राजनीति में भारतीयता के वाहक थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय

पं. दीनदयाल उपाध्याय के दौर की राजनीति में साम्यवाद और समाजवाद का बोलबाला था। उस समय इनसे भिन्न दीनदयाल जी ने जो विचार दिया वह एकात्म मानव दर्शन के नाम से मशहूर हुआ। यह मौलिक विचार है, भारतियता से जुड़ा है। इसमें सनातनता है, भारतीय स्वभाव है। एकात्म मानववाद, समाजवाद और साम्यवाद का विकल्प है। इसे भारत में तेजी से मान्यता मिल रही है। दुनिया भी अब इसे समझने में लगी है।

पं.दीनदयाल उपाध्याय के राजनैतिक चिंतन के केन्द्र में मतदाता नही मनुष्य है। उनके लिए राजनीति न कैरियर थी और न ही ख्याति का साधन और न ही ताकत हासिल करने का उपकरण। वो चुनावी मैदान में भी जातिवाद मुक्त राजनीति के प्रवक्ता के रूप में थे। इसलिए दीनदयाल जी का राजनैतिक चिंतन कभी भी अप्रासंगिक नही हो सकता।

वे गरीब, किसान, मजदूर और कतार के अंत में खड़े व्यक्ति के उत्थान की बात करते थे। इसीलिए पं. दीनदयाल उपाध्याय के विचार न कहीं खोए हैं और न ही अप्रासंगिक हुए हैं। बल्कि आज के दौर में उनके विचार की प्रासंगिकता और बढ़ गई है।

पं. दीनदयाल जी का राजनैतिक चिंतन सियासी नफे नुकसान के खांचे तक ही सीमित नही था। उनका एकात्म मानववाद ऐसा वैचारिक अनुष्ठान था जिसमें राजनीति, समाजनीति, अर्थनीति, उद्योग, उत्पादन, शिक्षा, लोकनीति आदि पर व्यापक और व्यवहारिक नीति-निर्देश शामिल थे। उसी को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व केन्द्र सरकार अपना मार्ग दर्शक सिद्धांत मानती है। 

केन्द्र सरकार की ज्यादातर योजनाएं-दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल योजना, स्टार्ट-अप, स्टैंड-अप इंडिया, मुद्रा बैंक योजना, दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना और मेक इन इंडिया जैसी योजनाएं एकात्म मानववाद सिद्धांत से प्रेरित हैं। सबका साथ सबका विकास नारा दीनदयाल जी के अंतिम व्यक्ति के उत्थान के विचार से प्रेरित है।

आजादी के बाद भारत के नीति निर्धारकों ने मनुष्य को मतदाता की दृष्टि से देखना शुरू कर दिया। यहीं से नीति और राजनैतिक विचार से मनुष्य ओझल हो गया। दीनदयाल जी ने अपने राजनैतिक चिंतन के केन्द्र में मददाता को नही मनुष्य को रखा। 

जब हम मनुष्य के बारे में विचार करते हैं तो स्वत ही कर्तव्य का बोध होता है। उसी मनुष्य को जब मतदाता के रूप में देखते हैं तो कुछ प्राप्त करने का बोध होता है। इस सोच ने धीरे धीरे समाज में भरोसे का संकट पैदा किया। उसका परिणाम है कि आज लोग विचारधारा के प्रति गैर जिम्मेदार होते जा रहे

पं. दीनदयाल उपाध्याय मानते थे कि एकात्म मानववाद संस्कारों से आ सकता है। समाज को सत्ता के निर्देश देने की ताकत रखना चाहिए। समाज जब तक राज्य पर निर्भर रहेगा, तब तक परावलंबी रहेगा। जो लोग सार्वजनिक जीवन में काम कर रहे हैं उन्हें लोकशिक्षण का कार्य भी करना चाहिए। 

दीनदयाल जी लोकमत के परिष्कार पर भी जोर देते थे। उनका मानना था कि सिद्धांतविहीन मतदान सिद्धांतविहीन राजनीति का जनक है। इसीलिए लोगों को शिक्षित करना सामाजिक तथा राजनीतिक कार्यकर्ताओं का दायित्व होना चाहिए।

उन्होने दुनिया को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सिद्धांत दिया, जो व्यक्ति को परिवार, समाज, देश, दुनिया और प्रकृति से जोड़ता है। दीनदयाल जी मानते थे कि देश की प्राचीन संस्कृति और मूल्यों के अनुरूप देश के लोकतंत्र का संचालन किया जाना चाहिए

