संविधान सभा और भारत विभाजन

न्यूज एजेंसी एसोसिएटेड प्रेस ने 22 फरवरी, 1947 को खबर चलाई कि लार्ड माउंटबेटन भारत के वायसराय बनाए जा रहे हैं। महीने भर बाद माउंटबेटन आए। 24 मार्च, 1947 को वायसराय और गवर्नर जनरल का कार्य संभाला। उस खबर से जवाहरलाल नेहरू दहल गए थे। इस आशंका से वे चिंतित हो उठे थे कि वेवल कहीं नाराज होकर कुछ अनर्थ न कर दें। उनसे मिलकर सफाई दी। उस खबर से खुलेआम नाता तोड़ा। खबर थी सच, जिसे वी.के. कृष्णमेनन ने ‘लीक’  कर दी थी।

जवाहरलाल नेहरू ने जिस तरह वक्त का तकाजा समझा और सफाई दी, ठीक वैसे ही संविधान सभा भी उस दौर में अत्यंत सावधान थी। एक-एक कदम फूंक कर चल रही थी। उसे हर क्षण गहरे खंदक में गिरने का अंदेशा रहता था। जब 14 जुलाई, 1947 को संविधान सभा का चौथा अधिवेशन शुरू हुआ तब भारत विभाजन का निर्णय हो चुका था। इसीलिए अध्यक्ष डा. राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा को बताया कि ‘सबसे बड़ी बात तो यह हुई है कि 3 जून, 1947 को ब्रिटिश सरकार ने एक बयान जारी किया है। जिसका भारत की राजनीति पर बहुत बड़ा प्रभाव हुआ है। भारत के टुकड़े किए गए। दो प्रांतों के भी टुकड़े-टुकड़े करने का निश्चय हो चुका है। इन दो राज्यों के बटवारे की बातचीत चल रही है और बटवारे का काम भी हो रहा है। इसके अलावा संविधान सभा के सदस्यों में भी कुछ परिवर्तन हुए हैं। जो सदस्य बंगाल और पंजाब से आए थे, उनके बदले बने नए राज्यों से नए सदस्य चुनकर आए हैं। मुस्लिम लीग के सदस्य भी आज शामिल हो रहे हैं, जो अब तक बहिष्कार कर रहे थे।’

नए सदस्यों के परिचय पत्रों की पेशी और रजिस्टर पर हस्ताक्षर करने के लिए जैसे ही अध्यक्ष डा. राजेंद्र प्रसाद ने कहा और जैसी ही हाजी अब्बदुल सत्तार का नाम पुकारा गया कि दिल्ली के कांग्रेसी नेता देशबंधु गुप्त ने वैधानिक आपत्ति की। ‘मैं यह जानना चाहता हूं कि वे अब भी दो राष्ट्रों के सिद्धांत में विस्वास रखते हैं या नहीं। जो सदस्य लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करेगा उसे रजिस्टर पर हस्ताक्षर का अधिकार नहीं है।’ इसे अध्यक्ष ने खारिज किया। यह कहा कि सदस्य का अधिकार है कि वह रजिस्टर पर हस्ताक्षर करे। लेकिन बात समाप्त नहीं हुई। बालकृष्ण शर्मा, विश्वनाथ दास, श्रीप्रकाश और गोविंद मालवीय ने पुनः यह प्रश्न उठाए।

अनेक इतिहासकारों ने इस पर संविधान सभा के अध्यक्ष डा. राजेंद्र प्रसाद के रूख को बड़ी भूल माना है। प्रो. देवेंद्र स्वरूप इस प्रसंग को गंभीर क्षण मानते थे। उनका कहना था कि डा. राजेंद्र प्रसाद ने उसकी गंभीरता नहीं समझी। वास्तव में, डा. राजेंद्र प्रसाद ने सावधानी ज्यादा बरती और उस विषय को तिल से ताड़ बनने से रोका।

