पुरूषार्थ से ही मिलेगा स्वराज

गांधी जी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय उद्घाटन समारोह में 4.2.16 को दिया। गांधी जी का यह यादगार भाषण हमारे लिए एक राह दिखाता है। एक ऐसा रास्ता जो हमें स्वराज की ओर ले जाएगा। गांधी जी का वह भाषण आज के लिए आइना है। उस आइने में हम और हमारा आइन दोनो देख सकते हैं.

दोस्तो, यहां आते हुए मुझे रास्ते में बहुत देर लग गई। मैं इसके लिए क्षमा याचना करता हूं। आप खुशी से माफ भी कर देंगे क्योंकि इस देरी के लिए न मैं जिम्मेदार हूं न कोई और आदमी; सच कहूं तो मैं पिंजरे का जानवर हूं और मेरी देख-रेख करने वाले लोग अत्यधिक ममता के कारण जीवन के एक महत्वपूर्ण पहलू अर्थात शुद्ध संयोग की बात को भूल जाते हैं इस बार भी हम लोग, मैं, मेरे निरीक्षक और मुझे उठाकर चलने वालों को एक के बाद एक जिन दुर्घटनाओं का सामना करना पड़ा उसकी पूर्व कल्पना करके तो कोई इंतजाम नहीं किया गया था; इसलिए इतनी देरी हो गई।

दोस्तो, अभी-अभी जो महिला भाषण देकर बैठी हैं उनकी अद्भुद वाकशक्ति के प्रभाव में आकर आप लोग कृपया इस बात पर विश्वास न कर लें कि जो विश्वविद्यालय अभी तक पूरा बना और उठा भी नहीं है वह कोई परिपूर्ण संस्था है और अभी जो विद्यार्थी यहां आए तक नहीं हैं वे शिक्षा-संपादन करके यहां से एक महान साम्राज्य के नागरिक होकर निकल चुके हैं। मन पर ऐसी कोई छाप लेकर आप लोग यहां से न जाएं और जिनके सामने आज मैं बोल रहा हूं वे विद्यार्थीगण तो एक क्षण के लिए भी इस बात को मन में जगह न दें कि जिस आध्यात्मिकता के लिए इस देश की ख्याति है और जिसमें उसका कोई सानी नहीं है, उस आध्यात्मिकता का संदेश बातें बघार कर दिया जा सकता है। अगर आपका ऐसा कुछ ख्याल हो तो मेहरबानी करके मेरी इस बात पर भरोसा कीजिए कि आपका वह ख्याल गलत है। मुझे आशा है कि किसी-न-किसी दिन भारत संसार को यह संदेश देगा; किंतु केवल वचनों के द्वारा वह संदेश कभी नहीं दिया जा सकेगा।

मैं भाषणों और तकरीरों से ऊब गया हूं। अलबत्ता पिछले दो दिनों में यहां जो भाषण दिए गए, उन्हें मैं इस तरह की तकरीरों से  अलग मानता हूं; क्योंकि वे जरूरी थे। फिर भी मैं यह कहने की धृष्टता कर रहा हूं कि हम भाषण देने की कला के लगभग शिखर पर जा पहुंचे हैं और अब आयोजनों को देख लेना और भाषणों को सुन लेना ही पर्याप्त नहीं माना जाना चाहिए। अब हमारे मनों में स्फुरण होना चाहिए और हाथ-पांव हिलने चाहिए। पिछले दो दिनों में हमें बताया  गया कि अगर भारतीय जीवन की सादगी कायम रखनी है हमें अपने हाथ-पांव और मन की गति में सामंजस्य लाना आवश्यक है। वैसे यह भूमिका हुई है। मैं कहना यह चाहता हूं कि मुझे आज इस पवित्र नगर में, इस महान विद्यापीठ के प्रांगण में, अपने ही देशवासियों से एक विदेशी भाषा में बोलना पड़ रहा है। यह बड़ी अप्रतिष्ठा और शर्म की बात है। पिछले दो दिनों में यहां जो भाषण दिए गए, यदि उनमें लोगों की परीक्षा ली जाए और मैं निरीक्षक होऊं तो निश्चित है कि ज्यादातर लोग फेल हो जाएं। क्यों? इसलिए कि इन व्याख्यानों ने उनके हृदय नहीं छुए।