दीनदयाल जी जब कानपुर में पढते थे, वह 1937 का समय था। उस समय कानपुर कांग्रेस, सोशलिस्ट और कम्युनिस्टों का बड़ा केन्द्र था। उस समय दीनदयाल जी ने अपने जीवन, राजनीति और समाजनीति के लिए आरएसएस का रास्ता चुना। उस समय भारत के विभाजन की नींव पड़ चुकी थी। उस दौर में उन्होने तय किया कि उन्हें कहां खड़े होना है। 

आजादी के बाद मुख्यरूप से गांधी के निधन के बाद राजनीति जिन हाथों में रही जिस सोच से संचालित हुई, वो सोच, वो धारा भारतीयता से काफी दूर थी। उस सोच ने आकार पश्चिम में लिया था। उसका लालन पालन और प्रशिक्षण पश्चिम में हुआ था। इसीलिए वो भारत के मन को समझने में असफल रहे।

इसीलिए दीनदयाल जी ने कहा मानव न केवल व्यक्ति है, मानव न केवल समाज है वरन मानव व्यक्ति और समाज की एकात्मता में से पैदा होता है। व्यक्ति और समाज को बांट दे तो मानव मर जाता है। अस्तित्व में ही नहीं आता। व्यष्टि और समष्टि यह एकात्म इकाई है। इस एकात्म इकाई का नाम मानव है। इसीलिए मानव को सुखी करना है तो व्यक्तिवादी होकर नहीं कर सकते, क्योंकि व्यक्तिवादी समाज की उपेक्षा करता है। समाजवादी होकर भी नहीं कर सकते क्योंकि समाजवाद व्यक्ति के व्यक्तित्व को कुचल देता है। 

दीनदयाल जी अपने राजनैतिक विचार के आधार पर अपना राजनैतिक जीवन जिया भी। इसकी तस्दीक हम कई घटनाओं से कर सकते हैं। इसे समझने के लिए साठ के दशक की ओर देखना होगा। बात 1963 की है। लोकसभा की चार सीटें रिक्त हुई थी। विपक्ष के चार दिग्गज मैदान में थे। राजकोट से मीनू मसानी, फरूखाबाद से राममनोहर लोहिया, अमरोहा से जेबी कृपलानी और जौनपुर से पं.दीनदयाल उपाध्याय कांग्रेस को चुनौती देने के लिए मैदान में थे।

दीनदयाल जी और डा. लोहिया दोनो जातिवाद के खिलाफ थे। लेकिन चुनावी सियासत में डा. लोहिया ने जातिगत समीकरण के आधार पर ही फर्रुखाबाद को चुना। दीनदयाल जी ने इसका विरोध तो किया लेकिन एकता के हित में बड़े उद्देश्य के लिए प्रचार करने के लिए सहमति जता दी। कांग्रेस की सोच के केन्द्र में ही वोटबैंक था। कृपलानी को हराने के लिए कांग्रेस ने संसदीय कमेटी से अनुशंसित प्रत्याशी को खड़ा करने की बजाय हाफिज मोहम्मद इब्राहिम को उतार दिया। क्योंकि यहां तुष्टीकरण परवान चढ़ाना था।

उधर दीनदयाल जी ने जातिवाद को अपने आस पास ही नही फटकने दिया। अपने क्षेत्र में चुनावी सभाओं में दीनदयाल जी ने कहा कि, जो जातीय आधार पर पं. दीनदयाल के समर्थन में आए हैं वे सभा से प्रस्थान कर जाएं, मुझे जाति के आधार पर समर्थन नही चाहिए। पं. दीनदयाल जी ने परायजय स्वीकार करते हुए कहाकि, भारतीय जनसंघ जीता है, पं. दीनदयाल की पराजय हुई है। 

जौनपुर से पं. दीनदयाल जीतते तो उस चुनाव की शुचिता का अहसास नहीं होता। उनकी पराजय भारतीय चेतना में बीज की तरह मौजूद हैं। जातिवाद के दलदल में फंसी आज की राजनीति के लिए राजनीतिक शुचिता का सामयिक संदेश है। इसकी आज प्रासंगिकता है, क्योंकि चुनाव ने ही जातीय आधार पर समाज को फिरकों में देखना शुरू कर दिया है। राष्ट्रहित तो दूर समाज के पहले हम जातिपरस्ती में उलझ जाते हैं। 

दीनदयाल जी का दर्शन भारत की प्रकृति से जुड़ा दर्शन है। अत: इस दर्शन से सभी को जुड़ना होगा। जिस दिन इस दर्शन पर समग्रता से समूचा देश विचार करेगा उस दिन लोगों के मन में यह प्रश्न नहीं आएगा कि दीनदयाल जी आज प्रासंगिक हैं या नहीं। 

