जयपाल सिंह का वह भाषण

रामबहादुर राय
रामबहादुर राय

संविधान सभा में जयपाल सिंह अनुसूचित जनजाति का प्रतिनिधित्व कर रहे सदस्यों में सबसे बड़ा माना-जाना नाम था। पंडित जवाहरलाल नेहरू के लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव पर 19 दिसंबर, 1946 को वे जो बोले वह एक ऐतिहासिक भाषण के रूप में यादगार बना हुआ है। इसके कई कारण हैं। उनके भाषण में कुछ व्यंग था। उससे ज्यादा थी उस समय की परिस्थितियों की पीड़ा जिसे वे अपने लहजे में व्यक्त कर रहे थे।  शुरूआत इस तरह की-‘मैं उन लाखों अपरिचित आदिवासियों की ओर से बोलने के लिए खड़ा हुआ हूं, जो आजादी की लड़ाई लड़ने वाले योद्धा हैं। भले ही दुनिया उनकी कद्र नहीं करे। वे भारत के मूल निवासी हैं। इन्हें पिछड़े कबीले, आदिम कबीले, जरायम पेशा कबीले, आदि न जाने कितने नामों से पुकारा जाता है।

महोदय! मुझे इस बात का फख्र है कि मैं जंगली हूं। यही वह नाम है, जिससे हम लोग देश के जिस भाग में रहते हैं, पुकारे जाते हैं। हम लोग जो जंगलों में रहते हैं, इस बात को बखूबी समझते हैं कि संविधान के लक्ष्य और उद्देश्य संबंधी इस प्रस्ताव का समर्थन करने का अर्थ क्या है?’ उनके इस अंतिम वाक्य से संविधान सभा में एक क्षण के लिए सन्नाटा छा गया। आशंका उत्पन्न हुई कि अब वे क्या कहेंगे। एक उत्सुकता भी थी। इसलिए कि जयपाल सिंह की राजनीतिक दुविधा से सदन परिचित था। उंची शिक्षा उन्हें प्राप्त हुई थी। उन्होंने 1937 में आदिवासी महासभा बनाई थी जो बाद में झारखंड पार्टी बनी। वे झारखंड राज्य के लिए शुरू से ही आग्रही थे। इससे भी ज्यादा उनका एक राजनीतिक इतिहास था। जो उनकी छाया थी। जिससे सदस्यों का मन एक क्षण के लिए आशंका से भर गया।

संविधान सभा को अधिक इंतजार नहीं करना पड़ा। जयपाल सिंह ने जहां छोड़ा था। जिससे लोग चैकन्ने हो गए थे। उन्हें राहत की सांस लेने का अवसर देते हुए वे बोले-‘मैं तीन करोड़ से अधिक आदिवासियों की ओर से इस प्रस्ताव का समर्थन करता हूं।’ जैसे ही वे यह बोले कि संविधान सभा में खुशी से सदस्य अपनी-अपनी मेजें थपथपाने लगे। जयपाल सिंह ने प्रस्ताव के समर्थन के कारण भी बताए। सबसे प्रमुख यह कि संविधान का लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव एक आशा जगाता है। हर्ष का संचार करता है।

अगली बात उन्होंने उन लोगों के लिए कही जिसका वे प्रतिनिधित्व कर रहे थे। ‘एक जंगली और आदिवासी होने के नाते से इस प्रस्ताव की कानूनी जटिलताओं और उलझनों को समझने की मुझसे आशा नहीं की जाती है। लेकिन मेरी सामान्य बुद्धि और मेरी जनता की सामान्य बुद्धि मुझे यह बतलाती है कि हम में से प्रत्येक व्यक्ति को इस स्वतंत्रता के मार्ग पर अग्रसर होना चाहिए और मिलकर संघर्ष करना चाहिए।’ यह कहकर वे नहीं रूके। अपनी ओर से आदिवासियों की वह पीड़ा भी व्यक्त की, जो सदियों की उपेक्षा से पैदा हुई थी। हालांकि उपेक्षा की थी अंग्रेजों ने। लेकिन अंग्रेजों की ‘बांटों और राज करो’ की नीति का ही प्रभाव मानना चाहिए जिससे उनके मन का रोष जो प्रकट हुआ उसका निशाना कहीं अन्यत्र था।

