आपातकाल: ज़ब संविधान की प्रस्तावना अपमानित हुई

शिवेन्द्र सिंह राणा

संविधान, जिसे भारत में धर्म ग्रन्थ सरिखा सम्मान प्राप्त है, के इतिहास में कई महत्वपूर्ण तिथियां अंकित हैं. ऐसी ही एक तिथि 25-26 जून की है ज़ब देश में आपातकाल लागू हुआ और संविधान पर कुठाराघात किया गया. 73वें गणतंत्र दिवस का उत्सव मना चुके देश में संविधान की उपलब्धियों पर ही नहीं उन त्रासदीयों पर भी विमर्श होना चाहिए जिनसे होकर संविधान एवं लोकतंत्र गुजरा है. ऐसी ही त्रासदी आपातकाल के दौर की रही है. ज़ब संवैधानिक मूल्यों को अपमानित किया गया.

 संविधान सभा में 13 दिसंबर, 1946 को पं.नेहरू द्वारा उद्देश्य प्रस्ताव पेश किया गया.जिसका समर्थन राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन ने किया.विश्व के प्रत्येक संविधान का एक स्व-दर्शन होता है. वही दर्शन पं.नेहरू द्वारा प्रस्तुत उद्देश्य-संकल्प, जिसे संविधान सभा द्वारा 22 जनवरी, 1947 द्वारा अंगीकृत किया गया. जो पं. नेहरू के शब्दों में, ‘संकल्प से कुछ अधिक, एक दृढ़ निश्चय, एक प्रतिज्ञा, एक वचन और सभी के लिए समर्पण’ था. इस प्रस्ताव के द्वारा संपूर्ण प्रभुतासंपन्न लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में भावी भारत की रूप-रेखा प्रस्तुत की गई थी. लेकिन यह संवैधानिक आदर्शवाद दो दशकों बाद ही खंडित हो गया ज़ब लालबहादुर शास्त्री की आकस्मिक मृत्यु के पश्चात् पं.नेहरू की बेटी इंदिरा को बिना निर्वाचन, जनसहमति के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बिठाकर  संवैधानिक मर्यादाओं का अतिक्रमण हुआ.
लोकनायक जयप्रकाश नारायण लिखते हैं, ‘लोकतंत्र की समस्या मूलतः नैतिक समस्या है. संविधान, शासन-प्रणाली, दल, निर्वाचन-ये सब लोकतंत्र के अनिवार्य अंग हैं. किंतु जब तक लोगों में नैतिकता की भावना न रहेगी, लोगों का आचार-विचार ठीक न रहेगा, तब तक अच्छे-से-अच्छे संविधान और राजनीतिक प्रणाली के बावजूद लोकतंत्र ठीक से काम नहीं कर सकता. लोकतंत्र के लिए ये नैतिक गुण और मानसिक प्रवृत्तियाँ आवश्यक हैं.’ लेकिन वंशवाद की विषबेल से उपजी सत्ता के पास ऐसी नैतिकता के होने का प्रश्न ही कहाँ पैदा होता है. इंदिरा गाँधी को संविधान के तिरस्कार की शिक्षा अपने पिता जवाहरलाल नेहरू से मिली थीं जिनका कहना था,  ‘यदि संविधान कांग्रेस की नीतियों के विपरीत जाता है तो उसे बदलकर और अनुकूल बनाया जाना चाहिए.’ 
संविधान सभा में बहस के दौरान संविधान के प्रारूप की आलोचनाओं पर जवाब देते हुए डॉ.आंबेडकर ने कहा था, “मै यह कहूँगा कि यदि नवीन संविधान के अंतर्गत कोई गड़बड़ी पैदा होती है तो इसका कारण यह नहीं होगा कि हमारा संविधान ख़राब था, बल्कि यह कहना चाहिए कि सत्तारूढ़ व्यक्ति ही अधम था, नीच था.” 1975 में डॉ.आंबेडकर की आशंका सच साबित हुई. आपातकाल दौर में दुष्टतापूर्ण शक्तियां सक्रिय हो गई, जिसकी पुष्टि उस समय हुई ज़ब गाँधी समाधि राजघाट पर आचार्य कृपलाणी द्वारा आयोजित प्रार्थना के दौरान गाँधीजी के पौत्र राजमोहन गाँधी एवं समाजवादी नेता एच.वी.कामत गिरफ्तार हुए.
