लोकतंत्र के खतरे

कोई भी मानव-संस्था ऐसी नहीं है जिसके अपने खतरे न हों। संस्था जितनी बड़ी होती है, उसके दुरूपयोग की संभावनाएं उतनी ही अधिक रहती हैं। लोकतंत्र एक महान संस्था है और इसलिए उसके दुरूपयोग की संभावनाएं उतनी ही अधिक हैं। इसलिए इलाज यही है कि दुरूपयोग की संभावना कम-से-कम कर दी जाए, यह नहीं कि लोकतंत्र ही न बनाए जाएं।

कांग्रेस एक विशाल लोकतांत्रिक संस्था बन चुकी है। पिछले बारह महीनों के दौरान वह उत्कर्ष की एक ऊंची मंजिल तक पहुंच गई है। लाखों की तादाद में लोग, बकायदा सदस्यों में नाम लिखाए बिना ही, कांग्रेस में शामिल हो गए हैं और इस तरह उन्होंने उसकी शोभा में चार चांद लगा दिए हैं। लेकिन साथ ही कांग्रेस में गुंडाशाही भी इतनी बढ़ गई है, जितनी पहले कभी नहीं थी। यह अनिवार्य ही था। स्वयंसेवकों को चुनने के लिए निश्चित किए गए सामान्य नियमों को, संघर्ष के अंतिम दौर में, मानों ताक पर ही रख दिया गया था। नतीजा यह हुआ कि कुछ स्थानों पर गुंडाशाही साफ दिखाई देने लगी है। कुछ कांग्रेसियों को तो धमकियां तक दी गई हैं कि यदि वे मांगी गई राशि नहीं देंगे तो उन पर मुसीबत टूट पड़ेगी। जाहिर है कि पेशेवर गुंडे भी इस माहौल से फायदा उठाकर अपना धंधा चालू कर सकते हैं।

ताज्जुब की बात तो यह है कि इतने बड़े जन जागरण के अनुपात में, इस तरह के जितने मामले मेरे सामने आए हैं, वे संख्या में उससे तो कम ही हैं, जितने की आशंका की जाती थी। मेरा अपना विश्वास तो यह है कि इस सुखद स्थिति का कारण, कांग्रेस द्वारा अपनाया अहिंसा का सिद्धांत है, भले ही हमने उस पर बड़े मोटे तौर पर अमल किया हो। लेकिन गुंडाशाही इतनी तो अवश्य हुई है कि हम समय रहते चेतें और उसकी रोकथाम के लिए उपाय करें और आगे से सावधानी रखें।

स्वभावतः मुझे जो उपाय सूझता है वह यही है कि शास्त्रीय पद्धति से तथा अधिक समझदारी और अनुशासित ढंग से, अहिंसा के सिद्धांत पर, निश्चित रूप से अमल किया जाए। पहली बात तो यह है कि हमने अहिंसा का जितनी दृढ़ता से पालन किया है, यदि उससे अधिक दृढ़ता दिखाई होती तो एक भी ऐसे स्त्री-पुरूष को स्वयंसेवक न बनाया जाता, जो स्वयंसेवकों की भर्ती के नियमों की कसौटी पर बिल्कुल खरे न उतरते। इसके विरूद्ध यह तो कोई दलील ही नहीं हुई कि तब उस स्थिति में संघर्ष के अंतिम दौर के लिए, कोई स्वयंसेवक रह ही नहीं जाता और संघर्ष बिल्कुल ही असफल हो जाता।

मेरा अनुभव मुझे बिल्कुल दूसरी ही सीख देता है। अहिंसक संघर्ष तो केवल एक ही सत्याग्रही के बल पर भी चल सकता है; और लाखों गैर-सत्याग्रही साथ होने पर भी नहीं चलाया जा सकता। फिर मैं तो शुद्ध अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए, उससे किंचित भी भटककर एक संदिग्ध किस्म की सफलता प्राप्त करने की अपेक्षा, नितांत असफलता को ही गले लगाना ज्यादा पसंद करूंगा। जहां तक अहिंसा का संबंध है, मुझे लगता है कि इसमें एक बिल्कुल ही गैर-समझौतावादी दृष्टिकोण अपनाए बिना, तनिक भी न झुकने का संकल्प किए बिना, अंत में विपत्ति के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं लग सकेगा। यह इसलिए कि यदि ऐसा किया गया तो हो सकता है कि संकट के निर्णायक क्षणों में हम अपने-आपको अहिंसा की कसौटी पर खरा सिद्ध न कर पाएं और संभव है कि हम अपने विरूद्ध अव्यवस्था फैलाने वाली, एकाएक खड़ी हो जाने वाली, शाक्तियों का सामना करने के लिए, अपने आपको बिल्कुल ही अप्रस्तुत और असमर्थ पाएं।

पर अंधाधुंध भर्ती की यह गलती कर चुकने के बाद, अब उससे हुई हानि की पूर्ति करने का अहिंसक उपाय क्या है? अहिंसा का अर्थ है उच्च कोटि का साहस और इसीलिए कष्ट सहने के लिए तैयार रहना। इसलिए डराने-धमकाने, धोखा-धड़ी करने या इससे भी बुरी हरकतों के सामने हमें सिर नहीं झुकाना है, भले ही उसके कारण हम में से कुछ को अपनी बेशकीमत जानें गंवानी पड़ें। धमकी-भरे पत्र लिखने वालों को यह महसूस करा देना चाहिए कि उनकी धर्मकियां की कोई परवाह नहीं की जाएगी। साथ ही, हमें उनको लगी बीमारी का ठीक-ठीक निदान करके उनका उचित उपचार करना चाहिए।

गुंडे भी तो आखिर हमारे समाज के ही अंग हैं और इसलिए उनका उपचार भी पूरी सहृदयता तथा सहानुभूति के साथ किया जाना चाहिए। आमतौर पर लोग गुंडाशाही इसलिए नहीं किया करते कि उनको यही पसंद है। यह वास्तव में, हमारे समाज में व्याप्त, एक किसी गहरे रोग का लक्षण है। हम शासन-तंत्र में व्याप्त गुंडाशाही के साथ अपने संबंधों पर जिस नियम को लागू करते हैं, ठीक वही नियम समाज की अंदरूनी गुंडाशाही के साथ हमें लागू करना चाहिए। यदि हमें विश्वास हो गया है कि उस अत्यंत ही संगठिक किस्म की गुंडाशाही से, अहिंसक ढंग, निबटने का सामर्थ्य हमारे अंदर मौजूद है तो अंदरूनी गुंडाशाही से, इसी तरीके से निबटने के लिए, हमें अपने अंदर कहीं अधिक सामर्थ्य महसूस करनी चाहिए।

इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि इस विराम-संधि के दौरान हालांकि कांग्रेसी भी, अन्य सभी नागरिकों की भांति, पुलिस की सहायता लेने के लिए स्वतंत्र हैं, फिर भी हमें इस रोग से निबटने के लिए पुलिस की सहायता नहीं लेनी चाहिए। मैंने जो उपाए सुझाया है, वह सुधार, हृदय परिवर्तन और प्रेम का उपाय है। पुलिस की सहायता लेना तो दंड, भय और यदि सचमुच अरद्धा नहीं तो श्रद्धा के अभाव का मार्ग तो है ही। इसलिए हम दोनों तरीकों को एक साथ लेकर नहीं चल सकते। सुधार का मार्ग किसी-न-किसी मंजिल पर कठिन तो लगता है, पर वास्तव में, वह है-सबसे अधिक सरल।

यंग इंडिया, 7.5.1931

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