संविधान सभा के पिछले अधिवेशन से क्या-क्या राजनीतिक परिवर्तन हो गए थे, यह केएम मुंशी के भाषण से जाना जा सकता है। वे उसी दिन विषय निर्धारण समिति की रिपोर्ट पेश करते समय बोले थे। अनिश्चितता के कारण संविधान सभा की यह समिति अपना काम पिछले अधिवेशन में पूरा नहीं कर सकी थी। केएम मुंशी ने कहा कि ‘देश के कुछ भाग भारतवरर्ष से तथा संविधान सभा की अधिकार सीमा से अलग हो गए हैं। ब्रिटिश पार्लियामेंट उस कानून को स्वीकार करने जा रही है। जिससे 15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतंत्र हो जाएगा। यह वह घटना है जिसकी प्रतीक्षा हम शताब्दियों से कर रहे हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि 16 मई की केबिनेट मिशन योजना से जो बंधन संविधान सभा पर लगाए गए थे वे अब हट गए है। इसलिए संविधान सभा का कार्यक्रम फिर से बनाया जाए।’

के.एम. मुंशी ने अपने भाषण में समझाया कि ‘16 मई की केबिनेट मिशन योजना का समस्त व्यावहारिक प्रयोजन के लिए अंत हो चुका है और हमारी सर्वाधिकार प्राप्त संस्था पूर्ण स्वतंत्र वातावरण में भावी संविधान के पुनर्निर्माण की ओर अग्रसर हो रही है।’ वह योजना क्या थी, इसे उनके ही शब्दों में समझें, ‘16 मई की योजना का एक आशय था… हर तरह से देश की अखंडता का निर्वाह करना। 16 मई की योजना में एक शक्तिशाली केंद्रीय सरकार का अखंडता रक्षक वेदी पर बलिदान किया गया था। योजना की सूक्ष्म परीक्षा करने के पश्चात हम लोगों में से अनेकों को यह विदित हुआ कि वह इतनी अशक्त अखंडता थी कि उत्पन्न होते ही नाश को प्राप्त हो जाती। 16 मई की योजना के अंतर्गत दो स्थितियां थीं, प्रारंभिक स्थिति और संघीय संविधान स्थिति।’ उन्होंने यह भी कहा-‘वस्तुतः 16 मई की योजना की बारंबार परीक्षा करने पर वह मुझे बहुधा पितृघाती के उस बोरे के समान प्रतीत हुई जिसका आविष्कार प्राचीन रोमन कानून द्वारा किया गया था। रोम के प्राचीन फौजदारी कानून के अनुसार जब कि कोई व्यक्ति बहुत घृणित अपराध करता था तो वह एक बंदर, एक सांप और एक मुर्गे के साथ एक बोरे में बंद कर दिया जाता था। उस बोरे को टाइबर नदी में डाल दिया जाता था जब तक वह डूब न जाए।’ स्पष्ट है कि केबिनेट मिशन योजना भारत को टुकड़े-टुकड़े करने का एक भविष्यगत भ्रमजाल था।

के.एम. मुंशी का कहना था-‘जितना अधिक हमने इस योजना पर विचार किया उतना ही अधिक हमने इस योजना में अल्पसंख्यकों को अलग होने के लिए उत्सुक पाया, सांप्रदायिक भागों को परस्पर घातक पाया और अपने लिए दोहरा बहुसंख्यक खंड अपनी ही सत्ता को विषमय करते हुए पाया। मैं तो यह कहता हूं कि ईश्वर को धन्यवाद है कि आखिरकार हम उस बोरे के बाहर निकल आए। उस योजना में पड़ने के लिए हमारे यहां न सांप्रदायिक विभाग और न दल हैं, न वैसी विस्तारपूर्वक कार्य प्रणाली है जो योजना में बताई गई थी, न दोहरा बहुसंख्यक वाक्यखंड है न अवशिष्ट अधिकार युक्त कोई प्रांत है, न प्रांतों के लिए बाहर निकलने का विकल्प है, न दस वर्श बाद पुनर्विचार करना है और न केंद्र के लिए अधिकारों की केवल चार श्रेणियां ही हैं।

