दल-बदल निरोधक क़ानून पर विमर्श की आवश्यकता

  ब्रूनो कहते हैं, “बहुमत से सत्य नहीं बदलता है.” सत्ता के लिए सत्य एवं बहुमत के मध्य का संघर्ष कोई नई बात नहीं है. महाराष्ट्र में सियासी संकट के बीच उद्धव सरकार के त्यागपत्र के बाद नई सरकार के गठन की आजमाइश शुरू हो गई है. सत्ता की खींचतान का विचित्र निर्लज्ज रूप उपस्थित हुआ जिसका मूलाधार दल-बदल की प्रथा है. इस मामला में सर्वोच्च न्यायालय याचिका दाखिल कर दल-बदल में शामिल खडसे समूह के विधायकों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की मांग की गई है. विचारणीय प्रश्न यह है कि संविधान में दल-बदल निरोधक प्रावधानों के होते हुए भी यह राजनीतिक दुष्कृत रुक क्यों नहीं रहा?
 स्वतंत्रता प्राप्ति के मात्र दो दशकों के भीतर ही भारतीय राजनीति में सत्ता लोलुपता एवं अवसरवादी राजनीति का विद्रुप दौर प्रारम्भ हो गया एवं सैद्धांतिक-राजनैतिक मूल्यों की तिलांजलि दी जाने लगी. राजनीतिक दलों द्वारा जनादेश की अनदेखी करते हुए जोड़-तोड़कर सरकारें बनाई एवं गिराई जाने लगीं एवं दल-परिवर्तन को प्रश्रय मिला. इस घातक परंपरा के अवसान तथा लोकतांत्रिक मूल्यों के क्षरण की संवैधानिक रोकथाम के अनुरूप सन् 1985 में दल-बदल निरर्हता के संबंध में 52 वें संविधान संशोधन अधिनियम पारित हुआ. जिसके तहत संविधान के चार अनुच्छेदों क्रमशः 101,102,190,191 को संशोधित किया गया तथा एक नई 10वीं अनुसूची भी जोड़ी गई. 
 इस अधिनियम के तहत किसी भी राजनीतिक दल के उस सदस्य को उक्त सदन की सदस्यता हेतु निरर्हक माना गया है, यदि वह अपने दल की सदस्यता का त्याग कर दें अथवा सदन में अपने दल के निर्देशों के विपरीत मत दे या मतदान के समय अनुपस्थित रहे. निर्दलीय सदस्य के संबंध में, यदि वह निर्वाचित होने के बाद पश्चात किसी राजनीतिक दल की सदस्यता ग्रहण कर लेता है तो निरर्हक हो जाता है. साथ ही मनोनीत सदस्य यदि सदस्यता पाने के 6 माह पश्चात् किसी दल की सदस्यता ग्रहण कर ले तो उसे भी निरर्हक माना जाएगा. दल-बदल के कारण उत्पन्न अयोग्यता संबंधित विवादों पर निर्णय की अधिकारिता सदन के अध्यक्ष को प्राप्त है. इसके अतिरिक्त दसवीं अनुसूची के उपबंधों को प्रभावी बनाने के लिए विनियम निर्माण की शक्ति भी सदन के अध्यक्ष को दी गई है. हालांकि ऐसे नियमों को सदन के समक्ष 30 दिन के लिए रखना आवश्यक है तथा सदन इन नियमों को स्वीकृत-अस्वीकृत अथवा उनमें सुधार कर सकता है.
 प्रथम दृष्टतया आकर्षक लगने वाले दसवीं अनुसूची के उपबंध आलोचना से परे नहीं हैं. इसके मुख्यतः दो आधार हैं.प्रथमत:, व्यक्तिगत दल-बदल का निषेध करते हुए यह व्यापक आधार पर दलबदल को प्रोत्साहन देता है. द्वितीय, निरर्हता से दी गई छूट के उपबंधों के कारण इसने सरकारों को अस्थिर करने में सहयोग ही किया है. इसके अतिरिक्त भी इसमें कुछ कमियां हैं. उक्त अधिनियम के अंतर्गत नामित एवं निर्दलीय सदस्यों के मध्य किया गया भेद पूर्णतः अतार्किक है. नामित सदस्य किसी दल की सदस्यता ग्रहण कर सकता है किंतु यदि निर्दलीय सदस्य ऐसा करें तो वह निरर्हक हो जाता है. साथ ही दसवीं अनुसूची के उपबंध किसी सदस्य के दल-बदल एवं उसकी असहमति के मध्य के विभेद को व्यक्त नहीं कर पाते हैं. ये विधायिका के स्वविवेक एवं विचारों की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करते हैं. जिससे दलीय अनुशासन के नाम पर दल की अधिकारिता को और विस्तार मिलता है.
