गांधी के सपनों का गांव

महात्मा गांधी

हमारे गाँवों की सेवा करने से ही सच्चे स्वराज्य की स्थापना होगी । अन्य सब प्रयत्न निरर्थक सिद्ध होंगे।अगर गाँव नष्ट हो जाएँ, तो हिंदुस्तान भी नष्ट हो जाएगा । वह हिंदुस्तान ही नहीं रह जाएगा। दुनिया में उसका अपना ‘मिशन’ ही खत्म हो जाएगा।

सच तो यह है कि हमें गाँवोंवाला भारत और शहरोंवाला भारत, इन दोनों में से एक को चुन लेना है । गाँव उतने ही पुराने हैं जितना कि यह भारत पुराना है । शहरों को विदेशी आधिपत्य ने बनाया है । जब यह आधिपत्य मिट जाएगा तब शहरों को गाँवों के मातहत होकर रहना पड़ेगा। आज तो शहरों का बोलबाला है और वे गाँवों की सारी दौलत खींच लेते हैं। इससे गाँवों का ह्रास और नाश हो रहा है । गाँवों का शोषण खुद एक संगठित हिंसा है । अगर हमें स्वराज्य की रचना अहिंसा के आधार पर करनी है तो गाँवों को उनका उचित स्थान देना ही होगा ।

मैं यह मानता हूँ कि अगर हिंदुस्तान को सच्ची आजादी पानी है और हिंदुस्तान की मारफत दुनिया को भी, तब आज नहीं तो कल देहातों में ही रहना होगा; झोंपड़ियों में, महलों में नहीं। कई अरब आदमी शहरों में और महलों में सुख से और शांति से कभी रह नहीं सकते, न एक-दूसरों का खून करके यानी हिंसा से, न झूठ से – यानी असत्य से। सिवाय इस जोड़ी के (यानी सत्य और अहिंसा) मनुष्यजाति का नाश ही है, उसमें मुझे जरा भी शक नहीं है । उस सत्य और अहिंसा का दर्शन हम देहातों की सादगी में ही कर सकते हैं । वह सादगी चरखे में और चरखे में जो चीज भरी है, उसी पर निर्भर है। मुझे कोई डर नहीं है कि दुनिया उलटी ओर ही जा रही दिखती है । यों तो पतंगा जब अपने नाश की ओर जाता है तब सबसे ज्यादा चक्कर खाता है और चक्कर खाते-खाते जल जाता है। हो सकता है कि हिंदुस्तान इस पतंगे के चक्कर में से न बच सके। मेरा फर्ज है कि आखिर दम तक उसमें से उसे और उसकी मार्फत जगत् को बचाने की कोशिश करूँ ।

ग्राम-स्वराज्य

ग्राम-स्वराज्य की मेरी कल्पना यह है कि वह एक ऐसा पूर्ण प्रजातंत्र होगा, जो अपनी महत्त्व की जरूरत के लिए अपने पड़ोसी पर भी निर्भर नहीं करेगा; और फिर भी बहुतेरी दूसरी जरूरतों के लिए – जिनमें दूसरों का सहयोग अनिवार्य होगा, वह परस्पर सहयोग से काम लेगा । इस तरह हर एक गाँव का पहला काम यह होगा कि वह अपनी जरूरत का तमाम अनाज और कपड़े के लिए कपास खुद पैदा कर ले उसके पास इतनी फाजिल जमीन होनी चाहिए, जिसमें ढोर चर सकें और गाँव के बड़ों व बच्चों के लिए मनबहलाव के साधनों और खेलकूद के मैदान वगैरह का बंदोबस्त हो सके। इसके बाद भी जमीन बची तो उसमें वह ऐसी उपयोगी फसलें बोएगा, जिन्हें बेचकर वह आर्थिक लाभ उठा सके; यों वह गाँजा, तंबाकू, अफीम वगैरह की खेती से बचेगा।

हर एक गाँव में गाँव की अपनी एक नाटकशाला, पाठशाला और सभाभवन रहेगा। पानी के लिए उसका अपना इंतजार होगा। वाटरवर्क्स होंगे। जिससे गाँव के सभी लोगों को शुद्ध पानी मिला करेगा। कुओं और तालाबों पर गाँव का पूरा नियंत्रण रखकर यह काम किया जा सकता है। बुनियादी तालीम के आखिरी दरजे तक शिक्षा सबके लिए लाजिमी होगी । जहाँ तक हो सकेगा, गाँव के सारे काम सहयोग के आधार पर किए जाएँगे ।

जात- -पाँत और क्रमागत अस्पृश्यता के जैसे भेद आज हमारे समाज में पाए जाते हैं, वैसे इस ग्राम समाज में बिलकुल न रहेंगे । सत्याग्रह और असहयोग के शास्त्र के साथ अहिंसा की सत्ता ही ग्रामीण समाज का शासन – बल होगी। गाँव की रक्षा के लिए ग्राम- सैनिकों का एक ऐसा दल रहेगा, जिसे लाजिमी तौर पर बारी-बारी से गाँव के चौकी – पहरे का काम करना होगा। इसके लिए गाँव में ऐसे लोगों का रजिस्टर रखा जाएगा। गाँव का शासन चलाने के लिए हर साल गाँव के पाँच आदमियों की एक पंचायत चुनी जाएगी। इसके लिए नियमानुसार एक खास निर्धारित योग्यतावाले गाँव के बालिग स्त्री-पुरुषों को अधिकार होगा कि वे अपने पंच चुन लें।

