बहुजन राजनीति का संकट

शिवेंद्र सिंह2024 के आम चुनाव की तैयारियों ने राजनीतिक सरगर्मी बढ़ा दी है.  इस रणभूमि की मौजूदा स्थिति यह है कि सत्तापक्ष अपने कील-कांटे दुरुस्त कर रहा है और विपक्ष अभी भी बिखराव-भटकाव की स्थिति में  है. कांग्रेस की पुरजोर कोशिशों के बावजूद विपक्षी एकता मनमाफिक आकार नहीं ले पाई. इस पूरी क़वायद की विफलता में सर्वप्रमुख कारक बसपा की असहमति रही.
असल में दलित राजनीति के केन्द्र में बैठी बहन जी विपक्ष के लिए ‘की फैक्टर’ हैं. बसपा का विपक्षी गठबंधन का हिस्सा ना बनना सीधे-सीधे दलित समूह के मतों के साथ ही अतिपिछड़ा एवं मुस्लिम मतों के केन्द्रिकरण को रोकेगा. जिसका सीधा लाभ एनडीए को मिलेगा. यह ठीक है कि भले बसपा अपने बूते सरकार ना बना सके लेकिन उसकी वजह से बहुतों का सरकार बनाने का ख्वाब जरूर टूट सकता है. ध्यातव्य है कि भाजपा, कांग्रेस के बाद बसपा मत प्रतिशत के हिसाब से तीसरी सबसे बड़ी पार्टी रहीं है. यह स्थिति तब है ज़ब बसपा अपने अस्तित्व हेतु संघर्षरत है.
इसमें कोई शक नहीं है कि आज बहुजन राजनीति का प्रतीक बसपा पतनोन्नमुख है. इसके कई कारण हैं. मायावती जी क़े एकाधिकारवाद और अहंकार ने ना सिर्फ बसपा को तोड़ा बल्कि बहुजन आंदोलन को कमजोर किया है. कांशीराम क़े बहुत से सहयोगी और दलित छत्रपों जैसे राजबहादुर, शाकिर अली, कालीचरण सोनकर, जंगबहादुर, सोनेलाल पटेल, राशिद अली, आर.के.चौधरी आदि ने बसपा छोड़ दूसरी जगहों पर ठिकाना तलाश लिया या खुद की पार्टियां बना ली. दूसरे, जातीय आधार पर देखें तो बसपा में जाटव-चमार जाति का दबदबा है. स्वयं कांशीराम एवं मायावती भी इसी जाति से सम्बंधित हैं. बल्कि कांशीराम का मानना था कि उनकी चमार जाति ही बहुजन आंदोलन का नेतृत्व करे. इससे दलित समुदाय की अन्य जातियाँ अकसर असहज महसूस करती रहीं है. इसके अतिरिक्त अपनी राजनीतिक यात्रा क़े सांध्य काल में जो परिवारवाद का मोह मायावती जी का उभरा है उसने बहुजन आंदोलन की व्यावहारिक क्रियाशीलता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है. ये वो बामसेफ का नैतिक चरित्र ही नहीं है जिसके प्रणेता मान्यवर कांशीराम जैसा त्यागी पुरुष थे.
इसके बावजूद अभी भी विपक्षी गठबंधन बसपा को साथ लाने के लिए आतुर क्यों है और क्यों कुछ क्षेत्रीय दल इसका विरोध कर रहें है? राष्ट्रीय स्तर के दल के रूप में कांग्रेस नेतृत्व मायावती जी को अपने साथ लेने के पीछे की बहुजन ध्रुवीकरण की उम्मीद को समझ रही है और यही वज़ह बसपा के विरोध का भी है. जैसे सपा मूलतः पिछड़े वर्ग की राजनीति गोलबंदी पर आधारित रही है. 90के दशक से जातिवादी गोलबंदी का ये यथार्थ है कि भले ही सवर्ण सामाज के विरुद्ध जितनी वर्गीय एकता की बात हो लेकिन प्रत्यक्षतः दलित एवं पिछड़ा समाज के हित टकराते रहें हैं जो कि राजनीतिक नेतृत्व, सामाजिक वर्चस्व, सरकारी नौकरी एवं पदोन्नति में आरक्षण जैसे राजनीतिक मुद्दों के अलावा मूलभूत सामाजिक संरचना में भी व्याप्त हैं.
वास्तविकता यही है कि आरक्षण समेत दूसरी सुविधाओं के लिए खुद को शोषित वर्ग का हिस्सा दिखाने वाली पिछड़ा वर्ग की कुछ ‘लठेत जातियों’ ने  दलित समाज के संघर्ष से उपजे परिवर्तन में सिर्फ अपना लाभ बटोरा है बल्कि समयानुकूल उनका शोषण एवं प्रताड़ित भी किया है. और यह स्थिति इतनी व्यापक है कि सवर्ण समाज के विरुद्ध कटु वैमनस्यता का प्रचार-प्रसार करके भी अब तक पुष्ट दलित-पिछड़ा एकता संभव नहीं दिखती. समाजवादी अपना अस्तित्व बचाने के लिए बहुजन गोलबंदी को आतुर हैं लेकिन दलित समाज में मायावती एवं बसपा के सामने उनका  विकल्प बनना अभी भी दूर की कौड़ी है.
