ताकि बहती रहे गंगा

 

बनवारी

आज से पांच-छ: दशक पहले तक कोई इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकता था कि गंगा नदी इतनी प्रदूषित हो जायेगी कि उसके जल को स्वच्छ करने के लिए एक राष्ट्रीय अभियान चलाना पड़े।

भारत में सदा से गंगा के जल को पवित्र करने वाला माना जाता रहा है। भारतीय समाज के लिए गंगा केवल एक नदी नहीं है, वह देवोपगा है, देवी है, देवलोक से अवतरित हुई है। सभी भारतीयों के लिए गंगा त्रिविध रूपा है। अपने दिव्य रूप में वह देवी है, फलदायिनी है। हमें अपना आचरण पवित्र बनाये रखने के व्रत से बांधती है।

दिव्य नदी के रूप में वह भारत में ही नहीं, पृथ्वी पर बहने वाली सभी नदियों की, बल्कि जलमात्र की प्रतिनिधि है और हमें सभी नदियों की, जलमात्र की पवित्रता की रक्षा करने के अपने अनुलंघनीय कर्तव्य का स्मरण करवाती है।

यही कारण है कि भारतीय जहां भी रहे, अपने यहां की सब नदियों, जलधाराओं को गंगा के रूप में ही देखते रहे। यहां तक कि जब वे दक्षिण एशिया की गौरवशाली नदी मेकांग के तट पर निवास करने लगे तो उसे मां गंगा ही कहा। मेकांग मां गंगा का ही अपभ्रंश है। अपने भौतिक नदी रूप में गंगा जल का एक अमृतदायी प्रवाह है जो हमारे खेत-खलिहानों से लेकर सब तरह की समृद्धि और शुचिता को बनाये रखने का माध्यम रहा है।

हमारे साधारण निरक्षर ग्रामीण तक को गंगा के इन त्रिविध रूपों की सदा स्मृति रही है। लेकिन आज की शिक्षा व्यक्ति को इतना अक्षम बनाती जा रही है कि वह एक ही रूप में भौतिक और दिव्य सत्ता की प्रतीति नहीं कर सकता। पश्चिमी शिक्षा ने विज्ञान को एक ऐसे आसुरी तंत्र में बदल दिया है जो भौतिक रूपों में दिव्य सत्ता के देखे जाने का निषेध करता है। यह एक आसुरी अहंकार और अंधविश्वास नहीं तो और क्या है कि भौतिक सत्ता से इतर किसी सत्ता को माना ही न जाए।

यह बात अंशत: ही सही है कि गंगा और देश की अन्य सभी नदियों के विलोपन-प्रदूषण के लिए नगरीय जीवन और उद्योग दोषी हैं। इन दोनों को भारी मात्रा में जल की आवश्यकता होती है और उनका पेट भरने में नदी रीत जाती है। इसके बाद उनका विसर्जित मल और औद्योगिक प्रदूषण उनमें छोड़ दिया जाता है, और फिर उनमें केवल प्रदूषित जल ही दिखाई देता है। लेकिन देश में राजनैतिक शक्ति, प्रशासनिक व्यवस्था और प्रदूषण विरोधी कानूनों के रहते यह हो कैसे गया?

गंगा का प्रदूषण तो ऐसा पाप है जिसका दोष हम अंग्रेजों पर नहीं डाल सकते। यह प्रदूषण तो मुख्यत: स्वतंत्र भारत के प्रभारियों के जानते-देखते हुआ है। हमारा यह राजनैतिक-प्रशासनिक तंत्र गंगा को तथा देश की अन्य सभी नदियों को उस आत्मीय भाव से नहीं देखता, जिससे अब तक हम सभी भारतीय उन्हें देखते आए हैं। इसलिए उन्होंने देश के बदलते भौतिक जीवन की आवश्यकताओं की सरल पूर्ति के लिए उन्हें प्रदूषित होने दिया।

गंगा को स्वच्छ करने के अभियान पर अब तक करोड़ों रुपए खर्च हो चुके हैं। नदी की तो बात दूर, हम अभी तक काशी में गंगा के भव्य रहे घाटों की गंदगी दूर नहीं कर पाए। लेकिन साधन बढ़ेंगे और प्रशासनिक व्यवस्थाएं भी। देर-सबेर गंगा स्वच्छ होगी और उसके घाट अपेक्षतया सुंदर दिखेंगे। पर यह सब अपार संसाधन खर्च करते रहने पर निर्भर रहेगा।

पश्चिम के 90 प्रतिशत वैज्ञानिक ईसाई हैं, लेकिन उन्होंने यह अंध-धारणा बना रखी है कि ईश्वर लौकिक ज्ञान की परिधि में नहीं है, वह ज्ञान का नहीं निजी विश्वास का विषय है। यह भौतिक संसार जैसे हमारे अनुभव का विषय है वैसे ही दिव्य सत्ता भी हमारे अनुभव का विषय है। गांधीजी से जब एक ईसाई ने पूछा कि क्या उन्होंने ईश्वर को देखा है तो उन्होंने कहा कि उसे वे हर क्षण देखते हैं, ”अभी भी ठीक वैसे ही देख रहा हूं, जैसे तुम्हें देख रहा हूं।” यह बात उन लोगों को समझ में नहीं आ सकती जो ईश्वर की सत्ता को इस सृष्टि से सर्वथा अलग करके देखते रहे हैं, लेकिन भारत में तो इस मान्यता को स्वीकृति नहीं मिलनी चाहिए थी। यह अंधविश्वास कि गंगा एक भौतिक नदी ही हो सकती है, देवोपगा नहीं, दिव्य सत्ता नहीं, यही हमारी आज की समस्या का मूल है|

पश्चिम में लोगों की गंदगी करने की आदत नहीं गई। पश्चिम ने लोगों द्वारा फैलाई गंदगी को साफ करते रहने का एक सक्षम तंत्र खड़ा कर लिया है। लेकिन आज पश्चिम के पास इस तंत्र को सक्रिय रखने के साधन हैं, सम्पन्नता है। जब वह नहीं रहेगी, तब?

यही बात हमारे गंगा को स्वच्छ रखने के अभियान पर लागू होती है। अब तक गंगा केवल इसलिए निर्मल नहीं थी कि देश में प्रदूषण फैलाने वाले आधुनिक उद्योग नहीं थे। इसलिए निर्मल थी कि हम उसके त्रिविध रूपों के प्रति आस्थावान थे, शिक्षित थे। आज हम साक्षर होकर भी अशिक्षित हैं। हमें अपने तात्कालिक भौतिक सुख-दु:ख और लाभ हानि के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं देता। हमारे लिये भी सृष्टि के नियामक नियम नैतिक नहीं रहे, भौतिक हो गये हैं। हम व्यक्तिगत जीवन में दिव्य सत्ता के प्रति आस्थावान रहते हैं, लेकिन सार्वजनिक जीवन में शिक्षा-दीक्षा में, उसे अमान्य करते रहते हैं।

हमने विश्वास को छोड़कर अंधविश्वास को पकड़ लिया है। हमने अपने अंत:करण को आज के अज्ञान से ढंक दिया है। हमारा मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार सब प्रदूषित है। इस सब प्रदूषण के रहते गंगा स्वच्छ भले हो जाए, वह हमें अपने पुण्यदायी रूप में प्राप्त नहीं हो सकती|

 

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