अतः हम अपनी इच्छानुसार एक ऐसा संघ बनाने में स्वतंत्रता का अनुभव करते हैं जिसका केंद्र जितना हम बना सकते हैं उतना शक्तिशाली हो… पर इसके लिए रियासतों को इस महान कार्य में अपना योगदान करना होगा। हमें उन्हें भारत में मिलाना होगा। इसलिए व्यक्तिगत रूप से इस परिवर्तन पर मुझे तो कुछ भी खेद नहीं है। हमारा देश अब एक रूप है, यद्यपि हमारे सीमा प्रदेश सिकुड़ गए हैं अर्थात कुछ निकट आ गए हैं-इस समय हम केवल ऐसी ही आशा करें-और हम अपने शक्ति और स्वतंत्रता के प्रिय उद्देश्य की ओर बिना किसी हिचकिचाहट के अग्रसर हो सकते हैं।’ उस संकट में के.एम. मुंशी का यह आशावाद संविधान सभा को मधुर संगीत की भांति लगा होगा।

के.एम. मुंशी ने कहा कि ‘15 अगस्त को भारतवर्ष स्वतंत्र और स्वाधीन उपनिवेश हो जाएगा। हम उस स्थिति को यथा संभव शीघ्र ही प्राप्त करना चाहते हैं। हम अपना संविधान बनाना चाहते हैं जो हमें आवश्यक शक्ति प्रदान करेगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उपनिवेशीय संविधान में रियासतों के प्रतिनिधियों के लिए कोई स्थान नहीं है, जो 15 अगस्त को लागू होगा। इसलिए हम चाहते हैं कि संघीय संविधान शीघ्र लागू हो जाना चाहिए।’

इस भाषण के बाद उन्होंने अपनी रिपोर्ट संविधान सभा में रखी। के.एम. मुंशी ने संविधान सभा में 16 मई, 1946 को घोशित केबिनेट मिशन की योजना का उल्लेख यूं ही नहीं किया। उसका एक संदर्भ है। लार्ड माउंटबेटन को प्रधानमंत्री एटली ने कुछ हिदायतों के साथ भारत भेजा था। उनसे उन बातों को ध्यान में रखने के लिए कहा था। जैसे, पहला यह कि भारत में सरकार की स्थापना केबिनेट मिशन योजना के अनुरूप होनी चाहिए। दूसरा यह कि 1 अक्टूबर, 1947 तक यह न हो सके तो ब्रिटिश सरकार को वे सूचित करें और बताएं कि जून, 1948 तक सत्ता का हस्तांतरण करने के लिए क्या किया जाना चाहिए। तीसरा यह कि सत्ता हस्तांतरण के लिए निश्चित तारीख से पहले किसी भी दावेदार को सर्वोच्च सरकार की शक्ति और कर्तव्य नहीं सौंपे जाए, लेकिन राज्यों के साथ वार्ता शुरू की जाए कि ब्रिटिश सम्राट के साथ उनकी संगति किस प्रकार की जा सकेगी। चौथा यह कि अंतरिम सरकार के साथ वैसा ही व्यवहार किया जाए और उससे वैसी ही सलाह ली जाए जैसी डोमिनियन सरकार से ली जाती थी। इस सरकार को दिनप्रतिदिन के प्रशासन में अधिक से अधिक स्वतंत्रता दी जाए। इस तरह अंतरिम सरकार एक काम चलाऊ व्यवस्था थी।

माउंटबेटन ने एटली से असाधारण सत्ता हासिल कर ली थी। इसका अर्थ व्यवहार में यह था कि उन्हें हर छोटे-बड़े फैसले के लिए सम्राट की सरकार से बार-बार पूछने की जरूरत नहीं थी। इतिहासकार तारा चंद ने इसे इन शब्दों में बताया है, ‘महामुगल के समान माउंटबेटन दिल्ली के तख्त पर आ बैठे।’ माउंटबेटन को एक जटिल गुत्थी सुलझानी थी। इसके लिए उन्होंने वायसराय की चली आ रही लीक को छोड़ा। अपने मित्र बनाए। उनसे सलाह ली। उस समय उनकी उम्र 46 साल की थी। स्पष्ट है कि वे अपने जीवन के सबसे अधिक क्षमतावान समय में भारत के वायसराय बने थे। उनमें स्पष्टवादिता थी। उनका एक आकर्षण तो था ही। पंडित नेहरू पर खतरनाक हद तक उनका जादू चलता था।