मैं गत दिसंबर में राष्ट्रीय महासभा के अधिवेशन में मौजूद था। वहां बहुत अधिक तादाद में लोग इकट्ठा हुए थे। आपको ताज्जुब होगा कि बंबई के वे तमाम श्रोता केवल उन भाषणों से प्रभावित हुए, जो हिन्दी में दिए गए थे। ध्यान दीजिए यह बंबई की बात है बनारस की नहीं, जहां सभी लोग हिन्दी बोलते हैं। बंबई प्रांत की भाषाओं और हिन्दी में उतना फर्क नहीं है जैसा अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं में है; और इसलिए वहां के श्रोता हिन्दी में बोलने वाले की बात ज्यादा आत्मीय भाव से समझ सके। मुझे आशा है कि इस विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को उनकी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने का प्रबंध किया जाएगा। हमारी भाषा पर हमारा ही प्रतिबंध है और इसलिए यदि आप मुझसे यह कहें कि हमारी भाषाओं में उत्तम विचार अभिव्यक्त किए ही नहीं जा सकते, तब तो हमारा संसार से उठ जाना अच्छा है। क्या कोई व्यक्ति स्वप्न में भी यह सोच सकता है कि अंग्रेजी भविष्य में किसी भी दिन भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है? (‘‘नहीं, नहीं’’ की आवाजें) फिर राष्ट्र के पांवों में यह बेड़ी किसलिए? जरा सोचकर देखिए कि अंग्रेजी भाषा में, अंग्रेज बच्चों के साथ होड़ कराने में हमारे बच्चों पर कितना वजन पड़ता है।

पूना के कुछ प्रोफेसरों से मेरी बात हुई। उन्होंने बताया कि चूंकि हर भारतीय विद्यार्थी को अंग्रेजी की मारफत ज्ञान-संपादन करना पड़ता है, इसलिए उसे अपनी जिंदगी के बेश-कीमती बरसों में से कम-से-कम छह वर्ष अधिक जाया करने पड़ते हैं। हमारे स्कूलों और कालेजों से निकलने वाले विद्यार्थियों की संख्या में इस छह का गुणा कीजिए और फिर देखिए कि राष्ट्र के कितने हजार वर्ष बर्बाद हो चुके हैं। हम पर आरोप लगाया जाता है कि हम में पहल करने का माद्दा नहीं है। हो भी कैसे सकता है? यदि हमें एक विदेशी भाषा पर अधिकार पाने के लिए जीवन के अमूल्य वर्ष लगा देने पड़ें तो फिर और हो क्या सकता है? और तो और हम इसमें भी सफल नहीं हो पाते। श्री हिगिनबॉटम ने श्रोताओं को जितना प्रभावित किया, क्या कल और आज बोलने वालों में एक भी अन्य वक्ता उतना प्रभावित कर सका? यह उन बोलने वालों का कसूर नहीं था। सामग्री तो उनके भाषणों में भरपूर थी; लेकिन उनके भाषणों ने हमारा मन नहीं पकड़ा। कहा जाता है कि आखिरकार भारत के अंग्रेजीदां ही देश का नेतृत्व कर रहे हैं और वे ही  राष्ट्र के लिए सब कुछ कर रहे हैं। अगर इससे विपरीत बात होती तो वह और भयानक होती; क्योंकि हमें शिक्षा के नाम पर केवल अंग्रेजी शिक्षा ही तो मिलती है। शिक्षा का कुछ-न-कुछ परिणाम तो निकलता ही है। किंतु मान लीजिए हमने पिछले पाचस वर्षों में अपनी-अपनी भाषाओं के जरिए शिक्षा पाई होती; तो हम आज किस स्थिति में होते? तो आज भारत स्वतंत्र होता; तब हमारे पढ़े-लिखे लोग अपने ही देश में विदेशियों की तरह अजनबी न होते बल्कि देश के हृदय को छूनेवाली वाणी बोलते; वे गरीब-से-गरीब लोगों के बीच काम करते और पचास वर्षों की उनकी उपलब्धि पूरे देश की विरासत होती। (तालियां) आज तो हमारी अर्धांगिनियां भी हमारे श्रेष्ठ विचारां की भागीदार नहीं हैं। प्रो. बसु और राय तथा उनके शानदार आविष्कारों को ही लीजिए। क्या यह लज्जा की बात नहीं है कि जनता का उनसे कुछ लेना-देना नहीं है।

