रक्षा उद्योग के विकास में बाधाएं

 

बनवारी

रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन के दो दिवसीय 41वें सम्मेलन में हमारा पूरा रक्षा प्रतिष्ठान उपस्थित था। इस सम्मेलन से यह बात निकलकर आई कि आज हमारे सामने रक्षा चुनौतियां जितनी बड़ी हैं, हमारी रक्षा तैयारियां उतनी ही अपर्याप्त हैं।

इस बार रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन के दो दिवसीय 41वें सम्मेलन में हमारा पूरा रक्षा प्रतिष्ठान उपस्थित हुआ था। उसमें रक्षा मंत्री का भी भाषण हुआ, राष्ट्रीय रक्षा सलाहकार का भी और हमारे सेनाध्यक्षों का भी। अपने भाषणों में उन्होंने युद्ध के बदलते हुए स्वरूप पर बात की। पिछली शताब्दी में युद्ध सेनाओं के शौर्य की बजाय अधिक उन्नत हथियारों पर निर्भर हो गया था। अब यह आशंका जताई जाने लगी है कि हो सकता है आगे होने वाले युद्धों में आमने-सामने की लड़ाई की नौबत ही न आए। रक्षा प्रणालियां इस तेजी से तकनीक पर निर्भर होती चली जा रही हैं कि उन्होंने रक्षा संबंधी चुनौतियों को ही बदल दिया है।

सभी वक्ताओं ने इस बात पर जोर दिया कि तेजी से बदल रही रक्षा चुनौतियों को देखते हुए हमें साइबर, लेजर, अंतरिक्ष और इलेक्ट्रॉनिक युद्ध कौशल के लिए अपने आपको तैयार करना पड़ेगा। उन्नत रक्षा प्रणालियों के निर्माण में रोबोटिक्स और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के बढ़ते हुए उपयोग को देखते हुए हमें इन क्षेत्रों में भी अपना कौशल बढ़ाना पड़ेगा। इन सभी क्षेत्रों में विश्व की सभी प्रमुख शक्तियां काफी आगे बढ़ गई हैं। हम अब तक इन नई कुशलताओं की चर्चा ही कर रहे हैं।

अगर हमने तेजी से इन सभी क्षेत्रों में प्रगति नहीं की तो हम अपनी सुरक्षा को सुनिश्चित नहीं कर पाएंगे। रक्षा मंत्री से लगाकर सेनाध्यक्ष तक सबने यह चिंताएं प्रकट कीं पर यह स्पष्ट नहीं हुआ कि यह बातें किससे कही जा रही हैं। निश्चय ही हमारा रक्षा प्रतिष्ठान इस सब तैयारी की जिम्मेदारी केवल रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन पर नहीं डाल सकता। उसे चिंता भर जताने की बजाय यह बताना चाहिए था कि इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए अब तक हमने क्या सोचा और क्या किया है।

हमारी रक्षा चुनौतियां जितनी बड़ी हैं, हमारी रक्षा तैयारियां उतनी ही अपर्याप्त हैं। 2014 में नरेंद्र मोदी के केंद्र की सत्ता में पहुंचने के बाद यह संकल्प लिया गया था कि हमें बहुत तेजी से अपना रक्षा उद्योग विकसित करना है। उस समय यह कहा गया था कि हम विश्व शक्ति होने का सपना देखते हैं और अपनी रक्षा चुनौतियों के लिए पूरी तरह हथियारों के आयात पर निर्भर हैं। कोई बड़ा देश खरीदे हुए हथियारों के बल पर अपनी सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकता। अपनी इस लज्जास्पद स्थिति से उबरने के लिए हमने अब तक काफी कोशिश की है। हमने अपने यहां के निजी क्षेत्रों को आगे आकर सरकारी उद्यमों के साथ एक विशाल रक्षा उद्योग विकसित करने में सहयोग करने के लिए आमंत्रित किया। अब तक उसमें कोई विशेष सफलता नहीं मिली।

हमने इस बीच जो रक्षा सौदे किए, उनके साथ यह शर्त जोड़ने की कोशिश की कि हथियार बेचने वाली कंपनियां हमारे यहां आकर वे हथियार बनाएंगी और प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण करते हुए हमारे यहां एक रक्षा उद्योग खड़ा करने में मदद करेंगी। कुछ कंपनियों ने उत्सुकता दिखाई, अपने हथियार बेचने के लिए उन्हें आगे भारत में बनाने की सहमति भी प्रकट की। लेकिन इस दिशा में अब तक कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हो पाई। हम अपने रक्षा प्रतिष्ठान को अपनी आंतरिक कमजोरियां दूर करके संकल्पपूर्वक इस दिशा में जुट जाने के लिए कहते रहे, लेकिन उसका भी कोई विशेष परिणाम सामने नहीं आया।