नेहरू का प्रभाव भी उनपर था। यह तो प्रायः सभी जानते हैं कि माउंटबेटन को उस समय की सबसे जटिल समस्या से रास्ता खोजने में वीपी मेनन ने मदद की। जहां वेवल ने वीपी मेनन को अपने पास पहुंचने तक की इजाजत नहीं दी जबकि वे उनके स्टाफ में थे, वहीं माउंटबेटन ने वीपी मेनन की भरपूर मदद ली। उस प्रक्रिया का वर्णन वीपी मेनन ने अपनी पुस्तक ‘दी ट्रांसफर आफ पावर इन इंडिया’  में विस्तार से किया है। इसी तरह ब्रिटेन में भी एक श्रृखंला छपी। वह ब्रिटेन और भारत के संवैधानिक संबंधों को बताती है। उसमें 1942 से 1947 के दौरान सत्ता के हस्तांतरण का पूरा अंग्रेजी विवरण है।

माउंटबेटन ने अपनी एक कार्यपद्धति बनाई। एक समय एक व्यक्ति से बात की। उससे एक घंटे से ज्यादा बात नहीं की। बड़े नेताओं से अपनापा का संबंध बनाया। लेकिन यह तथ्य अज्ञात रहा है कि दूसरे मेनन यानी वी.के. कृष्णमेनन ने माउंटबेटन की कितनी मदद की। इसे जानने-समझने से पहले माउंटबेटन और वी.के. कृष्णमेनन के संबंधों को जानना जरूरी है। वी.के. कृष्णमेनन पहली बार माउंटबेटन से उनके घर 1943 में मिले।

भारत के वायसराय बन कर जब माउंटबेटन आने वाले थे उससे पहले पंडित नेहरू की सलाह से वी.के. कृष्णमेनन उनसे दो बार मिले। 25 फरवरी और 13 मार्च, 1947। दूसरी मुलाकात में वी.के. कृष्णमेनन ने एक लंबा नोट दिया। जिसमें अंतरिम सरकार के संकट और अन्य बातों पर सलाह थी। भारत में संविधान सभा के महत्व को भी उस नोट में रेखांकित किया गया था। उसमें पंजाब और बंगाल के बटवारे का जहां सुझाव था वहीं यह भी सुझाव था कि करांची पाकिस्तान के हिस्से में रहे और कलकत्ता भारत के। क्या वह नोट जवाहरलाल नेहरू की सूचनाओं पर आधारित था? ऐसा ही लगता है।

माउंटबेटन के पीछे-पीछे वी.के. कृष्णमेनन भी दिल्ली पहुंचे। वैसे, जवाहरलाल नेहरू बार-बार पत्र लिखकर उन्हें अर्से से बुला भी रहे थे। उन पत्रों में पंडित नेहरू मेनन से कहते हैं कि आओ, दिल्ली में कुछ दिनों तक ठहरो। नेहरू को मेनन की बड़ी जरूरत थी। 31 मार्च, 1947 को पंडित नेहरू ने नास्ते पर मेनन और माउंटबेटन में एक अनौपचारिक मुलाकात का अवसर उपस्थित किया। 5 अप्रैल को मेनन ने वायसराय माउंटबेटन से मिले। माउंटबेटन ने अपनी डायरी में दो बातें दर्ज की हैं। पहली यह कि माउंटबेटन ने मेनन से समझा कि क्या जिन्ना को सरकार बनाने का प्रस्ताव जो गांधीजी का है वह एक समाधान हो सकता है। मेनन ने नकारात्मक जवाब दिया। दूसरी बार मेनन 17 अप्रैल का माउंटबेटन से मिले। उनसे कहा कि अगर दिल्ली में मेरे रूकने का उपयोग है तो जब तक जरूरत रहेगी मैं रूकूंगा।

