कांग्रेस के लिए आत्मावलोकन का समय

ब्रिटेन में दिये गये राहुल गाँधी के बयान पर संसद हलकान है. सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों इसमें बराबर के भागीदार हैं. पर झगडे के अंत का विकल्प है रगड़े का नहीं. ‘मेरी बात का गलत मतलब निकाला गया,’ ‘मिडिया ने मेरे बयान को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया’, ‘ये मेरे विरुद्ध विपक्ष का षड़यंत्र है,’ भारतीय राजनीति में यह बड़े अमोघ से सुरक्षा तंत्र हैं. इनका प्रयोग राहुल गाँधी भी कर सकतें हैं. वैसे वे माफी मांगकर भी इसका पटाक्षेप कर सकते हैं.

 राजग के कार्यकाल में यूरोप, अमेरिका से लेकर पाकिस्तान जाकर भारत सरकार की आलोचना करना कांग्रेस नेताओं का असाध्य रोग बन चुका है. कांग्रेसियों को अपनी इस ओछी और निम्न कोटि की धृष्टता से बाहर आना चाहिए. इससे वह पूरे देश को शर्मसार तो करते ही हैं. साथ ही एक बड़े मतदाता वर्ग को, जो सत्ता विरोधी भावना के वशीभूत उनका समर्थन कर सकता है, उसे भी अपने विरोधी पाले में धकेल देते हैं. विदेशी धरती पर कांग्रेसियों के ऐसे अनर्गल बयानों से देश को भी शर्मिंदगी झेलनी पड़ती है. जिसका फायदा केंद्र की सत्ताधारी दल को मिलता है और उसकी नीतिगत खामियाँ इन अनुत्पादक बहसों में दब जाती हैं.
 इससे भी जरूरी यह राहुल गांधी से लेकर मणिशंकर अय्यर जैसे तमाम कांग्रेस नेतृत्व को यह समझना कि कि भारत एक सशक्त एवं जीवंत लोकतंत्र है. आपातकाल के दौर में देश ने जीवंतता से अपने जनतंत्र की रक्षा करके दिखा दिया कि वह अपनी लड़ाई स्वयं लड़ने में सक्षम है. और भारतीय लोकतंत्र के इस इतिहास का सबक तो सबसे अधिक कांग्रेस को याद होना चाहिए.
  ऊपर से राहुल गाँधी का भोलापन देखिये. वे उस यूरोप से लोकतंत्र की स्थापना की मदद मांग रहे हैं जहाँ 21वीं सदी में भी डेनमार्क, बेल्जियम, नीदरलैंड्स, स्पेन से लेकर ब्रिटेन तक राजशाही को स्थापित रखा गया है, जो यूरोप तथा अमेरिका तेल और डालर मूल्य के हित के नाम पर आज तक अरब से लेकर अफ्रीका तक के तानाशाहों को प्रश्रय देते हों उनसे भारत जैसे प्रबुद्ध राष्ट्र में लोकतांत्रिक मर्यादाओं की स्थापना हेतु सहायता की गुहार एक मूर्खतापूर्ण एवं छिछला विचार है.
  प्रतीत होता है कि राहुल गांधी ने भारतीय मतदाताओं को आश्चर्यचकित करने की कसम खा रखी है. जब भी यह लगने लगता है कि वे थोड़े परिपक्व होकर उभर रहे हैं, जैसे कि भारत छोड़ो यात्रा के विशेष संदर्भ में, वैसे ही वह कोई ना कोई ऐसी हरकत कर देते हैं जिससे वह अपने द्वारा अर्जित सम्मान को गवाँकर आलोचनाओं के केंद्र में आ जाते हैं. और फिर उनके विरोधियों द्वारा लगाए गए आरोप पुष्ट होने लगते हैं कि वह अभी भी राजनीतिक रूप से अपरिपक्व व्यक्ति ही हैं. हालांकि कुछ छद्म बुद्धिजीवी सामने आये हैं जो अनर्गल तर्कों से राहुल गाँधी के बयान की सार्थकता साबित करने में लगे हैं. किंतु यह बौद्धिक कुटिलता है. ज्ञान और तर्कों का इस्तेमाल निरपेक्ष भाव से हो तभी उनका सम्मान होता है.
