किसान और उपभोक्ता

 

प्रज्ञा संस्थानभारतीय किसान संघ राष्ट्रवादी संगठन है। संपूर्ण राष्ट्र के हित का वह विचार करता है। वह जानता है कि किसान का हित और राष्ट्र का हित एक ही दिशा में जाने वाले और समानार्थी हैं। उसकी यह भी मान्यता है कि राष्ट्रहित का निकटतम आर्थिक पर्याय है-उपभोक्ता-हित। हमारी यह भूमिका नहीं है कि हमारी मांगे तो पूरी हों, और उसके फलस्वरूप राष्ट्र के अन्य घटक यदि जहन्नुम में भी जाते हों तो जायें। राष्ट्रवादी होने के नाते हम अपनी यह जिम्मेदारी मानते हैं कि जहां किसानों की ओर से कुछ मांगें प्रस्तुत कर रहे हैं वहां उन मागों की पूर्ति राष्ट्रहित के चैखट के अंदर कैसे हो सकती है, यह बताने की जिम्मेदारी भी हमारी है। इस जिम्मेदारी का निर्वाह भारतीय किसान संघ हर हालत में करेगा | 

हम अन्यत्र कही हुई एक बात का यहां प्रारंभ में केवल उल्लेख मात्र करते हैं। कल्याणकारी राज्य में ग्रामीण विकास का ढांचा तैयार करना शासन की संवैधानिक जिम्मेदारी है। यह स्पष्ट है कि इस प्रकार का ढांचा तैयार होने से किसान का उत्पादन खर्च कुछ मात्रा में घट जाएगा। 

भारतीय किसान संघ ने ग्रामीण औद्योगिकरण पर बहुत बल दिया है। इसके फलस्वरूप जमीन पर का बोझ कम होगा, ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार, पैसा तथा खरीदने की ताकत बढ़गी। इस माध्यम से गांवों में बढ़ा हुआ पैसा स्वाभाविक रूप से गांवों में ही खेलता रहेगा, जिसके फलस्वरूप गांवों में माल निर्माण कुटीर तथा ग्रामोद्योगों की वृद्धि होगी, और इसके कारण ग्रामीण लोगों को रोजगारी, पैसा तथा खरीदने की ताकत और भी बढ़ती जाएगी। इस तरह से एक नया स्वस्थ चक्र प्रारंभ होगा। जिसके आधार पर ग्रामीण तथा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाया जा सकता है। वे सारी बातें किसान संघ ने पहले ही बताई हैं। यह दोहराने की आवश्यकता नहीं कि ग्रामीण औद्योगीकरण के कारण न केवल जमीन पर का बोझ कम होगा अपितु किसान का उत्पादन खर्च भी घटेगा। 

उपरिनिर्दिष्ट दोनों बातें केवल पुनः स्मरण कराने के लिए कही हैं। इसी उद्देश्य से एक और बात का केवल उल्लेख करना उचित होगा। इसके पूर्व योजनाओं के अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्रों में भेजा गया पैसा उन गरीब लोगों के पास नहीं पहुंचा जिनके लिए भेजा गया था। इसका विस्तृत विवरण पहले ही किया जा चुका है। भविष्य में यह देखना होगा कि इस गलती को दोहराया न जाय। 

किंतु सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत की योजनाएं भारत की परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं के अनुकूल नहीं हैं। हम सभी योजनाओं का अंधानुकरण कर रहे हैं। फलस्वरूप रूस के ही समान हम भी भारी उद्योगों को प्राथमिकता दे रहे हैं। वास्तव में भारत जैसे कृषि-प्रधान देश में कृषि को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। रूस की योजना-पद्धति रूस के लिए भी कहां तक उपयुक्त है यह एक अलग प्रश्न है। रूस में जमीन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हुए भी हमेशा कृषि असफल रहती है। शायद इसी कारण जिस किसी नेता को सार्वजनिक जीवन से अलग करने की बात सोची जाती है उसको कृषि मंत्री बनाया जाता है। कम्यूनिस्ट रूस को पूंजीवादी अमेरिका से अनाज लाकर अपनी प्रजा का पेट भरना पड़ता है। यह कितनी लज्जा की बात है! कम्यूनिस्ट चीन ने इस गलती को अनुभव किया था और आगे चलकर अपनी योजनाओं का ढंग बदल दिया था। हम चीन के समान अपनी स्वतंत्र प्रतिभा का परिचय देने के लिए भी तैयार नहीं हैं। पिछले 36 साल से यह अंधानुकरण सतत् चला आ रहा है और योजनाओं को गलत ढंग से बनाया तथा अपनाया जा रहा है। 