  सदन के अध्यक्ष के निर्णयन की अधिकार की शक्ति भी आलोचना से परे नहीं है. पहला तो राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के कारण उसका निर्णय दूषित होने की संभावना बलवती होती है. पिछले कई वर्षों से कई राज्यों की विधानसभाओं में अध्यक्ष द्वारा अपने संबंधित राजनीतिक दल के अनुकूल किये गये निर्णय विवादों के घेरे में रहे. दूसरे, ऐसे मसलों पर निर्णयन हेतु अध्यक्ष के पास आवश्यक विधिक ज्ञान एवं अनुभव की न्यूनता भी हो सकती है. इस मसले पर 10वीं लोकसभा के अध्यक्ष रहे शिवराज पाटिल (1993) कहना था, “अध्यक्ष या सभापति को इस प्रकार के मामलों में विशेषाधिकार दिये जाने उचित हैं. फिर इन मामलों को यदि उच्चतम न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में निपटाया जाता है तो वह ज्यादा उचित होगा.”
  दल-बदल से उत्पन्न निरर्हता संबंधी प्रश्नों पर निर्णयन का अंतिम अधिकार सदन के अध्यक्ष का है. प्रारम्भ में इसे न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से बाहर समझा जाता था. किंतु ‘किहोतो-होलोहन बनाम जाचिल्हू’ मामले (1993) में सर्वोच्च न्यायालय इस उपबंध को इस आधार पर असंवैधानिक घोषित कर दिया कि अध्यक्ष दसवीं अनुसूची के आधार पर निरर्हता संबंधी किसी प्रश्न पर निर्णय देने के समय एक निरर्हता की तरह कार्य करता है. इसलिए किसी अन्य न्यायिक अधिकरण की तरह उसका भी निर्णय निष्पक्षता, प्रतिकूलता, दुर्भावना आदि के आधार पर न्यायिक समीक्षा की परिधि में आता है. अतः यह उच्चतम तथा उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत आता है.
  हालांकि न्यायालय ने सदन के अध्यक्ष के न्याय निर्णायन के अधिकारिता विवाद को इस आधार पर ख़ारिज कर दिया कि वह स्वयं में राजनीतिक रूप से प्रतिबद्ध है. न्यायालय का यह भी कहना था कि संसदीय लोकतंत्र में सभापति की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है. यह सदन के अधिकारों एवं विशेषाधिकारों का संरक्षक होता है. दसवीं अनुसूची के अंतर्गत मामलों में इनके न्याय-निर्णयन अधिकार को अपवादस्वरुप नहीं माना जाना चाहिए. बाद के अनुभव बताते हैं कि उपरोक्त संविधान संशोधन लक्षित संभावनाओं की पूर्ति में असफल रहा. वज़ह, इसमें कई प्रावधानों के अंतर्गत पृष्ठ-भाग से प्राप्त छूट थी, जिसकी आलोचना राजनीतिक दलों, नेताओं ने ही नहीं बल्कि संवैधानिक समितियों एवं आयोगों तक ने की. उन्होंने इसमें परिवर्तन की अनुशंसा की.
  दिनेश गोस्वामी समिति (1990), विधि आयोग के “चुनाव कानूनों में सुधार” की 170वीं रिपोर्ट (1999) के साथ ही संविधान समीक्षा के लिए गठित राष्ट्रीय आयोग (NCRWC,2002) ने भी अपनी रिपोर्ट में 10वीं अनुसूची से उक्त प्रावधान के निरसन की सलाह दी. जिसके तहत दल-परिवर्तन के मामलों में घोषित अयोग्यता से छूट प्राप्त थी. इस संबंध में संविधान समीक्षा आयोग ने कुछ और सुझाव दिये. आयोग का मानना था कि दल-बदल करने वाले जनप्रतिनिधियों को मंत्री जैसे संवैधानिक पद समेत किसी अन्य सार्वजनिक या राजनैतिक लाभ के पद से बर्खास्त किया जाना चाहिए. साथ ही यह बर्खास्तगी तब तक जारी रहनी चाहिए जब तक कि वर्तमान विधायिका का कार्यकाल पूरा ना हो अथवा चुनाव के पश्चात् नई विधायिका का गठन ना हो जाए. इसके अतिरिक्त केंद्र एवं राज्य सरकारों में गठित किये जाने वाले विस्तृत मंत्रिमंडलों को वैधानिक रूप से प्रतिबंधित किये जाने की सलाह दी. 