पिछले दिनों रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने घोषित किया था कि सरकार ने अब तक जो कदम उठाए हैं, उनके आधार पर 2025 तक हमारा रक्षा उद्योग 26 अरब डॉलर की रक्षा सामग्री तैयार कर रहा होगा। उसके लिए इस अवधि में 10 अरब डॉलर के निवेश की बात कही गई थी और आशा व्यक्त की गई थी कि इससे 20-30 लाख लोगों को रोजगार मिलेगा। लेकिन अब तक की उपलब्धि इन सब लक्ष्यों के पूरा होने की आशा नहीं बंधाती। क्या हम अपने यहां बिना रक्षा उद्योग खड़ा किए युद्ध के इस बदलते हुए स्वरूप के अनुरूप दक्षता प्राप्त कर सकते हैं? यह सही है कि रक्षा उद्योग रातोंरात खड़ा नहीं किया जा सकता।

पिछले पांच वर्ष में जो नीतिगत पहल हुई है, उसके परिणाम आने में समय लगेगा। हमारी सबसे बड़ी समस्या यह है कि पिछले 70 वर्ष अपनी रक्षा चुनौतियों को अनदेखा करते हुए हमने ऐसा माहौल बनने दिया है, जिसमें रक्षा उद्योग खड़ा करने की बात केवल हवा में गूंज कर रह जाती है। रक्षा उद्योग खड़ा करने के लिए सबसे पहले राष्ट्रीय स्तर पर एक राजनीतिक संकल्प की आवश्यकता होती है। पिछले 70 वर्षों में ऐसा कोई संकल्प पैदा नहीं होने दिया गया था। नेहरूकाल के शांतिवादी दुराग्रहों के कारण इस ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा सका था। 1962 में चीनी आक्रमण के बाद देश में रक्षा चुनौतियों की ओर ध्यान दिया जाना आरंभ हुआ।

लेकिन 1965 और 1971 के युद्ध के बावजूद रक्षा उद्योग खड़ा करने की बजाय हम आसान रास्ते की ओर बढ़ते हुए रक्षा सामग्री के बड़े आयातक बन गए। सोवियत रूस से सरलतापूर्वक हथियार प्राप्त होते रहने के कारण अपने यहां रक्षा उद्योग खड़ा करने के बारे में पर्याप्त गंभीरता नहीं दिखाई गई। रक्षा उद्योग खड़ा करने के लिए राजनैतिक संकल्प के बाद सबसे आवश्यक होता है देश के वैज्ञानिक प्रतिष्ठान का एक लक्ष्य होकर इस दिशा में लग जाना। लेकिन हमने अपने यहां शिक्षा का जो तंत्र खड़ा किया है, उससे ऐसा वैज्ञानिक प्रतिष्ठान पैदा नहीं हो पाया, जो देश को रक्षा सामग्री के मामले में आत्मनिर्भर बनाने में लग जाए।

अपने वैज्ञानिकों और संस्थाओं को हमने जो सीमित लक्ष्य दिए, उसमें उन्होंने कुछ सफलता दिखाई भी। हमारा अंतरिक्ष कार्यक्रम और मिसाइल कार्यक्रम इसका प्रमाण है। इस दिशा में तीसरा कारक वित्तीय साधन होते हैं। हम हमेशा वित्तीय साधनों का रोना रोते रहे हैं। लेकिन अगर हमने अपनी रक्षा तैयारियों को अपनी प्राथमिकता बनाया होता तो वित्तीय साधन भी जुट जाते। हमने यह सामान्य बात याद नहीं रखी कि भारत जैसे विशाल देश का औद्योगीकरण रक्षा उद्योग को धुरी बनाकर ही किया जा सकता था। हम आज हथियार खरीदने पर जो साधन खर्च कर रहे हैं वे देश के भीतर रक्षा उद्योग के तंत्र का विकास करने में लगे होते तो हम आज एक बड़ी औद्योगिक शक्ति होते। अब तक सभी औद्योगिक देश अपने यहां रक्षा उद्योग खड़ा करते हुए ही औद्योगिक शक्ति बने हैं।