इस बंदी प्रत्यक्षीकरण मामले में सर्वोच्च न्यायालय में तत्कालीन  महाधिवक्ता ‘नीरेन डे’ ने अनु.21 के के अंतर्गत प्रदत्त जीवन एवं स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के प्रवर्तन के निलंबन का  समर्थन एवं किसी नागरिक के अपनी गिरफ्तारी को न्यायालय के समक्ष चुनौती देने के अधिकार का विरोध किया. उस समय सरकार का पक्ष रखते हुए उनका कहना था कि, ‘गिरफ्तारी का आदेश यदि क़ानून के अनिवार्य प्रावधानों के प्रतिकूल है और यह ‘दुष्ट विचार’ से प्रेरित है तब भी न्यायालय को बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को सिरे से ख़ारिज कर देना चाहिए.’
  इसी प्रकार अपनी दुष्टतापूर्ण योजना के अंतर्गत आपातकाल के समय लोकतंत्र हंता तत्कालीन सरकार ने संविधान के एक बड़े भाग के साथ ही प्रस्तावना को भी संशोधित (42वां संविधान संशोधन अधिनियम,1976) किया और उसमें ‘समाजवादी’ एवं ‘पंथनिरपेक्ष’ जैसे दो शब्द जोड़ दिये. जबकि मूल प्रस्ताव में समाजवाद एवं पंथनिरपेक्षता ही नहीं बल्कि लोकतंत्र जैसे शब्दों का भी उल्लेख नहीं था. ‘मैनेक’ लिखते हैं, ‘इतिहास में कार्य-कारण-संबंधों की गवेषणा मूल्यों के संदर्भ के बिना असम्भव है. कारणों की गवेषणा के पीछे प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में मूल्यों की गवेषणा आवश्यक होती है.’
  आखिर पं.नेहरू ने ऐसा क्यों किया होगा. इसके दो जवाब है. पहला, नेहरू विवाद से बचना चाहते थे. दूसरा, जैसा की उनके जीवनीकार माइकल ब्रेशर के अनुसार, ‘संभवतः सरदार पटेल ने ऐसा होने नहीं दिया.’ वजह जो भी हो. किंतु यह भी सत्य है कि संविधान सभा नहीं चाहती थी कि संविधान को किसी वाद, सिद्धांत या विचारधारा से सम्बद्ध कर दिया जाये. किंतु लोकतंत्र हंता आपातकाल में स्वतंत्रता सेनानियों की आस्था को ना सिर्फ रौंदा गया अपितु बारम्बार अपमानित किया गया. 
 हालांकि यह संपूर्ण सरकार से अधिक व्यक्ति विशेष अर्थात् तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के अंतर्मन में व्याप्त अधिनायकवाद का परिणाम था. आवाड़ी अधिवेशन (1955) में उनके सर्वाधिकारवादी पिता जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस ने ‘समाज की समाजवादी संरचना’ के उद्देश्य का संकल्प लिया था. दूसरे छद्म पंथनिरपेक्षता के नाम पर सनातन समाज को कट्टरपंथी इस्लामिक भेड़ियों के आगे निराश्रित छोड़ देने वाले (1948 के भारत-पाक समझौता एवं 1950 के नेहरू-लियाकत समझौते) वाले ‘शांतिदूत चाचा’ की ‘गूंगी गुड़िया’ ने अपने लोकतान्त्रिक शक्ति को महत्त्वकांक्षा पूर्ति का मार्ग बनाया. जैसा कि भूतपूर्व गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी, इंदिरा गाँधी का मूल्यांकन करते हुए लिखते हैं, ‘उनके निरंकुश व्यक्तित्व के दो पहलू हैं- असुरक्षा और घमंड. वह सत्ता-लोलुप थीं, जो स्वयं को जवाबदेह तथा विवेक के सामान्य मानदंडों से भी ऊपर मानती थीं. इतिहास में सभी निरंकुश शासकों में ऐसे लक्षण दिखे हैं.’
 इसी की पुष्टि करते हुए आपातकाल के दौरान इंदिरा गाँधी के करतूतों के मुरीद रहे प्रसिद्ध लेखक-पत्रकार खुशवंत सिंह ने भी बाद में कहा था, ‘अपनी असुरक्षा की भावना के वशीभूत होकर उन्होंने लोकतांत्रिक संस्थाओं को नष्ट किया. यह असुरक्षा सत्ता गँवाने की आशंका से उत्पन्न हुआ था. रहा उनका अहंकार, तो वह स्वयं के भारत के अघोषित राजपरिवार,नेहरू खानदान की उत्तराधिकारी होने की उनकी स्वयंभू धारणा की उपज था. जैसा कि आडवाणी के अनुसार, ”शासन करने के लिए जन्म लेने की आत्मछवि’ राजतंत्र में एक गुण हो सकता है, लेकिन लोकतंत्र में नहीं. कांग्रेस के विभाजन से पूर्व और बाद के सभी कृत्यों में इंदिरा गाँधी का यही आकर्षण था.” 