भारतीय किसान संघ का कहना है कि योजनाओं के ढंग में आमूल-चूल परिवर्तन किया जाना चाहिए। कृषि को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। जो सारी सहायता तथा सहूलियतें भारी उद्योगों को दी जा रही हैं, वे ही कृषि को भी दी जानी चाहिए। निर्यात दृष्टि से उद्योगों को खड़ा करने की दृष्टि से सरकारी कोष से जो कुछ भी उद्योगों को प्राप्त होता है वही उपर्युक्त बातों के लिए कृषि को भी प्राप्त होना चाहिए। योजनाओं के अन्तर्गत धनराशि का आवंटन आज तक जितना भारी उद्योगों के पक्ष में हुआ है, उतना ही कृषि के पक्ष में भी होना चाहिए और यह भी देखना चाहिए कि जिन बातों के लिए लोगों को पैसा आवंटित होता है वह उनके ही पास पहुंचता है या नहीं। भारतीय किसान संघ कहता है कि पिछले 37 साल तक सरकार के जो प्रयोग करके देखा, उसके दुष्परिणाम दृष्टिगत हो रहे हैं। अब कम से कम छह साल तक किसान संघ के सुझावों के अनुसार योजनाओं का प्रारूप बनाया जाए। 

हमारा विशेष रूप से यह निवेदन है कि खेती तें प्रयुक्त होने वाली हर चीज को मूल में भारी मात्रा में सहायतार्थ धन प्रदान किया जाये। बिजली, पानी, खाद, बीज, औषधियां, डीजल, ट्रैक्टर, खेती के औजार आदि चीजें इस श्रेणी में आती हैं। आज भी अपर्याप्त मात्रा में ही क्यों न हों कुछ बातों के लिए सहायता राशि दी जाती है, किंतु एक तो उसकी राशि छोटी है और दूसरी एक महत्वपूर्ण बात यह कि वह मूल में नहीं दी जाती। आज की इस पद्धति में आवंटित पैसे का पूरा नाम किसान को नहीं मिल पाता। ?ऋण की दृष्टि से भी भारी उद्योगों को जो सहायताएं और सहूलियतें दी जा रही हैं वे सारी सुविधाएं कृषि को प्राप्त होनी चाहिए। 

वे दोनों व्यवस्थाएं यदि हो जाती हैं तो उपभोक्ताओं पर अधिक बोझ न डालते हुए भी अपने माल की उचित कीमत प्राप्त करना किसान के लिएसंभव होगा क्योंकि इन दोनों व्यवस्थाओं के कारण किसानों का उत्पादन खर्च बहुत कम होगा। ग्रामीण ढांचा और ग्रामीण औद्योगीकरण के फलस्वरूप उत्पादन खर्च घटाने में सहायता मिलेगी। इसके कारण उपभोक्ताओं पर बोझ बिल्कुल नहीं पड़ेगा, यह तो नहीं कहा जा सकता किंतु यह कहा जा सकता है कि यह बोझ थोड़ा सुसहनीय होगा। कारखाने के माल के लिए आज भी उसको अधिक बोझ सहन करना ही पड़ रहा है। उस तुलना में यह बोझ अत्यल्प होगा और दूसरी बात यह कि इस बोझ की कालावधि भी बहुत कम रहेगी। इसके कारण सरकारी कोष पर पड़ने वाला बोझ भी अल्पकालीन ही रहेगा। हमारी यह निश्चय धारणा है कि भारी उद्योगों के लिए जो पोषक नीति 37 साल तक अपनायी गयी है, यदि वही केवल छह साल के लिए कृषि के विष्ज्ञय में अपनाई गयी तो देश की अर्थव्यवस्था का पूरा चित्र ही बदल जायेगा। पर्याप्त मात्रा में अधिक पैसा तथा खरीदने की ताकत गांवों में आ जाएगी तो ग्रामीण तथा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में एक नया स्वस्थ चक्र किस तरह प्रारम्भ होगा इसका विवरण अन्यत्र किया गया है। हमारा आग्रह है कि केवल छह साल के लिए यह नया प्रयोग करके देखा जाए। इसकी यशस्विता की जिम्मेदारी भारतीय किसान संघ लेता है। 

मतलब यह कि किसान और उपभोक्ताओं के हितों में मौलिक विरोध नहीं है। सरकार की सरमायेदारपरस्त गलत नीतियों के कारण यह विरोध निर्माण हो रहा है। सरकारी अपप्रचार के कारण आम जनता के मन में किसानों की न्यायोचित मांगों के विषय में विरोध की भावना निर्माण की जा रही है। यह वस्तुस्थिति जनता के ध्यान में ला देना, अपप्रचार का शिकार बनने से जनता को बचाना, किसान और शेष जनता में सौहार्द कायम रखना और सरकार के साथ न्यायोचित मांगों के लिए होने वाले संघर्षों में जनता की अपने पक्ष में रखकर सरकार को अलग-थलग कर देना, यह प्रभावी रणनीति हो सकती है जिसको क्रियान्वित करने का प्रयास भारतीय किसान संघ करेगा।      

ध्येय-पथ पर किसान

दत्तोपन्त ठेंगड़ी

अध्याय 3 भाग-1

          

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