धार्मिक आरक्षण जैसे गैरजरूरी मुद्दे पर कौआ-रार

ओमप्रकाश तिवारी

देश में धार्मिक आधार पर आरक्षण को लेकर शुरू से ही बहस होती रही है। लोकसभा या विधानसभा चुनावों के दौरान सत्तापक्ष और विपक्ष द्वारा धार्मिक आरक्षण के मसले को खूब कुरेदा जाता है। सियासी पार्टियां एक दूसरे पर सच्चे-झूठे आरोप  आरोप लगाती रहती हैं। चुनाव खत्म होते ही इस मुद्दे पर खामोसी छा जाती है। मौजूदा लोकसभा चुनाव के दौरान भी ये मुद्दा एक बार फिर सरगर्म है। इस मुद्दे पर देश के शीर्ष नेताओं की टिप्पणियां अशोभनीय हैं। तथ्य तो ये भी है कि इस समय मुस्लिम या कोई दुसरा धार्मिक समूह अपने लिए आरक्षण की मांग भी नहीं कर रहा है। इसके बावजूद धार्मिक आरक्षण जैसे गैरजरूरी मुद्दे पर कौआ-रार के निहितार्थ समझे जा सकते हैं। 

दरअसल, हमारा संविधान धार्मिक आधार पर किसी भी तरह के आरक्षण के खिलाफ है। संविधान सभा में भी यह मसला उठा था और इस पर खासा विमर्श भी हुआ था। इस मुद्दे पर विचार करने के लिए सरदार सरदार वल्लभ भाई पटेल की अध्यक्षता में एक सलाहकार समिति गठित की गयी थी। समिति में एससी मुखर्जी, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, खान अब्दुल समद खान और अब्दुल सत्तार आदि प्रमुख थे। इस समिति में लगभग सभी अल्पसंख्यक समूह के लोगों का प्रतिनिधित्व था। ध्यातव्य ये भी यही कि राष्ट्र और समाज हित में सभी की एकमत थे।
संविधान सभा में इस मुद्दे पर लंबी बहस हुई थी। बहस के दौरान जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में एक प्रस्ताव पेश किया। इस प्रस्ताव में अल्पसंख्यकों और पिछड़े वर्गों के हितों की रक्षा के बारे में स्पष्ट बातें कही गई थी। संविधान सभा में नेहरू के इस प्रस्ताव पर कुछ सदस्यों ने आपत्ति जताई। ये भारतीय संविधान में सरकारी नौकरियों में मुसलमानों के लिए आरक्षण दिए जाने का प्रावधान कए जाने की मांग कर रहे थे।  जवाहरलाल नेहरू ने मुस्लिमों समेत किसी भी अल्पसंख्यक समूह को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की मांग को सिरे से खारिज कर दिया था। उस समय समिति के सदस्यों ने नेहरू के रूख का समर्थन किया था। 
इसी तरह सलाहकार समिति के अध्यक्ष सरदार सरदार वल्लभ भाई पटेल भी धार्मिक अल्पसंख्यक समूहों को किसी भी तरह का आरक्षण का प्रावधान किये जाने के सख्त खिलाफ थे। सरदार पटेल ने कहा था कि संविधान में केंद्र और राज्य सरकारों को यह देखना चाहिए कि अल्पसंख्यकों को सरकारी नौकरियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिल रहा है या नहीं। अंततः गंभीर विमर्श के बाद संविधान सभा ने समिति के प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया। मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे राष्ट्रवादी मुस्लिम नेताओं ने भी धार्मिक आधार पर आरक्षण के प्रावधान को देश और समाज के लिए हानिकारक बताया था।
इस तरह जवाहरलाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आजाद और सरदार पटेल समेत वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं, स्वतंत्रता सेनानियों एवं  संविधान सभा ने इस मुद्दे पर पर्याप्त विमर्श करने के बाद ये महसूस किया था कि किसी भी प्रकार का धार्मिक आरक्षण राष्ट्र के विकास और समाज की एकता के लिए हानिकारक होगा। जवाहरलाल नेहरू ने 26 मई 1949 को संविधान सभा में धर्म के आधार पर आरक्षण के मुद्दे पर बोलते हुए कहा था कि ‘जहां आप एक पूर्ण लोकतंत्र के खिलाफ हैं, यदि आप अल्पसंख्यक और अपेक्षाकृत छोटे अल्पसंख्यक को सुरक्षा प्रदान करना चाहते हैं, तो आप इसे अलग-थलग कर देते हैं। हो सकता है कि आप कुछ हद तक इसकी रक्षा करें, लेकिन किस कीमत पर? इसे अलग-थलग करने और उसे मुख्य धारा से दूर रखने की कीमत पर, जिसमें बहुसंख्यक जा रहा है’।  
जवाहरलाल नेहरू ने आगे कहा कि ‘मैं निश्चित रूप से राजनीतिक धरातल पर बात कर रहा हूं। बहुसंख्यकों के साथ उस आंतरिक सहानुभूति और साथी-भावना को खोने की कीमत पर। किसी भी छोटे समूह या अल्पसंख्यक के लिए दुनिया और बहुसंख्यकों के सामने यह प्रकट करना बुरी बात है कि हम आपसे अलग रहना चाहते हैं, कि हम आप पर भरोसा नहीं करते हैं, कि हम खुद पर ध्यान देते हैं और इसलिए हम ऐसा चाहते हैं। नतीजा यह है कि उन्हें शेष पंद्रह आने की कीमत पर सुरक्षा के रुपये में एक आना मिल सकता है’।
इस तरह सभी तथ्यों के अध्ययन एवं अवलोकन करने के बाद निष्कर्ष निकलता है कि धार्मिक आरक्षण देश, समाज और संविधान की मूल भावनाओं के बिपरीत है। मुस्लिम या दूसरे अल्पसंख्यक समूह के लोगों को यससी, एसटी और ओबीसी के तहत आरक्षण आदि का लाभ पहले से ही मिल रहा है। इसके बावजूद सियासी पार्टियां समाज के कुछ तबकों के वोट को हासिल करने के लिए इसे मुद्दा बनाने का प्रयास करती हैं। धार्मिक आरक्षण जैसे गैरजरूरी मुद्दे पर इस बार तो अशोभनीय बयानबाजियां हुई।

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