18वीं सदी साम्राज्यवाद की थीं लेकिन 19 सदी में विचारधाराओं का जोर था. 20वीं सदी में इन्हीं विचारधाराओं के आधार पर विश्वभर में अधिपत्य का संघर्ष हुआ. इसमें सबसे प्रभावशाली सर्वाधिकारवादी विचारधारा समाजवाद की रही जिसने दावा तो अकिंचन वर्ग को जगा कर समता लाने का नारा दिया लेकिन यह भी इतिहास की विडंबना है कि सबसे ज्यादा जनसंहार, अत्याचार और शोषण भी समाजवादियों ने ही किया.
प्रमाणतः हिटलर, मुसोलिनी, स्टालिन, पोल पॉट से लेकर इंदिरा तक सभी समाजवादी थे. हिटलर एवं इंदिरा की कार्यशैली में गजब की समानता है. इस सम्बन्ध में विलियम शिरर की पुस्तक ‘द राइज ऐंड फॉल ऑफ़ थर्ड राइक’, जो हिटलर के शासनकाल की विवेचना पर आधारित है, को देखिये. हालांकि कुछ भिन्नता के बिंदू भी मौजूद रहे हैं. जैसे उपरोक्त सभी तानाशाह अपनी विकट संघर्षों से उभरकर सत्ता के शीर्ष तक पहुंचे थे जबकि इंदिरा गाँधी को भारत की सत्ता उनके सर्वाधिकारवाद रोग से पीड़ित पिता की विरासत में मिली थीं इसलिए उनका अहंकार भी अधिक बड़ा था.
हालांकि इसका दूसरा पहलू जनपक्ष भी है. व्यक्ति या परिवार विशेष की अपरिहार्यता एवं लोकतंत्र की अवधारणा परस्पर सहगामी नहीं हो सकते. किंतु भारतीय लोकतंत्र ने ये भावुकतापूर्ण आत्मघात किया जिसका प्रतिफल ये हुआ कि नेहरू की बेटी को सत्ता मिली और उनके द्वारा लागू आपातकाल के दौरान जनभावनाएं एवं जनमर्यादओं को क्रूरता से रौँदा गया. इंदिरा गांधी को इस बात का भान था कि जिस प्रकार मोतीलाल नेहरू एवं गांधीजी के सहयोग से जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस एवं भारतीय जनता पर थोप दिए गए थे और नेहरू के एकाधिकार और उनके प्रति चाटुकारिता की परंपरा की वजह से इंदिरा गांधी स्वयं सरकार पर थोप दी गई थी. वैसे ही इस अनैतिक परंपरा के बूते स्वयं श्रीमति गाँधी संविधान पर अपनी मनमर्जी थोप सकती हैं और उन्होंने थोपा भी.
 संविधान जीवंत दस्तावेज है. उसमें कालक्रम एवं भविष्य के दृष्टिकोण से परिवर्तित होना चाहिए. परिवर्तन, वह भी देश हितानुकूल परिवर्तन से किसी को भी आपत्ति नहीं होती. किंतु यह परिवर्तन संविधान के उन मूलभूत सिद्धांतों को रौंद कर नहीं किया जाना चाहिए था, वे सिद्धांत जो भारत की अंत:चेतना से उपजे थे और संविधान सभा उसका प्रतिनिधित्व कर रही थी. प्रस्तावना संविधान का दर्शन होती है. यह राष्ट्रीय संस्कारों, जीवन मूल्यों, राष्ट्र के संघर्ष से उपजी प्रेरणाओं और उसके भविष्य की मार्गदर्शक है.
 किंतु आपातकालीन कृत्य संवैधानिक दर्शन का तिरस्कार था. असल में आपातकाल में संविधान में संशोधन संविधानवाद की अवधारणा के विरुद्ध था. यह राजनीतिक सत्ता का दुरूपयोग था जिससे संविधान का मूल भावना को आहत किया गया. उद्देशिका के विशेषतः दो प्रयोजन होते हैं. प्रथमतः, उद्देशिका ही संविधान के प्राधिकार का स्रोत स्पष्ट करती है. द्वितीय संविधान किन उद्देश्यों को संवर्धित या प्राप्त करने का आकांक्षी है. उद्देशिका ही वह आधार था जिस पर संविधान का स्वर्णिम भवन खड़ा था और कांग्रेस इसे विकृत करना चाहती थीं इसलिए सबसे पहले उसके आधार पर चोट करना था. अतः इंदिरा गांधी ने इसके आधार यानी उद्देशिका पर चोट किया. उद्देशिका पर अपने कुत्सित राजनीति से प्रेरित हमले के द्वारा वह संविधान की मूल धारा परिवर्तित करना चाहती थीं, जो उन्होंने किया भी क्योंकि उद्देशिका ही वह गर्भनाल थी जिसने संविधान का आकार तैयार किया था.