अब हम दूसरी बात लें।

कांग्रेस ने स्वराज के लिए एक प्रस्ताव पास किया है। यों तो मुझे विश्वास है कि अखिल भारतीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग अपना कर्त्तव्य पूरा करेंगे और कुछ-न-कुछ ठोस सुझावां के साथ सामने आयेंगी; किंतु जहां तक मेरा सवाल है, मैं स्पष्ट रूप से यह बात स्वीकार करना चाहता हूं कि इस बात में उतनी दिलचस्पी नहीं है कि वे क्या कुछ कर पाती हैं, जितनी इस बात में है कि विद्यार्थी जगत क्या करता है या जनता क्या करती है। कोई भी कागजी कार्रवाई हमें स्वराज नहीं दे सकती। धुआंधार भाषण हमें स्वराज के योग्य नहीं बना सकते। वह तो हमारा अपना आचरण है जो हमें उसके योग्य बनाएगा। (तालियां) सवाल यह है कि हम अपने पर किस प्रकार राज्य करना चाहते हैं? मैं आज भाषण नहीं देना चाहता, श्रव्य रूप में सोचना चाहता हूं। यदि आज आपको ऐसा लगे कि मैं असंयत होकर बोल रहा हूं, तो कृपया मानिए कि कोई आदमी जोर-जोर से बोलता हुआ सोच रहा है और वही आप सुन पा रहे हैं। और यदि आपको ऐसा जान पड़े कि मैं शिष्टाचार की सीमा का उल्लंघन कर रहा हूं तो कृपया उस स्वच्छंदता के लिए आप मुझे क्षमा करेंगे।

कल शाम मैं विश्वनाथ के दर्शन के लिए गया था। उन गलियों में चलते हुए, मेरे मन में ख्याल आया कि यदि कोई अजनबी एकाएक ऊपर से इस मंदिर पर उतर पड़े और यदि उसे हम हिन्दुओं के बारे में विचार करना पड़े तो क्या हमारे बारे में कोई छोटी राय बना लेना उसके लिए स्वाभाविक न होगा? क्या यह एक महान मंदिर हमारे अपने आचरण की ओर उंगली नहीं उठाता? मैं यह बात एक हिन्दू की तरह बड़े दर्द के साथ कह रहा हूं। क्या यह कोई ठीक बात है कि हमारे पवित्र मंदिर के आस पास की गलियां इतनी गंदी हों? उसके आस पास जो घर बने हुए हैं वे बे-सिलसिले और चाहे जैसे हों। गलियां टेढ़ी-मेढ़ी और संकरी हों। अगर हमारे मंदिर भी कुसादगी और सफाई के नमूने न हों तो हमारा स्वराज कैसा होगा? चाहे खुशी से, चाहे लाचारी से अंग्रेजों का बोरिया-बिसतर बंधते ही क्या हमारे मंदिर पवित्रता, स्वच्छता और शांति के धाम बन जाएंगे?

