प्रज्ञा पुरूष थे धीरूभाई शेठ – रामबहादुर राय

धीरूभाई शेठ समाजशास्त्रियों में गौरीशंकर की ऊंचाई वाले थे। उतने ही पवित्र थे जितना कि हिमालय की यह चोटी है। उतने ही निर्मल मन के थे जितना कि एक व्याख्याकार समाजशास्त्री को होना चाहिए। उनमें हमेशा जानने, सत्य को खोजने और उसे बांटने-समझाने की अभिलाषा अंत तक बनी रही है। उन्होंने पिछली सदी के आठवें दशक में सीएसडीएस में लोकायन की स्थापना की। उन्हें किसी वैचारिक खेमे में बंधा हुआ कभी नहीं पाया गया।

वे स्वतंत्र चिंतक थे। उनके सहयोगी रजनी कोठारी थे, जिन्हें भारत की राजनीति की नई व्याख्या के लिए जाना जाता है। उस रजनी कोठारी ने धीरूभाई के बारे में एक बार टिप्पणी की ‘धीरूभाई की दृष्टि मध्यमार्गीय हैं, क्योंकि उनके मन में कमजोर वर्गो के प्रति गहरी हमदर्दी हैं। लेकिन वे वामपंथ की तरफ नहीं जाना चाहते।’

धीरूभाई पर एक पुस्तक प्रकाशित हुई, ‘सत्ता और समाज’। इसकी प्रस्तुति और संपादन अभय कुमार दुबे ने किया। उनका मानना है कि ‘धीरूभाई की चिंतन जगत की रचना में रजनी कोठारी जैसे अनूठे मित्र का उल्लेखनीय, बौद्धिक और संस्थागत योगदान रहा है। उनका यह कथन किसी खांचे में फिट न होने के लिए संकल्पबद्ध इस समाज वैज्ञानिक रवैये की प्रतिनिधि व्याख्या नहीं करता।’ उन्होंने यह भी लिखा है कि ‘दरअसल, धीरूभाई शेठ एक ऐसे दुर्लभ बौद्धिक मानस का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसके केंद्रीय स्वर में एक अस्वीकार की ध्वनि है। समाज विज्ञान और सामाजिक यथार्थ के प्रचलित रिश्तों को गहराई से प्रश्नांकित करने वाला यह विपुल अस्वीकार अपने मूल में सकारात्मक है। अपनी इसी खूबी के कारण ही इसके गर्भ से समाजविज्ञान और उसकी पद्धति की रचनात्मक आलोचना निकलती है। इसकी आलोचना का दायरा बहुत बड़ा है। जिसके एक सिरे पर अगर हमारी राजनीतिक आधुनिकता और जाति-प्रथा के बीच के लेन-देन का अध्ययन है, तो उसके दूसरे सिरे पर उदारतावादी लोकतंत्र और भूमंडलीकरण के अंतःसंबंधों की निष्पत्तियों का खुलासा है।’

अपना अनुभव हमेशा यही रहा कि जब भी धीरूभाई से मिलना हुआ, उनसे बातचीत हुई, तो पाया कि पुस्तकों के ढ़ेर से घिरे धीरूभाई उसके बोझ से निर्भर रहते थे। पुस्तकें उन्हें सहारा देती थी लेकिन वे प्रज्ञा पुरूष थे। हर बार बातचीत के बाद उनसे मिलकर लौटते हुए यह अनुभव होता था कि सचमुच एक ऐसे विद्वान व्यक्ति से मिलकर मुझे अपनी समझ को समृद्ध करने का अवसर मिल सका।

बीते 7 मई को वे नहीं रहे लेकिन उनकी बौद्धिक संपदा भावी पीढ़ी के लिए हमेशा धरोहर बनी रहेगी। लोकतंत्र और राष्ट्रीयता को समझने की जिसे भी जिज्ञासा हो उसे धीरूभाई को पढ़ना चाहिए। उनके बोले, उनके लिखे पर मनन करना चाहिए। ऐसा कर कोई भी इस विषय में अपनी समझ बढ़ा सकता है।

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