जयपाल सिंह का यह कथन पूरी तरह सच है कि ‘आप जंगली कौमों (आदिवासियों) को लोकतंत्र की शासन व्यवस्था नहीं सिखा सकते हैं। आप को उनसे ही यह सीखना होगा। वे उंचे दर्जे के लोकतांत्रिक लोग हैं।’ उन्हें अनेक शिकायतें करनी थी और की भी। लेकिन उनका यह वाक्य भविष्य बोधक है। ‘अब हम नया अध्याय प्रारंभ करने जा रहे हैं। जिसमें अवसर की समानता होगी।’ उन्होंने पंडित जवाहरलाल नेहरू के उन बयानों में विश्वास जताया जिनका संबंध आदिवासी हितों से था।

संविधान सभा से पहले जयपाल सिंह ने अनेक उतार-चढ़ाव देखे और दिखाए थे। संविधान सभा की कार्यवाही से इसका पता नहीं चलता। उससे तो उनके उस भाषण से ही परिचित हुआ जा सकता है जो कार्यवाही में दर्ज है। उनका भाषण कितना महत्वपूर्ण था और उनके एक-एक शब्द कितने वजनी थे यह जानने के लिए उनकी वह जीवनी पढ़नी चाहिए जिसे जाने-माने पत्रकार बलबीर दत्त ने लिखी है।

बलबीर दत्त की लिखी जीवनी ‘जयपाल सिंह-एक रोमांचक अनकही कहानी’ से कुछ ऐसे तथ्य सामने आते हैं जो जयपाल सिंह के भाषण का महत्व बढ़ा देते हैं। कई प्रश्न भी अपने आप खड़े हो जाते हैं। पहले उन तथ्यों पर बात करें। तथ्य यह है कि ‘जयपाल सिंह की आदिवासी महासभा और मुहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग के बीच 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ने के कुछ माह बाद 1940 से ही खिचड़ी पकनी आरंभ हो गई थी।

मार्च 1940 में रांची के निकट रामगढ़ में कांग्रेस का ऐतिहासिक अधिवेशन हुआ था, जो सन् 42 के अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन का पूर्वाभास था। लाहौर में मुस्लिम लीग की कांफ्रेस में मुसलमानों के लिए अलग होमलैंड की मांग की गई। जो बाद में पाकिस्तान कहलाया।  मार्च 1940 में ही रांची में आदिवासी महासभा का सम्मेलन हुआ। मुस्लिम लीग ने ब्रिटिश सरकार को युद्ध प्रयासों के सहयोग का आश्वासन दिया। आदिवासी महासभा ने भी वही रास्ता अपनाया।’ इस तरह देख सकते हैं कि एक ऐसा समय भी था जब जयपाल सिंह ने ‘मुस्लिम-आदिवासी’ गठजोड़ का विकल्प सोचा था। उस दिशा में उनके कदम दूर तक बढ़ गए थे।

कह सकते हैं कि अंग्रेजों की ‘बांटो और राज करो’ के जाल में वे गर्दन तक फंस गए थे। आजादी की लड़ाई में वह समय कुछ खास बन गया है। इसलिए कि उसी समय अंग्रेजों ने मुहम्मद अली जिन्ना को मुसलमानों का  एक मात्र प्रतिनिधि होने की मान्यता दे दी थी। जो पाकिस्तान बनने का मूल कारण बना। उस समय वाइसराय थे लार्ड लिन लिथगो। 1937 के चुनाव में मुस्लिम लीग को भारी झटका लगा था। जनादेश का अंग्रेज अगर आदर करते तो वे जिन्ना को कोई महत्व नहीं देते। लेकिन अंग्रेजों ने  जिन्ना को वह पद और सम्मान दिया जिसके वे हकदार नहीं थे। उससे ही मुस्लिम लीग को दुस्साहस का अवसर मिला।

यहां यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से पैदा होता है कि जयपाल सिंह किन कारणों से मुस्लिम लीग के गठबंधन से निकले? इसका उत्तर खोजने से पहले यह समझ लेना चाहिए कि जब जयपाल सिंह का झुकाव मुस्लिम लीग की तरफ था तब वे भी अंग्रेजों के बहकावे में आ गए थे। अंग्रेज उस समय आदिवासी, दलित और मुस्लिम गठजोड़ के लिए तर्क देते थे। इसके लिए लुभावने नारे देते थे। अंग्रेजों ने इन समुदायों को ‘हिन्दू राज’ का डर दिखाया हुआ था। वह अंग्रेजों की चाल थी। जो इस रूप में व्यक्त होती थी कि कांग्रेस राज यानी हिन्दू राज।