मैं कांग्रेस के अध्यक्ष से इस बात में सहमत हूं कि स्वराज की बात सोचने के पहले हमें बड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी। हमारे यहां हर शहर के दो हिस्से होते हैं; बस्ती खास और छावनी। बस्ती को अक्सर एक बदबूदार, गंदी कोठरी समझिए। यह ठीक है कि हम शहरों की जिंदगी के आदी नहीं हैं। लेकिन जब शहरी जिंदगी की हमें जरूरत ही है तो उसे हम अपने लापरवाह ग्राम्य जीवन का प्रतिबिंब तो नहीं बना सकते। बंबई की जिन गलियों में भारतीय रहते हैं, वहां राहगीर को यह धुकधुकी लगी ही रहती है कि कहीं कोई ऊपर की मंजिल से उन पर पीक न छोड़ दे। यह बड़ी विचारणीय परिस्थिति है। मैं काफी रेल-यात्रा करता हूं। तीसरे दर्जे के यात्री की तकलीफों पर ध्यान जाता है। किंतु इन सभी तकलीफों की जिम्मेदारी रेलवे के अधिकारियों के ऊपर नहीं मढ़ी जा सकती। यह जानते हुए भी कि डिब्बे का फर्श अक्सर सोने के काम में बरता जाता है, हम उस पर जहां-तहां थूकते रहते हैं। हम जरा भी नहीं सोचते कि हमें वहां क्या फेंकना चाहिए, क्या नहीं; और नतीजा यह होता है कि सारा डिब्बा गंदगी का अवर्णनीय नमूना बन जाता है। जिन्हें कुछ ऊंचे दर्जे का माना जाता है, वे अपने से कम भाग्यशाली अपने भाइयों के साथ डांट-डपट का व्यवहार करते हैं। विद्यार्थी वर्ग को भी मैंने ऐसा करते पाया है। वे भी गरीब सहयात्रियों के साथ कुछ अच्छा व्यवहार नहीं करते। वे अंग्रेजी बोल सकते हैं और नारफाक जाकिटें पहले होते हैं और इसलिए वे अधिकार जताकर डिब्बे में घुस जाते हैं और बैठने की जगह ले लेते हैं। मैंने हर अंधेरे कौने को मशाल जलाकर देखा; और चूंकि आपने मुझे बातचीत करने की यह सुविधा दी है, मैं अपना मन आपके सामने खोल रहा हूं। स्वराज की दिशा में बढ़ने के लिए हमें बिना शक ये सारी बातें सुधारनी चाहिए।

अब मैं आपको दूसरी जगह ले चलता हूं। जिन महाराज महोदय ने कल की हमारी बैठक की अध्यक्षता की थी, उन्होंने भारत की गरीबी की चर्चा की। दूसरे वक्ताओं ने भी इस बात पर बड़ा जोर दिया। किंतु जिस शामियाने में वायसराय द्वारा शिलान्यास-समोरह हो रहा था, वहां हमने क्या देखा? एक ऐसा शानदार प्रदर्शन, जड़ाऊ गहनों की ऐसी प्रदर्शनी, जिसे देखकर पेरिस से आने वाले किसी जौहरी की आंखें भी चौंधिया जातीं। जब मैं गहनों से लदे हुए उन अमीर-उमरावों और भारत के लाखों गरीब आदमियों से मिलता हूं तो मुझे लगता है, मैं इन अमीरों से कहूं, ‘‘जब तक आप अपने ये जेवरात नहीं उतार देते और उन्हें गरीबों की धरोहर मानकर नहीं चलते, तब तक भारत का कल्याण नहीं होगा। (हर्षध्वनि और तालियां) मुझे यकीन है कि सम्राज अथवा लार्ड हार्डिंग सम्राट के प्रति वास्तविक राजभक्ति दिखाने के लिए किसी का गहनों के संदूक उलटकर सिर से पांव तक सजकर आना जरूरी नहीं समझते। अगर आप चाहें तो मैं जान की बाजी लगातार महाराज जार्ज पंचम का संदेशा आपको लाकर दे दूं कि वे यह नहीं चाहते। भाइयो, जब कभी मैं सुनता हूं कि कहीं, फिर वह ब्रिटिश भारत में हो, चाहे हमारे बड़े-बड़े राजाओं और नवाबों द्वारा शासित रजवाड़ों में, कोई बड़ा भवन उठाया जा रहा है तो मेरा मन दुखी हो जाता है और मैं सोचने लगता हूं, ‘‘यह पैसा तो किसानों के पास से इकट्ठा किया गया गया पैसा है।’’ हमारे 75 प्रतिशत से भी अधिक लोग किसान हैं; कल श्री हिगिनबॉटम ने अपनी प्रवाहमयी वाणी में कहा, ‘‘ये ही वे लोग हैं जो एक के दो दाने करते हैं’’ यदि हम इनके परिश्रम की सारी कमाई दूसरों को उठाकर ले जाने दें तो कैसे कहा जा सकता है कि स्वराज की कोई भी भावना हमारे मन में है। हमें आजादी किसान के बिना नहीं मिल सकती। आजादी वकील और डाक्टर या संपन्न जमींदारों के वश की बात नहीं है।