इन पंचायतों को सब प्रकार की आवश्यक सत्ता और अधिकार रहेंगे। चूँकि इस ग्राम – स्वराज्य में आज के प्रचलित अर्थों में सजा या दंड का कोई रिवाज नहीं रहेगा, इसलिए यह पंचायत अपने एक साल के कार्यकाल में स्वयं ही धारासभा, न्यायसभा और व्यवस्थापिका सभा का सारा काम संयुक्त रूप से करेगी।

आज भी अगर कोई गाँव चाहे तो अपने यहाँ इस तरह का प्रजातंत्र कायम कर सकता है। उसके इस काम में मौजूदा सरकार भी ज्यादा दखलंदाजी नहीं करेगी, क्योंकि उसका गाँव से जो भी कारगर संबंध है, वह सिर्फ मालगुजारी वसूल करने तक ही सीमित है। यहाँ मैंने इस बात का विचार नहीं किया है कि इस तरह के गाँव का अपने पास-पड़ोस के गाँवों के साथ या केंद्रीय सरकार के साथ, अगर वैसी कोई सरकार हुई, क्या संबंध रहेगा । मेरा हेतु तो ग्राम-शासन की एक रूपरेखा पेश करने का ही है।

इस ग्राम – शासन में व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आधार रखनेवाला संपूर्ण प्रजातंत्र काम करेगा। व्यक्ति ही अपनी इस सरकार का निर्माता भी होगा। उसकी सरकार और वह दोनों अहिंसा के नियम के वश होकर चलेंगे। अपने गाँव के साथ वह सारी दुनिया की शक्ति का मुकाबला कर सकेगा; क्योंकि हर एक देहाती के जीवन का सबसे बड़ा नियम यह होगा कि वह अपनी और अपने गाँव की इज्जत की रक्षा के लिए मर मिटे ।

जो चित्र यहाँ उपस्थित किया गया है, उसमें असंभव जैसी कोई बात नहीं है । संभव है, ऐसे गाँव को तैयार करने में एक आदमी की पूरी जिंदगी खत्म हो जाए । प्रजातंत्र का और ग्राम – जीवन का कोई भी प्रेमी एक गाँव को लेकर बैठ सकता है और उसी को अपनी सारी दुनिया मानकर उसके काम में डूब सकता है। निश्चय ही उसे इसका अच्छा फल मिलेगा । वह गाँव में बैठते ही एक साथ गाँव के भंगी, कतवैये, चौकीदार, वैद्य और शिक्षक का काम शुरू कर देगा। अगर गाँव का कोई आदमी उसके पास न फटके, तो भी वह संतोष के साथ सफाई और कताई के काम में जुटा रहेगा।

आदर्श गाँव

आदर्श भारतीय गाँव इस तरह बसाया और बनाया जाना चाहिए, जिससे वह संपूर्णतया निरोग रह सके। उसके झोंपड़ों और मकानों में काफी प्रकाश और वायु आ- जा सके। ये ऐसी चीजों के बने हों जो पाँच मील की सीमा के अंदर उपलब्ध हो सकती हैं। हर मकान के आस-पास या आगे-पीछे इतना बड़ा आँगन हो, जिससे गृहस्थ अपने लिए साग-भाजी लगा सकें और अपने पशुओं को रख सकें।

गाँवों की गलियों और रास्तों पर जहाँ तक हो सके, धूल न हो। अपनी जरूरत के अनुसार गाँव में कुएँ हों, जिनसे गाँव के सब आदमी पानी भर सकें। सबके लिए प्रार्थना – घर या मंदिर हों, सार्वजनिक सभा वगैरह के लिए एक अलग स्थान हो, गाँव की अपनी गोचर – भूमि हो, सहकारी ढंग की एक गोशाला हो, ऐसी प्राथमिक और माध्यमिक शालाएँ हों, जिनमें औद्योगिक शिक्षा सर्वप्रधान वस्तु हो और गाँव के अपने मामलों का निपटारा करने के लिए एक ग्राम पंचायत भी हो। अपनी जरूरतों के लिए अनाज, साग-भाजी, खादी वगैरह खुद गाँव में हीं पैदा हों।

एक आदर्श गाँव की मेरी अपनी यह कल्पना है। मुझे तो यह निश्चय हो गया है कि अगर ग्रामवासियों को उचित सलाह और मार्गदर्शन मिलता रहे तो गाँव की, मैं व्यक्तियों की बात नहीं करता, आय बराबर दूनी हो सकती है। व्यापारी दृष्टि से काम में आने लायक साधन-सामग्री हर गाँव में भले ही न हो, पर स्थानीय उपयोग और लाभ के लिए तो लगभग हर गाँव में है । पर सबसे बड़ी बदकिस्मती तो यह है कि अपनी दशा सुधारने के लिए गाँव के लोग खुद कुछ नहीं करना चाहते।

मेरे काल्पनिक देहात में देहाती जड़ नहीं होगा – शुद्ध चैतन्य होगा । वह गंदगी में, अँधेरे कमरे में जानवर की जिंदगी बसर नहीं करेगा; मर्द और औरत दोनों आजादी में रहेंगे और सारे जगत् के साथ मुकाबला करने को तैयार रहेंगे । वहाँ न हैजा होगा, न प्लेग होगा, न चेचक होगी। कोई आलस्य में रह नहीं सकता है । न कोई ऐश-आराम में रहेगा। सबको शारीरिक मेहनत करनी होगी। शायद रेलवे भी होगी, डाकघर भी होंगे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Name *