इसके कुछ अपवाद जापान आदि इसलिए हैं कि वे अमेरिका जैसे उन्नत बाजार से जुड़ गए और उसके प्रौद्योगिकीय सहयोग से अपने यहां एक उद्योग तंत्र खड़ा कर पाए। अमेरिका तो रक्षा उद्योग के बल पर ही दुनिया की अग्रणी औद्योगिक शक्ति बना। पहले और दूसरे महायुद्ध की अधिकांश युद्ध सामग्री पैदा करते हुए ही अमेरिका में उद्योगों की नींव पड़ी थी। इस तरह रक्षा उद्योग से अमेरिका को पूंजी और प्रौद्योगिकी दोनों उपलब्ध हुए, जो उसके औद्योगिक विकास में काम आए।

सोवियत रूस तो द्वितीय महायुद्ध के विध्वंस के बाद अपने अल्प साधनों के बावजूद केवल राजनैतिक संकल्प और वैज्ञानिक प्रतिष्ठान की एकलक्ष्यता के आधार पर अपना रक्षा उद्योग विकसित करने में सफल हुआ था। अपनी रक्षा चुनौतियों को गंभीरता से लेने से ही इजराइल को उन्नत हथियार बनाने वाली एक अग्रणी शक्ति बनाया है। हमारे पड़ोस में एक ऐसा देश बैठा है, जिसका राष्ट्रीय लक्ष्य ही हमें लहूलुहान करते रहना है। दूसरी तरफ हमारे पड़ोस में एक और विश्व शक्ति उभर रही है, जो हमें चारों ओर से घेरे रखने में लगी रही है। इसके बाद भी हम अब तक अपनी रक्षा चुनौतियों के बारे में सजग नहीं हुए थे। आज भी देश में एक ऐसा बड़ा बौद्धिक वर्ग है, जो नकारात्मक होकर सोचता है और देश को आगे बढ़ने में रुकावट बना हुआ है।

इस वर्ग ने मानवाधिकार के एक अतिरंजित वृतांत के सामने रक्षा चुनौतियों की सदा उपेक्षा की है। हमारी एक और बड़ी बाधा हमारी नौकरशाही और पिछले सात दशक में मकड़ी के जाल की तरह बुने गए उसके कायदे-कानून हं

, जो किसी भी पहल को सफल नहीं होने देते। नरेंद्र मोदी की सरकार नौकरशाही के इस मकड़जाल को समेटने की घोषणा करती रही है। लेकिन उसे कम ही सफलता मिली है क्योंकि यह लक्ष्य भी वह नौकरशाही द्वारा ही पाने की कोशिश कर रही है। यह सब बाधाएं केवल हमारे लिए ही हों, ऐसा नहीं है। इन बाधाओं को पार करना ही राजनैतिक कौशल का परिचायक होता है। आशा की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में हमारा नेतृत्व वैसा राजनैतिक कौशल दिखा पाएगा और हम अपना एक रक्षा उद्योग विकसित करने में सफल होंगे।

 

उससे इतर हमें युद्ध के बदलते हुए स्वरूप के अनुरूप कौशल विकसित करने में भी अपने आपको लगाना है। उसके लिए देश में पर्याप्त प्रतिभा है। पर उसके विकास और संयोजन की आवश्यकता है। अपने संकल्प के आधार पर रूस और चीन युद्ध की इन नई दिशाओं में इतना आगे बढ़ गए हैं कि अमेरिका भी उनकी चुनौती अनुभव करने लगा है। पिछले दिनों डोनाल्ड ट्रम्प ने अंतरिक्ष युद्ध में रूस की बढ़ती हुई कुशलता से चिंतित होकर अपनी प्रयोगशालाओं को अतिरिक्त वित्तीय साधन उपलब्ध करवाए हैं। साइबर क्षेत्र में चीन भी दुनिया की सभी बड़ी शक्तियों के लिए चुनौती बनता जा रहा है। रोबोटिक्स में जापान ने काफी प्रगति की है।

आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस एक तेजी से उभरता हुआ क्षेत्र है। इस सम्मेलन में सेनाध्यक्ष विपिन रावत ने ठीक कहा कि अगर हम अभी नहीं चेते तो बहुत देर हो चुकी होगी। देश के भीतर एक रक्षा उद्योग खड़ा करने की एक बड़ी बाधा हमारी सेना भी रही है। वह हमेशा विदेशों से हथियार खरीदने में ही उतावली दिखाती रही है। लेकिन उसका मुख्य दोष भी हमारे राजनैतिक नेतृत्व पर ही आता है। उसने सेना और रक्षा सामग्री पैदा करने वाले वैज्ञानिक और औद्योगिक प्रतिष्ठान के बीच कोई सामंजस्य पैदा करने की कोशिश नहीं की, जिससे हमारी आवश्यकताओं के अनुरूप एक बड़ा रक्षा उद्योग विकसित हो सके।

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