अब अंत में, उस बात का थोड़ा-सा विवेचन करना मैं अपना कर्त्तव्य समझता हूं, जिसने आज दो-तीन दिनों से हमारे मनों को उद्विग्न कर रखा है। श्रीमान वाइसराय के यहां के रास्तों से निकलने के समय हम सब लोग बड़ी चिंता में थे। स्थान-स्थान पर खुफिया पुलिस के लोग नियत थे। हम दंग रह गए। हमारे मन में बार-बार यह प्रश्न उठता था कि हम लोगों के प्रति इतने अविश्वास का क्या कारण है? इस प्रकार मरणांतक-दुःख भोगते हुए जीने की अपेक्षा क्या लार्ड हार्डिंग के लिए सचमुच ही मर जाना अधिक श्रेयस्क नहीं है! परंतु एक बलशाली सम्राट के प्रतिनिधि इस प्रकार मर भी नहीं सकते। मृतक की भांति जीना ही वे शायद जरूरी समझते होंगे। पर दूसरा प्रश्न यह है कि खुफिया पुलिस का जुआ हमारे सिर पर लादने का क्या कारण है? हम कु्रद्ध होते हों, बड़बड़ाते हों, हाथ पैर पटकते हों, या और जो-चाहे सो करते हों, पर फिर भी यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत में अराजक दल की उत्पत्ति का कारण उतावलेपन का नशा है। मैं खुद भी अराजक ही हूं, पर दूसरे वर्ग का। हमारे यहां अराजकों का एक वर्ग है, जिससे यदि मुझे मिलने का अवसर मिले तो मैं उनसे स्पष्ट कह दूंगा कि ‘‘भाइयो! यदि भारत को अपने विजेताओं पर विजय प्राप्त करनी हो तो आपकी अराजकता के लिए यहां जगह नहीं है।’’ यह भीरूता का लक्षण है। यदि आपका ईश्वर पर विश्वास हो और यदि आप उसका भय मानते हों तो फिर आपको किसी से डरने का कोई कारण नहीं है; फिर चाहे वे राजा-महाराजा हों, वाइसराय हों, खुफिया पुलिस हों अथवा स्वयं सम्राट हों। अराजकों के स्वदेश प्रेम का मैं बड़ा आदर करता हूं। वे जो स्वदेश के लिए आनंदपूर्वक मरने के लिए प्रस्तुत रहते हैं, उनकी मैं इज्जत करता हूं। पर मैं उनसे पूछता हूं कि क्या मृत्युदंड प्राप्त होता है उसे किसी भी प्रकार गौरवपूर्ण माना जा सकता है? मैं कहता हूं, ‘नहीं’। कोई धर्मग्रंथ ऐसे उपाय का अवलंबन करने की अनुमति नहीं देता।