 वैसे मायावती जी क़े राजनीतिक चातुर्य को कमतर आंकना ठीक नहीं होगा क्योंकि उनकी अब तक की राजनीतिक यात्रा विस्मयकारी रही है और विभिन्न मौकों पर उन्होंने स्वयं को साबित भी किया. निम्न पारिवारिक पृष्ठभूमि से उठकर जिस तरह उन्होंने बामसेफ के एक साधारण कार्यकर्त्ता से कांशीराम की विरासत का उत्तराधिकार और फिर एकछत्र दलित नेतृत्व संभाला, वह कोई सामान्य बात नहीं है. ये भी उतना ही बड़ा यथार्थ है कि इस अकेली महिला ने ही  सपाई बाहुबल एवं गुंडई से लोहा लिया और उत्तर प्रदेश में यादववादी राजनीति की कमर तोड़ी थी. याद रखिये कि आज अपराधियों के प्रति जिस त्वरित न्याय के योगी मॉडल का गुणगान हो रहा है उसकी शुरुआत 2007 के बसपा सरकार में मायावती ने ही किया था.
 और जिन्हें भी ये लगता है कि मायावती की राजनीतिक क्षमता चूक गईं हैं या बसपा अब राजनीतिक संघर्ष की स्थिति में नहीं है, उन्हें एक बार इस विकल्प पर विचार करना चाहिए कि यदि इंडिया गठबंधन मायावती जी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करते हुए उनके पीछे गोलबंद हो जाता, क्या तब भी भाजपा का लिए जीत का मैदान इतना सपाट होता?
  ख़ैर उम्र के ढलान पर मायावती जी ने बहुजन आंदोलन की दिशा-निर्देशित करने का प्रयास शुरू कर दिया है. बीते दिसम्बर माह में मायावती जी ने दो ध्रुवीय बिलकुल स्पष्ट सन्देशवाहक दो अहम् फैसले लिए. पहला, भतीजे आकाश आनन्द को सत्ता हस्तानानंतरण द्वारा बहुजन राजनीति की परिवारवाद विरोधी नैतिकता को ध्वस्त करने के लिए वे तत्पर हैं और बहुजन समाज को आकाश के पीछे खड़े होने को प्रेरित कर रहीं हैं.
 कहना पड़ेगा कि मायावती जी ने भी उसी अधिकारितावादी व्यवहार का प्रदर्शन किया जो 90 के दशक में उभरे ज्यादातर जातिवादी नेताओं ने किया है. उन्होंने भी अपने जाति और वर्ग से कोई युवा नेतृत्व नहीं पनपने दिया ताकि वह भविष्य में उन्हें और उनके परिवार को चुनौती ना दे सके और जो स्वयंभू  रूप से उभरे भी, उन्हें या तो नेपथ्य में धकेला गया या फिर वह स्वयं ही अपने अंतर्विरोधों के कारण निष्फल होते गये. क्योंकि ना तो उन्हें दलित आंदोलन द्वारा पूर्ण स्वीकृति मिली और ना ही अपने अग्रजों का दिशा-निर्देशन जैसे मायावती को मान्यवर कांशीराम का मार्गदर्शन मिला.
  उदाहरणस्वरुप, एक समय बीमारी से पीड़ित और सक्रिय राजनीति से थकती मायावती के भविष्य के विकल्प के रूप में चंद्रशेखर रावण का उदय आकस्मिक नरसिंह अवतार की तरह हुआ.अपने तीखे बयानों एवं लड़ाकू तेवर से चंद्रशेखर अचानक से राष्ट्रीय पटल पर छा गये. ऐसा लगने लगा था कि वे बामसेफ की राजनीति के नये स्वयंभू नायक बनने के लिए तैयार हैं लेकिन जल्द ही अपने दलित-मुस्लिम गठबंधन कायम करने की आतुरता, आंदोलन के गलत रुख एवं दिशाहीन आक्रमकता ने उन्हें पतनशील बना दिया है. ऊपर से उनके प्रति बहनजी की नापसंदगी जगजाहिर है.

असल में उर्धवाधर प्रगति का सबसे बड़ा दुष्परिणाम ये होता है कि व्यक्ति की फिसलन भी तीव्र होती है.नकारात्मक राजनीति का सबसे दुःखद पहलू यह है कि इसमें जितनी तेजी से प्रगति होती है उससे भी तीव्र गति से पतन होता है. चंद्रशेखर ने सिर्फ अपने बयानों में ही कांशीराम को अपना आदर्श माना है, व्यवहार में नहीं. यदि वे यथार्थ में उनकी राजनीति को समझते तो उन्हें पता होता कि आक्रामकता, विरोध, समन्वय एवं संयोजन की राजनीति किस प्रकार संचालित की जाती है. ख़ैर वर्तमान चुनाव में कोई प्रभाव पैदा करना तो दूर वे स्वयं के लिए सुनिश्चित नगीना सीट पर ही खुद को साबित कर लें तो उनकी राजनीतिक प्रासंगिकता बची रहेगी.