  उपरोक्त विमर्श और सुझावों के आलोक में 91वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (2003) पारित हुआ. जिसके अंतर्गत कुछ मुद्दों पर सुधार का प्रयास किया गया. सामान्यतः दल-बदल करने वाले नेताओं की अभिलाषा केंद्र अथवा राज्य सरकारों के अधीन संवैधानिक-सांविधिक पदों के अतिरिक्त राजनीतिक लाभ के पदों को प्राप्त करने की होती है. किंतु उक्त संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 75 एवं अनुच्छेद 164 के अंतर्गत केंद्र अथवा राज्य सरकार के अधीन मंत्रिपरिषद का आकार, सदन के कुल सदस्यों की संख्या का 15 फीसदी नियत कर दिया गया. साथ ही संसद या राज्य विधानमंडल के किसी भी सदन का कोई सदस्य जो दल-बदल के आधार पर निरर्हक घोषित किया गया हो, वह कोई मंत्री पद अथवा राजनैतिक लाभ के पद क़ो धारण करने के लिए भी निरर्हक माना गया (अनुच्छेद-75, अनुच्छेद-164 एवं अनुच्छेद-361ख). पुनः दल-परिवर्तन कानून उस परिस्थिति में प्रभावी नहीं माने जाएंगे, जब किसी पार्टी के एक तिहाई सदस्य दल से अपने को अलग घोषित करते हैं. दूसरे शब्दों में कहें तो दल विभाजन के आधार पर निरर्हको के लिए कोई अन्य संरक्षण प्राप्त नहीं है. इस प्रकार संसदीय परंपरा में पैठी राजनीतिक चरित्रहीनता एवं अवसरवाद को नियंत्रित करने का प्रयत्न किया गया. हालांकि इसके बावजूद परिणाम उत्साहजनक नहीं रहे. इन संवैधानिक प्रावधानों से जिस शुचिता की उम्मीद की गई थी उस पर तुषारापात होता रहा. राज्य ही नहीं बल्कि केंद्र सरकारें भी अवसारवादी गठबंधनों द्वारा गठित एवं पतित होती रहीं. वर्तमान में महाराष्ट्र सरकार का पतन इसका ज्वलंत उदाहरण है.
  कुछ दिनों पूर्व बेंगलुरु के प्रेस क्लब में व्याख्यान देते हुए उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू ने दल-बदल विरोधी कानून की विसंगतियों को लेकर चिंता जाहिर करते हुए इसे और प्रभावी बनाने हेतु इसमें संशोधन की सलाह दी. वर्तमान अवसरवादी राजनीति ने जिस तरह संवैधानिक मूल्यों का क्षरण किया है, उसे देखते हुए दल-परिवर्तन के मुद्दे पर गंभीर विमर्श के साथ ही अविलंब संवैधानिक सुधार जरुरी हैं. इसे कठोर रूप देना जम्हूरियत के निष्कंटक प्रारब्ध हेतु आवश्यक है. संभव है तब भारतीय राजनीति की अधोगति पर थोड़ा रोकथाम लगाई जा सके.
  वर्तमान राजनीति में दल-बदल कानून में कुछ नये प्रावधानों को शामिल करने की जरूरत है. जैसे, दल-बदल के आधार पर सदस्यों को अयोग्य ठहराने जाने के मसले में राष्ट्रपति या राज्यपाल का निर्णय निर्वाचन आयोग की सलाह पर निर्भर होना चाहिए. दिनेश गोस्वामी समिति ने भी यही सुझाव दिया था. साथ ही इस सम्बन्ध में चुनाव आयोग की भूमिका का विस्तार किया जाना चाहिए. दूसरा, राजनीतिक दलों के व्हिप जारी करने के अधिकार को सीमित किया जाना चाहिए. इसे तभी जारी करना चाहिये, जब सरकार सदन में विश्वास मत के खतरे से जूझ रही हो. अन्यत्र चुनाव पूर्व गठबंधन में शामिल सभी दलों को दल-बदल निरोधक कानून के तहत एक दल माना जाना चाहिए.
 क़ानून विशेषज्ञ एवं भाषाविद फर्डिनांड लासाल लिखते हैं, “संवैधानिक प्रश्न, सबसे पहले, औचित्य के प्रश्न नहीं, बल्कि सत्ता के प्रश्न हैं. किसी भी देश के वास्तविक संविधान का अस्तित्व देश में मौजूद सत्ता की वास्तविक अवस्थिति में होता है: इसलिए राजनीतिक संविधानों में मूल्य और स्थैर्य तभी आता है, ज़ब वे समाज के भीतर अस्तित्वमान शक्तियों की अवस्थिति को यथार्थ रूप से व्यक्त करते हैं.” वर्तमान संकट सत्ता का नहीं बल्कि मूल्यों का है. मूलभूत प्रश्न यह नहीं कि कौन सही है? प्रश्न है कि क्या सही है? सत्ता के लिए मूल्यों की तिलांजलि देने वाले जनप्रतिनिधियों से किसी शुभ की कल्पना बेमानी होगी. ऐसी विघटनकारी प्रवृत्तियों का निषेध ही लोकतंत्र का भविष्य उज्जवल बनाएगा.

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