यदि मुझे इस बात का विश्वास हो जाए कि अंग्रेजों के रहते हुए इस देश का कदापि उद्धार न होगा उन्हें यहां से निकाल ही देना चाहिए तो उनसे अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर यहां से चलते होने की प्रार्थना करने में, मैं कभी आगा-पीछा न करूंगा और मुझे विश्वास है कि अपनी दृढ़ धारणा के समर्थन में मरने को भी तैयार रहूंगा, ऐसा मरण ही मेरी सम्मति में प्रतिष्ठा का मरण है। बम फेंकने वाला गुप्त रूप से षंड़यंत्र करता है। वह बाहर निकलने से डरता रहता है और पकड़े जाने पर अयोग्य और अतिरिक्त उत्साह का प्रायश्चित भोगता है। ये लोग कहते हैं कि यदि हम लोग ऐसी कार्रवाइयां न करते, यदि हमारे कुछ साथी बहुतों को बम का निशाना न बनाते तो बंग-भंग के संबंध में…। (इस स्थान पर श्रीमती बसेंट ने गांधीजी से भाषण शीघ्र समाप्त करने के लिए कहा।) मि. लायंस की अध्यक्षता में बंगाल में भी मैंने यही बात कही थी। मेरा ख्याल है कि मैं जो कुछ कह रहा हूं, वह बिल्कुल ठीक है। मुझे अपना भाषण समाप्त करने को कहा जाएगा तो मैं बंद कर दूंगा। (अध्यक्ष को संबोधित कर) महाराज, मैं आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहा हूं। यदि आपकी समझ में मेरी इन बातों से देश और सम्राट को हानि पहुंच रही है तो मुझे अवश्य चुप हो जाना चाहिए। (कहिए, कहिए का शोर; अध्यक्ष ने गांधीजी से अपना मतलब साफ तौर पर बतलाने को कहा)

मैं अपना मतलब स्पष्ट करता हूं। मैं सिर्फ (फिर गड़बड़) मित्रों, इस गड़बड़ से आप रूष्ट न हों। श्रीमती बेसेंट को मेरा चुप हो जाना उचित जान पड़ता है, इसका कारण यह है कि भारत पर उनका बहुत अधिक प्रेम है और वे समझती हैं कि युवकों के सामने इस प्रकार की स्पष्ट बातें कहकर मैं अनुचित काम कर रहा हूं। पर यदि ऐसा हो तो भी मेरा कहना है कि मुझे भारत को उस अविश्वास से मुक्त करना है, जो राजा और प्रजा, सभी के मन में उत्पन्न हो गया है। यदि अपने साध्य को प्राप्त करना हो तो परस्पर की प्रीति तथा विश्वास पर स्थापित साम्राज्य से ही हमारा काम चलेगा और अपने-अपने घरों में बैठे-बैठे, दायित्वहीन ढंग से, यही बातें कहने की अपेक्षा क्या इस विद्यालय के प्रांगण में खड़े होकर उन्हें खुले तौर पर कहना अधिक अच्छा नहीं है? मेरा तो ख्यात है, इन बातों को पूरी स्पष्टता से कहना ही अधिक अच्छी बात है। पहले भी मैंने ऐसा ही किया है और उसका परिणाम बड़ा ही उत्तम हुआ है।