दीनदयाल जी का जीवन राजनीति में संस्कृति के राजदूत का-सा जीवन है। अगर उनका जीवन मात्र राजनीति का होता तो शायद यह विचार किया जा सकता था कि वे आज प्रासंगिक हैं या अप्रासंगिक। संस्कृति के कारण ही राष्ट्र की रक्षा होती है और राष्ट्र की पहचान बनती है। अत: विचारों के रूप “संस्कृति के राजदूत” की सदैव प्रासंगिकता रहेगी ही। भारतीय जनता पार्टी अपने वैचारिक अधिष्ठान के पुरोधा पं. दीनदयाल उपाध्याय द्वारा प्रस्तुत एकात्म मानव दर्शन की परिधि में काम करती है। 

राजनीति में कई ऐसे अवसर आए जब पं. दीनदयाल जी पर बहुत दबाव थे। पर वे उस प्रवाह और दबाव के आगे अडिग खड़े रहे। उनका कहना था कि जो स्वयं अडिग खड़ा हो सकता है वही उस प्रवाह की दिशा को बदलने का उपक्रम कर सकता है। जो स्वयं अडिग खड़ा नहीं हो सकता वह प्रवाह को बदल भी नहीं सकता। 

जब दीनदयाल जी जनसंघ के महामंत्री बने तो उनके मस्तिष्क में यह उद्देश्य स्पष्ट था कि उन्हें कांग्रेस का विकल्प नहीं बनना है, बल्कि उन्हें देश में राजनीति की वैकल्पिक धारा को प्रवाहित करना है। वे इसी दिशा में आगे बढ़ते गए। शायद इसीलिए पं. दीनदयाल उपाध्याय के असामयिक निधन के बाद जब उनकी पोलिटिकल डायरी का प्रकाशन हुआ तो कांग्रेस के दिग्गज और विद्वान नेता डा. संपूर्णानंद ने भूमिका में लिखा कि दीनदयाल उपाध्याय जी के विचार, कृतित्व में भारतीय लोकतंत्र और शुचितापूर्ण राजनीति का बोध परिलक्षित होता है, जो दुनिया के राजनेताओं के लिए विचारणीय और प्रेरक तत्व है। लेकिन पं. दीनदयाल उपाध्याय की पोलिटिकल डायरी पढकर हम भले ही आत्मतृप्त हो लें, हमारी समकालीन राजनीति में लघुता पीड़ादायक हो सकती है।

बात  साल 1937 की है।  पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने मित्र बलवंत महाश्बदे के कहने पर संघ से जुड़े। कानपुर से बीए करने के बाद एमए करने के लिए आगरा चले गए। एमए पूरा नही कर पाए। यहीं पर नानाजी देशमुख और भाऊ जुगाडे के साथ संघ में काम करना शुरू किया।

यहां पर दीनदयाल उपाध्याय ने नानाजी देशमुख और भाऊ जुगाड़े के साथ पूरी तरह से आरएसएस के लिए काम किया.  अपने एक रिश्तेदार के कहने पर सरकारी नौकरी की परीक्षा में दीन दयाल बैठे और परिणाम आने पर वह चयनित  लोगों की वरीयता सूची में सबसे ऊपर थे. इसके बाद वह इलाहाबाद में बीटी करने चले गए. 

इलाहाबाद में भी वह आरएसएस के लिए काम करते रहे और यहां से वह 1955 में लखीमपुर चले गए जहां पर पूरी तरह आरएसएस के लिए समर्पित हो गए.  

1950 में जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नेहरू की कैबिनेट से इस्तीफा दिया. तब 21 सितंबर 1951 को पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने यूपी में भारतीय जनसंघ की स्थापना की. पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी से मिलकर 21 अक्टूबर 1951 को जनसंघ का राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया. 1968 में वह जनसंघ के अध्यक्ष बने. इसके कुछ ही समय में 11 फरवरी 1968 को उनका देहांत हो गया. 

दीन दयाल उपाध्याय ने राजस्थान में 9 में से 7 पार्टी विधायको को पार्टी से निकाल दिया था जब उन्होंने राज्य में जमींदारी हटाने के कानून का विरोध किया था. 1964 में उन्होंने पार्टी के सत्ता में सिद्धांत को भी पार्टी कार्यकर्ताओं के सामने रखा. बाद में इसका विस्तार उन्होंने 1965 में प्रस्तुत किया. 

 

 

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