शिक्षा स्वावलंबी हो

कौन से उद्योग शहरों में सरलतापूर्वक सिखाए जा सकते हैं? मेरे पास तो उत्तर तैयार ही है । मैं जो चाहता हूँ, वह तो गाँव की ताकत है । आज गाँव शहरों के लिए जीते हैं, उन पर अपना आधार रखते हैं । यह अनर्थ है । शहरे गाँवों पर निर्भर रहें, अपने बल का सिंचन गाँवों से करें अर्थात् अपने लिए गाँवों का बलिदान करने के बजाय स्वयं गाँवों के लिए बलिदान और त्याग करें तो अर्थ सिद्ध होगा और अर्थशास्त्र नैतिक बनेगा ।

ऐसे शुद्ध अर्थ की सिद्धि के लिए शहरों के बालकों के उद्योग का गाँवों के उद्योगों के साथ सीधा संबंध होना चाहिए। गाँव कपास देते हैं और मिलें उसमें से कपड़ा बुनती हैं। इसमें शुरू से आखिर तक अर्थ का नाश किया जाता है। कपास जैसे-तैसे बोई जाती है, जैसे-तैसे चुनी जाती है और जैसे-तैसे साफ की जाती है।

किसान इस कपास को कई बार नुकसान सहकर भी राक्षसी मिलों में बेचता है । वहाँ वह बिनौले से अलग होकर, दबकर, अधमरी बनकर कपड़ा मिलों में गाँठों के रूप में जाती है। वहाँ उसे पींजा जाता है, काता जाता है और बुना जाता है । ये सब क्रियाएँ इस तरह होती हैं कि कपास का तत्त्व-सार तो जल जाता है और उसे निर्जीव बना दिया जाता है । मेरी भाषा से कोई द्वेष न करे। कपास में जीव तो है ही ! इस जीव के प्रति मनुष्य या तो कोमलता से व्यवहार करे या राक्षस की तरह ! आजकल के व्यवहार को मैं राक्षसी व्यवहार मानता हूँ ।

कपास की कुछ क्रियाएँ गाँवों में और शहरों में हो सकती हैं। ऐसा होने से शहरों और गाँवों के बीच का संबंध नैतिक और शुद्ध होगा। दोनों की वृद्धि होगी और आज की अव्यवस्था, भय, शंका, द्वेष सब मिट जाएँगे या कम हो जाएँगे। गाँवों का पुनरुद्धार होगा। इस कल्पना का अमल करने में थोड़े से द्वव्य की ही जरूरत है | वह आसानी से मिल सकता है।

विदेशी बुद्धि या विदेशी यंत्रों की जरूरत ही नहीं रहती । देश की भी अलौकिक बुद्धि की जरूरत नहीं है । एक छोर पर भुखमरी और दूसरे छोर पर जो अमीरी चल रही है, वह मिटकर दोनों का मेल सधेगा और विग्रह तथा खून-खराबी का जो भय हमको डराता रहा है, वह दूर होगा। पर बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधे ? बंबई कॉर्पोरेशन का हृदय मेरी कल्पना की तरफ किस प्रकार मुड़े ? इसका जवाब मैं सेगाँव से दूँ, इसके बजाय तो शहर के विद्या रसिक नागरिक ही ज्यादा अच्छी तरह दे सकते हैं।

अगर इस प्रकार की शिक्षा बच्चों को दी जाए तो परिणाम यह होगा कि वह शिक्षा स्वावलंबी हो जाएगी। लेकिन सफलता की कसौटी उसका स्वाश्रयी रूप नहीं है, बल्कि यह देखकर सफलता का अंदाज लगाना होगा कि वैज्ञानिक रीति से उद्योग की शिक्षा के द्वारा बालक के भीतर के मनुष्य का संपूर्ण विकास हुआ है या नहीं !

सचमुच मैं ऐसे अध्यापक को कभी नहीं रखूँगा, जो चाहे जिन परिस्थितियों में शिक्षा को स्वाश्रयी बना देने का वचन देगा। शिक्षा का स्वावलंबी बनना इस बात का तर्कसिद्ध परिणाम होगा कि विद्यार्थी ने अपनी प्रत्येक कार्यशक्ति का ठीक-ठीक उपयोग करना सीख लिया है। अगर एक लड़का रोज तीन घंटे काम करके किसी दस्तकारी से निश्चयपूर्वक अपनी जीविका के लायक पैसा कमा लेता है तो जो अपनी विकसित बुद्धि और आत्मा को लगाकर उस काम को करेगा, वह कितना अधिक कमा लेगा !

 

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