वेद-शास्त्र दीप को निर्जीव नहीं, ‘देवता’ कहते हैं

दीपावली अमर उत्सव है। यह सनातन है। दीपावली की रात्रि सुंदर है। कहीं धूल-धक्कड़ नहीं, कीच- कचरा नहीं, बाहर-भीतर, जमीन-आसमान सर्वत्र अनुपम निर्मलता है। त्रिलोकव्यापी निर्मलता के साथ दीपावली ऐसे आती है जैसे शिशु राम माता कौशल्या की गोद में उतर रहे हों। करुणामय व आह्लाददायक भाव में सारी सृष्टि तुलसी- वन सी महक उठती है। यह अमरता है दीपावली की, जो हर साल जीवंत होती है। वैदिक ऋषि का अलौकिक बोध ‘तमसो मां ज्योतिर्गमय’ अंधेरे से लड़ने की अनादि प्रेरणा है। इस लड़ाई में नन्हें-नन्हें दीप मानव के हथियार हैं। जब सूर्य, चंद्रमा और तारे अस्त हो जाते हैं,तो मनुष्य इन्हीं दीपों के सहारे बचा रहता है। रोशनी के शिशुओं का समाहार है दीपावली। ये दीप कोई साधारण नहीं हैं, जिन्हें तेल और बाती का संयोग भर मान लिया जाए। घर की देहरी पर जलते दीप सूर्य और चंद्रमा के प्रतिनिधि बनकर देवोपम भूमिका निभाते हैं। अनोखा है यह दीप, जिससे संस्कृत में ‘दीप-देहली’ न्याय बना। इस न्याय का तात्पर्य उस दीप से है, जो घर की देहरी से अंदर और बाहर, दोनों ओर उजियारा करता है। गोस्वामी तुलसीदास अपने इष्ट श्रीराम के नाम को ‘मणि दीप’कहते हैं, जिसे जपने से भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला होता है-राम नाम मनि दीप धरु जीह देहरीं द्वार।

तुलसी भीतर बाहेरहुं जौं चाहसि उजियार॥ वेद-शास्त्र दीप को निर्जीव नहीं, ‘देवता’ कहते हैं। मानव संस्कृति के सर्वाधिक पुरातन ग्रंथ ‘ऋग्वेद’ का प्रथम शब्द ‘अग्नि’ है। इस अग्नि का वैदिक स्वरूप पुरोहित, देवता, ऋत्वि, तथा होता का तो है ही, यह मानव की सबसे बड़ी जरूरत भी है। अग्नि का छोटा रूप दीप है,जो साध्य है और साधन भी। वह यज्ञ का प्रतिबिंब है। किसी भी धार्मिक विधि-विधान में दीप का साक्ष्य होना जरूरी है। उसके बिना न आरती पूरी होती है और न ही कोई अनुष्ठान। अंधेरे के आसुरी साम्राज्य में अपराजित दैवीय शक्ति का प्रतीक है- दीप। पर भला, हम क्यों व किसके लिए दीप जलाएं? सच्ची बात है कि वैदिक संस्कृति ने जिस लक्ष्मी को अमावस्या की तामसी रात में पूजा था,वह बैंकों में कैद धनरूपी लक्ष्मी नहीं थीं। ऋषियों का तात्पर्य उस लक्ष्मी से था, जो अमृत और चंद्रमा की बहन, समुद्र की पुत्री और भगवान नारायण की प्रिया हैं। पद्मानना लक्ष्मी कमल पर बैठकर समुद्र से प्रकट हुईं। कमल प्रकृति का प्रथम चिह्न है। प्रकृति के सारे तत्त्व उससे जुड़े हैं। वेद कहते हैं कि सुखी दाम्पत्य, स्वादिष्ट अन्न, लहलहाती फसल तथा गौ माता से जो जुड़ी हैं, वह हैं माता लक्ष्मी। इस नाते यह मानकर लक्ष्मी की आराधना करनी चाहिए कि वह विश्वमंगल करने वाली शाश्वत शक्ति हैं। उसका संबंध धन से नहीं वरन चरित्र और धन की पवित्रता से है।

आचार्य कुबेरनाथ राय दीपावली को मनुष्य के हाथों अंधकार पर विजय की रात्रि मानते हैं। मनुष्य के बनाए दीप और उसके द्वारा उपजाए तिलों का तेल इसके साधन-द्रव्य हैं। अंधकार से जूझते इन दीपों के साथ सारी मानव जाति का भावनात्मक संबंध है, क्योंकि ये दीपक हमारी धरती से ही बने हैं। धरती की बेटी माता सीता के सगे भाई हैं ये दीप। इन दीपों से हमारा गहरा पारिवारिक रिश्ता है। हमारे अपने हाथों से बनाये दीप जब जलने लगते हैं, तो देवताओं का तारामंडल फीका पड़ जाता है। सारे अपशकुन तथा सारी अशुभ शक्तियां मनुष्यकृत प्रकाश के सामने नतमस्तक हो अपनी हार मान लेती हैं। इसलिए दीपावली मनुष्य के लिए गौरव बोध का पर्व है। यह जरूर दुखद है कि कुछ कुटिल दुराचारियों ने दीपावली की पवित्र निशा में ताश खेलने और मद्य पीने की रस्म बना रखी है, जिसमें लक्ष्मी का पूजन नहीं, बल्कि उसका अपहरण होता है। दीपावली श्री, सुख, शोभा, सौभाग्य, शांति, पवित्रता तथा नववधू के गृहप्रवेश की भांति लज्जा, चेतना व आनंद बांटती कमला को पूजने का दिन है न कि दुर्गुणों को अपनाने का। लक्ष्मी का उपयोग होता है उपभोग नहीं। जो उसके उपभोग का दुस्साहस करता हैए उसकी गति अंतत: दशानन रावण जैसी होती है।

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