22 अप्रैल की मुलाकात में मेनन ने जो सुझाया वही वास्तव में वह फार्मूला था जिसे माउंटबेटन ने अपनाया। उस फार्मूले से माउंटबेटन को अंधेरी सुरंग में रोशनी की झलक मिली। सोचा और मन ही मन अनुभव किया कि ‘खोज लिया’।

ज्यादातर इतिहासकारों ने माउंटबेटन के काम काज के तरीके को सराहा है। उन्हें उस समय की जटिल समस्या का समाधान निकालने का श्रेय दिया है। पर माउंटबेटन ने अपने इंटरव्यू में अपनी सफलता के जो राज बताएं हैं, उसे पढ़ें और उस समय की घटनाओं से जोड़े तो यह स्पष्ट होता है कि वे एक योजना के अधीन काम कर रहे थे। वह भारत विभाजन की ही थी। अखंड भारत की संभावना पर उन्होंने सोचा ही नहीं। यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया कि मुझे 18 माह बाद भेजा गया। मानो वे पहले आते तो भारत का विभाजन नहीं होता।

तथ्य यह है कि माउंटबेटन चर्चिल और एटली की योजना पर काम कर रहे थे। ब्रिटिश हितों के लिए पाकिस्तान की जरूरत थी। जिसे वे लोकलुभावन रीति से पूरा कर सके। एक तथ्य ऐसा है जो गांधी वांगमय में है, पर उपेक्षित सा है। यह तथ्य महात्मा गांधी के पत्र में है। जिसे उन्होंने 28 जून, 1947 को लिखा। उस पत्र का यह अंश एक प्रमाण है कि माउंटबेटन किस तरह सोचते थे और भारत विभाजन के लिए अलग-अलग लोगों से अलग-अलग तर्क देते थे, ‘आपने मुझे फिर यह कहकर चैंकाया कि यदि अंग्रेजों की हुकूमत के दौरान विभाजन न हुआ होता तो हिंदू, बहुसंख्यक होने के कारण विभाजन कभी न होने देते और मुसलमानों को जोर-जबरदस्ती से अपने अधीन रखते। उस पर मैंने आपसे कहा था यह भारी भूल है। इस संबंध में संख्या का प्रश्न बिलकुल बेकार है और उसकी मिसाल यह दी थी कि एक लाख से भी कम अंग्रेज सिपाहियों ने भारत को पूरी तरह अपने अधीन रखा। आपके दोनों दृष्टांतों में कोई समानता नहीं थी। मैंने कहा था कि अंतर केवल मात्रा का है।’ यह पत्र गोपनीय था।

गांधीजी ने अपने किसी सहयोगी को नहीं दिखया था। प्रश्न पूछा जा सकता है कि उन्होंने यह पत्र वायसराय को क्यों लिखा जबकि कांग्रेस विभाजन स्वीकार कर चुकी थी। गांधीजी ने उसका समर्थन कर दिया था। फिर भी एक पखवाड़े बाद उन्होंने माउंटबेटन को लिखा। बातचीत की इच्छा प्रकट की। उस पत्र पर जो भी प्रश्न हो सकते हैं, उसका अंतिम वाक्य स्पष्टीकरण देता है, ‘मैं चाहता हूं कि आपको उन गलतियों से बचाऊ जो मुझे दिखाई देती है। केवल इसी आशय से यह पत्र लिखा है।’