 सर्वविदित है कि ‘समाजवाद एवं पंथनिपेक्षता’ के कोई सुनिश्चित अर्थ नहीं है. अतः इसका लाभ हितबद्ध राजनीतिक समूहों द्वारा उठाया जाता रहा. जैसा कि इंदिरा गांधी ने स्वयं  कहा था, ‘समाजवाद का हमारा अपना ब्रांड है.’ इसी प्रकार पंथनिरपेक्षता का प्रयोग अनिर्बंधित सांप्रदायिकता के हथियार के रूप में भी हो सकता है अथवा धर्मांधता अथवा धर्म विरोध के रूप में भी. जनता पार्टी ने ज़ब 45वें संविधान संशोधन विधेयक, 1976 के माध्यम से अनु.366 का संशोधन करके एक स्पष्टीकरण जोड़कर इसकी व्याख्या का प्रयास किया तब राज्यसभा में बहुमत में उपस्थित कांग्रेसियों ने ऐसा होने नहीं दिया. आज जो कांग्रेस ‘देश किसी सरकार या संगठन की मर्जी से नहीं बल्कि संविधान से चलेगा’, तथा ‘संविधान खतरे में है’, कि तक़रीरें करते दिखते हैं ना ये दरअसल वही हैं जिन्हें  संविधान अपने अनुकूल चाहिए था. 
आश्चर्य है कि जनता सरकार ने जब पूर्व में संवैधानिक संशोधनों द्वारा की गई विकृतियों को 43वें एवं 44वें संशोधन अधिनियम (1977, 1978) द्वारा ठीक किया, तब प्रस्तावना का पक्ष यथावत क्यों छोड़ दिया? क्योंकि तब तक तो इस छद्म पंथनिरपेक्षता एवं अवसरवादी समाजवाद का जहर देश की राजनीति के डीएनए में पैठ कर चुका था या यूँ क आपदा में अवसर ढूंढ रहे इस भानुमति के कुनबे के पास इतना नैतिक बल ही नहीं बचा था. देश में वोट बैंक की राजनीति उस निम्नतम स्तर की ओर अग्रसर थीं जहाँ राष्ट्रवाद की जिजीविषा को तिलांजलि दी जा चुकी थी.संविधान के इन उपबंधों का इस्तेमाल राजनीतिक तुष्टिकरण एवं बहुसंख्यक समाज की प्रताड़ना हेतु किया जाने लगा.
 द्वितीय सरसंघचालक श्री गोलवरकर लिखते हैं, “भूल करना मानवीयता है, किंतु प्रमाणित और निर्णीत भूल को हठपूर्वक पकड़े रहना अमानवीयता है.” इस देश ने कई भूलें की है यथा, किसी परिवारवार के विरुद्ध अंध सम्मान रखकर वंशवाद को मुस्सलत कर लेना, ऐसी अधम सत्ता को स्वीकार करना, संविधान के अपमान को चुपचाप सह लेना और अगली सरकारों पर ऐसी गलतियों को सुधारने का दबाव नहीं बनाना इत्यादि. ये प्रमाणिक भूलें थीं किंतु इन्हें ढ़ोते रहना तो राष्ट्र की नियति नहीं हो सकती. इसी प्रकार मूल प्रस्तावना में परिवर्तन के चिन्ह आज तक संविधान को बदरंग किये हुए हैं. इन्हें बदलना ही चाहिए और इसके लिए स्पष्टीकरण, समरसता और वैश्विक दृष्टि जैसे अनर्गल तर्क स्वीकार नहीं किये जाने चाहिए. राजनीतिक वर्ग को ये समझना होगा कि सांस्कृतिक-राष्ट्रीय अपमान के घाव व्यर्थ प्रपंचों के स्नेहलेप से नहीं भरे जाते.अब जरुरत उस इच्छाशक्ति का है जो इस प्रामाणिक भूल का शमन कर संविधान की पवित्रता को लौटाये.
(”पाञ्चजन्य सें साभार”)

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