अंग्रेजों की चाल कुछ हद तक कामयाब रही। तभी तो 1946 की शुरूआत में ‘झारखंड छोटा नागपुर-पाकिस्तान’ सम्मेलन हुआ। जिसमें जयपाल सिंह भी शामिल हुए। लेकिन मुस्लिम लीग ने ‘सीधी कारवाई’ का जैसे ही ऐलान किया और उसके जो भयावह नतीजे सामने आए तो जयपाल सिंह चैंक गए। उनकी अंतरात्मा जग गई। उन्होंने मुस्लिम लीग के भयावह रूप को देखा। तब मोह भंग हाना ही था जो हुआ।  दूसरी तरफ जिनका वे नेतृत्व कर रहे थे उन आदिवासियों ने मुस्लिम लीग को नकार दिया। लोकसभा में कांग्रेस के सदस्य, इतिहासकार और लेखक शशि थरूर ने अपनी पुस्तक-‘अन्धकार काल- भारत में ब्रिटिश साम्राज्य’ में जो लिखा है वह उस समय का प्रासंगिक चित्रण है।

‘जिन्ना पाकिस्तान प्राप्त करने के लिए दृढ़ संकल्प था। मुस्लिम लीग के नेताओं ने अपनी इस मांग को सामने रखने के लिए 16 अगस्त, 1946 का दिन सीधी कारवाई (डायरेक्ट एक्शन डे) के रूप में घोषित किया। मुस्लिम लीग के हजारों सदस्य हिंसा, लूट व मारकाट का ताड़व मचाते सड़कों पर उतर आए। परिणामस्वरूप हुए दंगों में, विशेष रूप से कलकत्ता (कोलकता) में 16000 निर्दोश लोग मारे गए। पुलिस और सेना हाथ-पर-हाथ रखे यह सब देखती रही, ऐसी प्रतीत होता था कि ब्रिटिश शासकों ने कोलकता को भीड़ के हवाले करने का निर्णय ले लिया था। अंततः सेना के आने से पहले तीन दिन तक शहर में हुए सांप्रदायिक दंगों में अनेक मौतें व बर्बादी हुई। इस हत्याकांड और घृणा ने राष्ट्रीय मानस में कुछ अकथनीय चीर डाला था, अब सामंजस्य असंभव दिखाई देता था।…. ‘सीधी कारवाई’ की विभीषिका होने देने वाली लीग एवं बंगाल में इसकी सरकार को ब्रिटिश शासन का समर्थन अब भी जारी था।’ यही वह भयानक घटना थी जिसने जयपाल सिंह को हिला दिया। जिससे उनके जीवन का नया अध्याय षुरू हुआ। उन्होंने राह बदली। वे संविधान सभा के सदस्य चुने गए। कांग्रेस के नेताओं के संपर्क में आए। अपनी भूलों को सुधारा। नए अवसर को पहचाना। उसी का प्रकटीकरण उनके भाषण में उस दिन हुआ।

करीब एक दशक तक जयपाल सिंह अंग्रेजों के जाल में उलझे रहे। पहले वे डा. राजेंद्र प्रसाद से मिले अवश्य, पर उनका प्रस्ताव उन्हें नहीं भाया। यह बात 1938 की है। डा. राजेंद्र प्रसाद चाहते थे कि जयपाल सिंह स्वाधीनता संग्राम में कांग्रेस के सिपाही बने। इसके लिए उन्हें खर्च की एक रकम भी देने का वायदा था। उसी समय जयपाल सिंह की भेंट सर मारिस हैलेट से हुई। जो उस समय बिहार के गर्वनर थे। उनकी ही सलाह पर जयपाल सिंह ने आदिवासी आंदोलन की कमान संभाली। जो मुस्लिम लीग से गठजोड़ तक पहुंचा। मुस्लिम लीग की योजना में झारखंड को ‘आदिवासी पाकिस्तान’ बनाया जाना था। जिसे जयपाल सिंह ने ‘सीधी कारवाई’ में देखा और वे सावधान हो गए। आजादी के बाद उन्होंने झारखंड पार्टी बनाई। उससे वे पहली, दूसरी और तीसरी लोकसभा में निर्वाचित हुए। 1963 में झारखंड पार्टी का विलय कांग्रेस में हुआ। वे चौथी लोकसभा में भी निर्वाचित हुए थे। 1970 में उनका देहांत हुआ।

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