पुनः राहुल गाँधी के लिए सबसे जरूरी ये बात समझना है कि भारतीय जनता उनसे क्या चाहती है?पता नहीं इतिहास उन्हें कैसे याद रखेगा? लेकिन यदि ऐसी ही हरकतें करनी है तो उन्हें कम से कम सपरिवार कांग्रेस को मुक्त कर देना चाहिए ताकि भारत के लोकतंत्र सार्थकता हेतु विपक्ष की आवाज़ बुलंद हो सके और उसके द्वारा सरकार की आलोचना में गांभीर्य पैदा हो. हालांकि राहुल गाँधी द्वारा भाजपा के आरोपों के विरुद्ध संसद में अपनी बात रखने का समय देने की मांग सर्वथा उचित है. यह सरकार की ही जिम्मेदारी है कि सदन का संचालन सुचारु रूप से हो और विपक्ष के प्रमुख नेता को उनकी बात कहने का अवसर दे.लेकिन राहुल जी को ध्यान होना चाहिए कि सदन बाधित करने में कांग्रेस के सांसद भी शामिल हैं.
 पर्यावरणविद अनुपम मिश्र कहते हैं, ‘अकाल अकेले नहीं आते. पहले अच्छे कामों का और अच्छे विचारों का अकाल आता है.’ इस कथन के गहरे निहितार्थ हैं. यह उक्ति कांग्रेस की वर्तमान पतनशीलता पर बिलकुल सटीक बैठती है. राजनीतिक दल और सांगठनिक रूप से कांग्रेस अकाल से पीड़ित है. यह अकाल वैचारिकी का है, प्रबल नेतृत्व का है, जन-समर्थन का है, सत्ता के विरुद्ध संघर्ष की क्षमता का है, नैतिक पतन का है. यह अकाल अनायास ही नहीं आया. एक क्रमिक परंपरा के रूप में इस पतनशीलता का आरोपण हुआ है.
  उदाहरणस्वरुप इस वर्ष छत्तीसगढ़ में संपन्न हुये अपने 85वें अधिवेशन में 138 वर्ष पुरानी कांग्रेस ने अपने संविधान में संशोधन करते हुए कुछ धाराएं निरस्त कर डाली. जिसके पश्चात् कांग्रेसजनों को शराब से परहेज और खादी पहनने वाले नियमों से मुक्ति मिल गई है. अब कांग्रेसी उन्मुक्त रूप से शराब पी सकते हैं. साथ ही अपने पसंदीदा परिधान, चाहे विदेशी ही सही धारण कर सकते हैं. अधिवेशन के दौरान एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि शराब पीना और खादी पहनना बन्द करने को बदलते युग की मांग तथा प्रगतिशील कदम बताया.
 अब सवाल है कि इस समय कांग्रेस का नीति-निर्णयन अपने सांगठनिक ढांचे को मजबूत करने, नेतृत्व की समीक्षा और राजनीतिक पुनरुत्थान जैसे बिंदुओं पर आधारित होना चाहिए लेकिन वो शराब पर पाबंदी और खादी की अनिवार्यता ख़त्मकर प्रगतिशील बनने में लगी है. वैसे तो सामान्य राजनीतिक समझ रखने वाला हर व्यक्ति ये समझता है कि ऐसे अधिवेशनों से शायद ही कुछ उल्लेखनीय निकल कर आये, परंतु बदलाव की उम्मीद तो बिलकुल नहीं होती. फिर भी स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत की दावेदार इस राजनीतिक दल के सम्मेलन के प्रति आकर्षण सहज़ ही होता है.
हालांकि कांग्रेस भी निराश नहीं करती और कुछ आकर्षक निर्णय लेती है. ये अलग बात है कि वे क्रियान्वित नहीं होते. जैसे इससे पूर्व मई 2022 के उदयपुर संकल्प शिविर में ‘एक व्यक्ति एक पद’ और ‘एक परिवार एक चुनावी टिकट’ का नियम निर्धारित हुआ था. मगर ये निर्णय क्रियान्वित नहीं हुए बल्कि कागजी लेखा-जोखा का हिस्सा बने रहे. ऐसे नियमों के व्यवहार्य में आना संभव भी नही है क्योंकि इससे नेहरू वंश के उत्तराधिकारियों के अपने राजनीतिक परिवारिक उद्यम के निर्बाध संचालन में समस्या आयेगी. और फिर राजपरिवार के चाटुकार मंत्रियों की दुकानदारी भी ठप होगी. जैसे मल्लिकार्जुन खड़गे जी को ही लें. वे कांग्रेस अध्यक्ष के साथ राज्य सभा में नेता प्रतिपक्ष भी हैं अर्थात् स्वयं एक साथ दो पदों पर विराजमान हैं.