 दूसरा निर्णय दानिश अली का निष्कासन था, जिसके साथ ही मायावती जी ने मुस्लिम समाज को ये अपरोक्ष रूप से सन्देश दिया कि वो जहाँ चाहे जा सकता, जिसके चाहे राजनीतिक गोलबंदी का हिस्सा बन सकता है. ये भी स्पष्ट है कि बहन जी फिलहाल भाजपा से टकराहट की मुद्रा में नहीं हैं. संभवतः अनुभवहीन आकाश बसपा के पुराने तेवरों के साथ पार्टी संचालन और सत्ता से टकराहट की स्थिति में हैं भी नहीं इसलिए बहन जी ‘मध्यम मार्ग’ का अनुसरण कर रहीं हैं.
 कांग्रेस समेत दूसरे अन्य विपक्षी दलों की लगातार कोशिशों के बावजूद मायावती जी के वर्तमान राजनीतिक रुख और आकाश आनन्द के बयानों से ये तो स्पष्ट है कि वे ‘इंडिया’ गठबंधन का हिस्सा नहीं बनेगी. लेकिन उसके विरोध में यह तर्क भी स्वीकारणीय नहीं है कि इसकी वजह ईडी और सीबीआई की जाँच का दबाव है.
 जिन्हें भी ये लगता है कि ईडी या सी.बी.आई. की धमकी से भाजपा मायावती जी का समर्थन अपनी ओर कर लेगी या वो जाँच के डर से सत्ता के समक्ष समर्पण कर देंगी, उनको भारतीय राजनीति की मूलभूत समझ नहीं है. आज भी मायावती जी उत्तर से दक्षिण तक दलित समाज की सबसे बड़ी शख्सियत या एकमात्र सर्वमान्य नेत्री हैं. यहाँ तक कि बसपा के निरंतर राजनीतिक पतन के बावजूद आज भी दलित-वंचित समाज में उनका इक़बाल बना हुआ है. इसलिए सामान्य सी भी राजनीतिक समझ वाली कोई भी सरकार उनके खिलाफ किसी दबावपूर्ण जाँच या उनको गिरफ्तार करने की क्षमता नहीं रखती. क्योंकि बसपा सुप्रीमो के ऊपर हाथ डालने का मतलब होगा कि दलित समुदाय सड़कों पर उतर आयेगा और सरकार तथा शासन व्यवस्था की हालत पतली हो जायेगी. हालांकि ये जरूर है कि बहनजी खुद के सम्मान के प्रति जितनी भी निर्द्वन्द हो उन्हें अपने परिवार विशेषकर भाईयों की अवैध संपत्ति पर जाँच का डर जरूर है.
 साथ ही यह अंदाजा लगाना कि अपने मौन समर्थन द्वारा मायावती जी भाजपा सरकार से अपने बेहतर सेवानिवृति योजना की उम्मीद लगाए बैठी हैं. तो ऐसे कयास लगाने वालों को याद होना चाहिए कि पूर्व में राष्ट्रपति चुनाव में स्वयं को एनडीए क़े उम्मीदवार बनाये जाने वाली अटकलों की मायावती जी ने खुलकर मुख़ालफत की थी. हालांकि भाजपा का ये प्रयोग यदि सफल होता है तो वो दलित समाज के बड़े मत प्रतिशत को अपने पाले में खींचने में सफल रहती.
 ख़ैर, इस समय दलित राजनीति किंकर्तव्यविमूढ़ एवं भ्रमित दिखाई दे रही है. कांशीराम द्वारा प्रारम्भ जर-जमीन एवं अधिकार का राजनीति संघर्ष अपनी तेजस्विता खो चुका है. हालांकि ये कहना की दलित आंदोलन में अब ऊर्जा नहीं बची, एक प्रकार का बौद्धिक मिथ्याचार होगा. परन्तु अब इस आंदोलन को नये नेतृत्व, नये विचार और नये संदर्शो की जरुरत है और कम से कम अभी अगुआ दिख रहें नई पीढ़ी के किसी भी दलित नेता में वो वैचारिक, राजनीतिक सामर्थ्य नहीं दिखता की वह इस आंदोलन की रास थामकर उसका नेतृत्व कर सके. लेकिन ये उम्मीद भी रखनी होगी कि किसी ऐसे नेता का कभी भी उभार हो सकता है. वैसे भी इतिहास का ये चरित्र है कि वह अपनी सुविधानुसार नायक पैदा कर लेता है. तो उस क्षण की प्रतीक्षा कीजिये और तब तक चलने दीजिये ‘राम भरोसे, हिन्दू होटल’.

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