज्ञान होना ही चाहिए। परंतु अभी एक लंबे अर्से तक लाखों व्यक्ति ऐसे रहेंगे, जिनको संस्कृत का कोई ज्ञान नहीं होगा। संस्कृत न जानने के कारण ही, उनको ‘गीता’ के उपदेशों सेवंचित रखना, आत्मघात के समान होगा।

(अंग्रेजी से)

यंग इंडिया, 25.8.1927

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