  इसी उदयपुर शिविर में संगठन को मजबूत करने के लिए तय किया गया कि अगले 90 से 180 दिनों में देशभर में ब्लॉक, जिला स्तर, प्रदेश स्तर व राष्ट्रीय स्तर पर सभी रिक्त नियुक्तियां पूरी की जाएगी किंतु इसके लगभग तीन सौ दिन बीतने के बावजूद संगठनात्मक नियुक्तियों के नाम पर हवाई संकल्प के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हुआ. असल समस्या यही है. खुद को गाँधी का अनुयायी बताकर और उनका द्वारा व्यक्त विचारों को दुहराकर गाँधी नहीं बना जा सकता. गाँधी बनना तो वैसे भी असंभव है पर कोशिश की जा सकती है कि गाँधी के अनवरत संघर्षो से सीखकर कैसे राष्ट्र को दिशा दी जाये.
 हालांकि इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि पिछले डेढ़ दशक के अपने सक्रिय राजनीतिक यात्रा में राहुल गाँधी शुरुआत से अब तक काफी बदले हैं लेकिन राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए जो परिपक्वता चाहिए वो अब भी उनमें नहीं दिखती. किसी साधारण व्यक्ति से शब्दों को तौल कर प्रयोग करने की उम्मीद की जाती है फिर राहुल गाँधी तो देश की सबसे पुराने राजनीतिक दल के प्रतिनिधि है, विपक्ष का प्रमुख चेहरा हैं, प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं, उन्हें तो कहीं अधिक सचेत होना चाहिए था.
पुत्रमोह के धृतराष्ट्रवाद से ग्रसित सोनिया गाँधी अभी भी इस उम्मीद में है कि संभवतः भाजपा सरकार की एंटी-इंकामबेंसी से ग्रसित जनता राहुल गाँधी को 2024 के आम चुनावों में प्रधानमंत्री पद पर बैठाएगी.यह पतनशील कांग्रेस नेतृत्व अब भी समझने को तैयार नहीं है कि देश और इसका लोकतंत्र किसी परिवार के आभामंडल से कहीं अधिक श्रेष्ठ है. नेहरू परिवार के वर्तमान वंशजों ने कांग्रेस को जिस राह पर धकेल दिया है, उस पर कांग्रेस तो डूबेगी ही, साथ ही भारतीय लोकतंत्र का एक गौरवशाली भाग भी अतीत का हिस्सा बन जाएगा.
 राजपरिवार का भ्रम तो फिर भी समझा जा सकता है किंतु कांग्रेस कॉडर और विशेषकर उसके नेतृत्व वर्ग को यह क्यों नहीं समझ आ रहा कि देश को नेहरू परिवार की नहीं बल्कि कांग्रेस की जरुरत है. नेहरू परिवार को कांग्रेस का पर्याय मानना उसी विकृत सोच का पर्याय है जहाँ व्यक्ति या परिवार को राष्ट्र पर तरजीह दी जाये. देश की राजनीति में वंशवाद के विष-बीज का रोपण करने वाली कांग्रेस यदि नेहरू परिवार की छत्रछाया से मुक्त हो जाये तो यह मात्र उसके भूलों का ही परिमार्जन नहीं होगा बल्कि राष्ट्रीय राजनीति की गंगा को परिवारवाद के नाले में तब्दील करने को आतुर सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के समक्ष एक मिसाल पेश होगी.
 हालांकि सबसे जरूरी है कि नेहरू परिवार को यह समझना होगा कि इस देश के लोकतंत्र को मजबूत विपक्ष के रूप में कांग्रेस की जरुरत है. उन्हें समझना होगा कि कांग्रेस एक विचार है. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की विरासत है. जिसे किसी परिवार विशेष की महत्त्वकांक्षा तथा स्वार्थ हेतु बलि नहीं चढ़ाया जा सकता. हो सकता है कि कांग्रेस के पास अपने तर्क हों किंतु इतिहास कांग्रेस की इस दुर्दशा के लिए नेहरूवंश के उत्तराधिकारियों को कभी क्षमा नहीं करेगा.

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