वी.के. कृष्णमेनन पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने भारत विभाजन की सलाह उन्हें दी। यह तथ्य ‘ए चेकर्ड ब्रिलियेंस-दी मेनी लाइव्स आफ वी.के. कृष्णमेनन’ पुस्तक में माउंटबेटन के हवाले से उजागर हुआ है। माउंटबेटन ने अपनी डायरी में लिखा है कि मैंने वी.के. कृष्णमेनन से पूछा कि आप क्या समाधान बताते हैं? मेनन ने उनसे कहा कि अगर हमें जून 1948 से पहले डोमिनियन स्टेटस मिल जाता है तो विरोध में कोई आवाज नहीं उठेगी। भारत और पाकिस्तान को एक समान दर्जा दे देने से समस्या हल हो जाएगी। मेनन के जीवनी लेखक जयराम रमेश ने लिखा है कि ‘पंडित नेहरू मेनन का अपने अनौपचारिक दूत के रूप में उपयोग कर रहे थे।’ इतना ही नहीं था, मेनन ही नेहरू का प्रतिनिधित्व कर रहे थे।

लैरी कालिन्स और दामिनिक लैपियर की पुस्तक ‘माउंटबेटन और भारत का विभाजन’ इंटरव्यू की है। प्रश्नोत्तर शैली में है। उसमें माउंटबेटन एक जगह कहते हैं कि ‘जासूस कहना गलत होगा, लेकिन कृष्णमेनन और वीपी मेनन मेरे संपर्क सूत्र थे। इसलिए कांग्रेस के भंग हो जाने की आशंका मुझे हो गई थी। मैंने इसकी गुंजाइश नहीं रखी। अगर मेरे वे संपर्क सूत्र न होते तो मुझे समय रहते पता नहीं लगता। तब मुश्किल हो जाती।’ इन दो मेननों से माउंटबेटन ने नेहरू और पटेल को अपने अनुकूल किया। इससे माउंटबेटन की कार्य प्रणाली भी समझी जी सकती है।

एक दिन उन्होंने वीपी मेनन को बुलाया। मेनन को आश्चर्य हुआ। कारण कि वायसराय वेवल ने पहले उनको कभी बात करने के लिए नहीं बुलाया था। माउंटबेटन के इंटरव्यू में वीपी मेनन के बारे में यह छपा है- ‘उस दिन पहली मुलाकात में ही मुझे लगा कि मैं उनके साथ काम कर सकूंगा। वह बुद्धिमान थे। इमानदार थे, ऐसे प्रस्ताव रखते जो स्वीकार किए जा सकते थे। फिर मुझे पता चला कि उनके व्यक्तिगत संबंध पटेल से हैं तो मैंने गुप्त रूप से उनका उपयोग करना शुरू किया।’

इस पर लेखकद्वय ने पूछा कि नेहरू के साथ भी ऐसी कोई कड़ी थी? माउंटबेटन का जवाब है-‘नेहरू के साथ मेरी अनौपचारिक कड़ी कृष्णमेनन थे। जिनसे मेरी दोस्ती इंग्लैंड में हुई थी। अजीब आदमी थे।’ माउंटबेटन को ‘यह निश्चय करना था कि दो वैकल्पिक योजनाओं में से किसको पसंद किया जाए। एक योजना तो भारत की एकता को बचाए रखना चाहती थी। परंतु स्वायत्त प्रांतों को अधिक से अधिक शक्ति देकर उनके कुछ संघ बनाना चाहती थी जिसमें उनके ही संविधान होते। दूसरी योजना यह थी कि भारत का विभाजन करके दो सर्व सत्ता संपन्न और स्वतंत्र राज्य बना दिए जाएं। प्रत्येक राज्य में एक समुदाय का बहुमत हो। प्रथम योजना उस समय के प्रांतों को ज्यों के त्यों रखना चाहती थी और केंद्र को निःसत्व बना देने का विचार था। दूसरी योजना के अनुसार पंजाब, बंगाल और असम के प्रांतों के दो प्रांत बनने वाले थे, जिन जिलों में हिंदुओं का बहुमत था उन्हें मुस्लिम जिलों से पृथक करना था।’

