भूमि अधिग्रहण से वज्रपात तक

प्रज्ञा संस्थानकभी-कभी सरकारी निर्माण के लिए या सार्वजनिक संस्था के लिए किसान की जमीन ली जाती है। इस तरह अधिग्रहण की गयी जमीन का बाजार भाव से मुआवजा किसान को तुरंत एकमुश्त मिलना चाहिए। छोटे किसानों की जमीन नहीं ली जानी चाहिए। यदि परिस्थितिवश लेनी पड़े तो उनको अधिक मुआवजा देना चाहिए। मुआवजे की राशि संबंधित किसानों से या उनके संगठन से विचार-विमर्श के आधार पर निश्चित की जानी चाहिए। एक सरकारी समिति ने सिफारिश की है कि सिंचाई या तत्सम कार्यों के लिए जमीन लेते समय जिनके पास दो हेक्टेयर से कम भूमि है उन्हें सिंचित भूमि दो हेक्टेयर और असिंचित भूमि चार हेक्टेयर देनी चाहिए।

सार्वजनिक संस्थान के लिए जिनकी जमीन ली जाती है उनके लड़कों-रिश्तेदारों को संबंधित सार्वजनिक संस्थान की नौकरियों में प्राथमिकता दी जानी चाहिए। अकुशल याकुछ अर्द्ध-कुशल कामों के लिए उनको प्राथमिकता देना अनिवार्य माना जाना चाहिए। कभी-कभी विकास के नाम पर वनवासियों को विस्थापित किया जाता है। ऐसे विस्थापित वनवासियों के पुनर्वास की व्यवस्था तुरंत की जानी चाहिए। कृषि योग्य भूमि का उपयोग अपने औद्योगिक संस्थान के निर्माण के लिए करने का मोह बड़े-बड़े उद्योगपतियों को होता है।

ग्रामीण क्षेत्र में बड़े सरमायेदार का आक्रमण न हो यह देखना जैसे आवश्यक है, वैसे ही उद्योगपति सस्ती दर से किसानों की भूमि हड़प न ले, यह भी देखना आवश्यक है। कई कारखाने भूमि, जल तथा वायुमंडल को प्रदूषित करते हैं और इस प्रदूषण के कारण किसानों की खेती की बहुत नुकसान होता है। इस तरह की नुकसानी की पूरी क्षतिपूर्ति किसानों को मिले यह देखना सरकार का कर्तव्य माना जाना चाहिए। सरकार क्षतिपूर्ति की राशि उद्योगपतियों से वसूल करे और संबंधित किसानों को दे। देश की सभी विभिन्न खदानें शहरी क्षेत्रों के बाहर फैली हुई हैं। उनके अच्छे तथा बुरे प्रभाव निकटस्थ ग्रामीण तथा वनवासी क्षेत्रों पर होते रहते हैं। इन सब परिणामों का अध्ययन किए जाने की आवश्यकता है। वनवासी श्रमिकों की जनसेवाओं में, जैसे-वन रक्षक, चैकीदार इत्यादि में वरीयता मिले। सुविधाओं के निमित्त निजी वन क्षेत्रों को सरकारी वनक्षेत्रों के समीप लाया जाय।

वनवासियों के परंपरागत अधिकारों को वनक्षेत्रों में सुरक्षित रखा जाए और उनके लिए वनमूलक उद्योगों की स्थापना की जाए। उनकी दृष्टि से वन श्रमिक सहकारी संस्थाओं की स्थापना भी आवश्यक है। ग्रामीण तथा वनवासी क्षेत्रों में समय-समय पर सरकारी या निजी निर्माण कार्य प्रारंभ होते हैं। उन निर्माण कार्यों का ग्रामीण तथा वनवासी जीवन पर कोई विपरीत या उत्पीड़क परिणाम हो हो, यह सावधानी बरतने की आवश्यकता है। वैसे ही स्थानीय या बाहर से आए हुए निर्माणकारी श्रमिकों का स्थानीय जीवन के साथ सामंजस्य निर्माण हो, यह भी देखना जरूरी है। प्राकृतिक प्रकोप के परिणामों को किसानों के मान की कीमतें तय करते समय विचार में रखना चाहिए, यह विचार अन्यत्र रखा गया है। किंतु इसके अलावा प्राकृतिक प्रकोप, जैसे-बाढ़, आग, सूखा, भूचाल, महामारी इत्यादि या बाह्य तत्वों से, जैसे- युद्ध, दंगे, दुर्घटनाओं, हिंसा, लूट इत्यादि से प्रभावित ग्रामीण तथा वनजनों की शीघ्र सहायता या पुनर्वास के लिए केंद्रीय और राज्यीय स्तरों पर धनराशियों की स्थायी व्यवस्था करनी चाहिए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए विभिन्न सरकारी और गैर-सरकारी स्वैच्छिक संगठनों के कार्यों में सतत् समन्वय करते रहना जरूरी है।

 

ध्येय-पथ पर किसान

दत्तोपन्त ठेंगड़ी

अध्याय 3 भाग-1

 

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