मैं यह भी जानता हूं कि आज ऐसी कोई बात नहीं है, जिसकी विद्यार्थियों में चर्चा न होती हो या जिसे वे न जानते हों। इसीलिए मैंने यह आत्मनिरीक्षण आरंभ किया है। अपने देश का नाम मुझे बड़ा ही प्यारा है। इसी से मैंने आप लोगों के साथ विचार-विनिमय की इतनी चेष्टा की है और आप लोगों से मेरी नम्रतापूर्वत प्रार्थना है कि अराजकता को भारत में बिल्कुल स्थान न मिलने दीजिए। राजकर्ताओं से आपको जो कुछ कहना हो उसे खुलकर साफ शब्दों में कह दीजिए, और यदि आपका कथन उन्हें बुरा लगे तो उसके परिणामस्वरूप जो कष्ट मिलें उन्हें भोगने के लिए तैयार रहिए। आप उन्हें गालियां न दीजिए। जिस सिविल-सर्विस पर निंदा की बेहद बौछार की जाती है, एक बार उसके एक अधिकारी से मुझे वार्तालाप करने का अवसर मिला था। इन लोगों से मेरा बहुत हेलमेल नहीं है, तथापि उसकी बातचीत का ढंग प्रशंसनीय था। उन्होंने पूछा-क्या आपका भी ऐसा ही ख्याल है कि हम सभी सिविल-सर्वित वाले बुरे होते हैं और जिन लोगों पर शासन करने के लिए हम यहां आते हैं, उन पर हम केवल अत्याचार ही करना चाहते है? मैंने कहा-‘‘नहीं, नहीं, मैं ऐसा नहीं मानता।’’ इस पर उन्होंने कहा कि ‘‘तो फिर जब कभी आपको मौका मिले, आप हम अभागे सिविल-सर्वेंटों के पक्ष में, लोगों के सामने दो शब्द कहने की कृपा करें।’’ वे दो शब्द मैं यहां कहने वाला हूं।

इंडियन सिविल-सर्विस के बहुत से लोग निःसंदेह उद्धत, अत्याचार प्रिय और अविवेकी होते हैं। इसी तरह के और कितने ही विशेषण उन्हें दिए जा सकते हैं। यह सब कुछ मुझे स्वीकार है। यही नहीं, मैं यह भी मानता हूं कि कुछ वर्षों तक हमारे देश में रहकर वे और भी ओछी मनोवृत्ति के बन जाते हैं। पर इससे क्या सूचित होता है? यहां आने के पहले यदि वे सभ्य और सत्पुरूष थे, पर यहां आकर यदि वे नीति-भ्रष्ट हो गए तो क्या इसको हमारे ही चरित्र का प्रतिबिंब नहीं कहना चाहिए? (नहीं, नहीं) आप लोग खुद ही विचार करें कि एक मनुष्य, जो कल तक भला आदमी था, मेरे साथ रहने पर खराब हो जाए तो उसके इस अधः पतन के लिए कौन उत्तरदायी होगा? वह या मैं? भारत में आने पर खुशामद की जो हवा उन्हें चारों ओर से घेर लेती है, वही उनके नीतिच्युत होने के कारण है। ऐसी हालत में कोई भी व्यक्ति नीतिच्युत हो सकता है, कभी-कभी अपने दोष स्वीकार करना भी अच्छा होता है।

यदि किसी दिन हमें स्वराज मिलेगा तो वह अपने ही पुरूषार्थ से मिलेगा। वह दान के रूप में कदापि नहीं मिलने का। ब्रिटिश साम्राज्य के इतिहास पर दृष्टिपात कीजिए। ब्रिटिश साम्राज्य, चाहे जितना स्वातंत्र्य प्रेमी हो, फिर भी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए, स्वयं उद्योग न करने वालों को, वह कभी स्वतंत्रता देने वाला नहीं है। आप चाहें तो बोअर युद्ध से कुछ शिक्षा ले सकते हैं। कुछ ही वर्ष पहले, जो बोअर साम्राज्य के शत्रु थे, वही अब उसके मित्र हैं।

(इस समय फिर गड़बड़ शुरू हुई है और श्रीमती बेसेंट उठकर चल दीं। उनके साथ और भी कई बड़े-बड़े लोग उठकर चलते बने। और व्याख्यान का अंत यहां हो गया।)

 

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Name *