इन योजनाओं पर माउंटबेटन ने महात्मा गांधी, जिन्ना, नेहरू, पटेल आदि से अलग-अलग बात की। गवर्नरों की कांफ्रेंस बुलाई। अपने स्टाफ से बात करके दिमाग की सफाई करते थे। उसी दौरान वी.के.कृष्णमेनन की सलाह पर माउंटबेटन सपरिवार शिमला गए। योजना यह थी कि वे और पंडित नेहरू दिल्ली की गर्मी से दूर शांत वातावरण में हल खोज सकें। वहां पंडित नेहरू भी पहुंचे। यह 8 मई, 1947 की बात है। लेकिन उससे पहले ही माउंटबेटन ने भारत विभाजन की एक योजना लंदन भेज दी थी। जो वहां से मंजूर होकर आई थी उसे माउंटबेटन ने नेहरू को  पढ़ने के लिए दी। उसे पढ़कर नेहरू अपना आपा खो बैठे। वहां दोनों मेनन थे। रात के दो बजे नेहरू वी.के. कृष्णमेनन के कमरे में पहुंचे। उस योजना पर अपना गुस्सा उतारा। फिर वी.के. मेनन से बात कर सुबह यानी 11 मई को माउंटबेटन को पत्र लिखा।

उन्हें बताया कि मूल योजना पर मेरी सहमति है, इस पर नहीं। एटली सरकार ने मूल योजना में एक परिवर्तन कर दिया था। मूल योजना भारत और पाकिस्तान को डोमिनियन स्टेटस देने की थी। रियासतों को उन पर छोड़ दिया गया था। लेकिन एटली सरकार ने रियासतों को भी डोमिनियन स्टेटस देने का संशोधन कर उसे मंजूरी देते हुए माउंटबेटन को भेज दिया था। जिसे पढ़ने के बाद नेहरू भड़क गए थे। यह टिप्पणी की थी कि ‘यह तो भारत का बाल्कनाईजेशन है।’ उसे  ‘प्लान बाल्कन’ के रूप में याद किया जाता है। उसमें 600 रियासतों को भी डोमिनियन स्टेटस दे दिया गया था।

माउंटबेटन ने इंटरव्यू में बताया है कि ‘मैंने तब अलग से वीपी मेनन से बात की। उनसे कहा कि हम इस स्थिति को कैसे संभाल सकते हैं। मुझे लगता है कि इसका नया मसौदा तैयार करना होगा। हम अपनी स्थिति नहीं बदल सकते हैं। विभाजन हमें स्वीकार करना होगा। तब वीपी मेनन ने एक दूरगामी प्रस्ताव मेरे सामने रखा। उसमें विशेष बात यह थी कि 1935 में भारत सरकार अधिनियम के अंतर्गत ‘डोमिनियन स्टेटस’ का इस्तेमाल किया गया था और वह सफल रहा। वीपी मेनन ने हर कदम पर मेरी सलाह ली।’ जो वीपी मेनन ने योजना बनाई उसे लेकर माउंटबेटन लंदन गए। मंजूरी ली। अपने साथ वीपी मेनन को भी ले गए।

इतिहासकार तारा चंद ने लिखा है-‘कांग्रेस यह वायदा कर चुकी थी कि भारत स्वतंत्र और सर्वसत्तात्मक देश बनेगा। नेहरू इस स्वरूप पर बहुत जोर देते थे परंतु वे भारत को ब्रिटिश राष्ट्रमंडल का सदस्य बनाने के पक्ष में थे, उधर पटेल नहीं थे। वीपी मेनन ने उनमें यह विचार भर दिया था कि ऐसी डोमिनियन स्टेटस जो ब्रिटिश राष्ट्रमंडल से अलग हो सके, स्वाधीनता के ही बराबर है और डोमिनियन स्टेटस स्वीकार कर लेने से तुरंत ही स्वराज्य प्राप्त हो जाएगा तथा पकिस्तान बन जाने से बड़ा छुटकारा मिल जाएगा और रात-दिन के झगड़े का अंत हो जाएगा। इसलिए पटेल डोमिनियन स्टेटस से संतुष्ट थे।

नेहरू और पटेल दोनों ही चाहते थे कि केंद्रीय सरकार शक्तिशाली हो परंतु भारत की एकता के लिए वे प्रांतों को अधिक से अधिक स्वायत्त शासन देने के लिए तैयार थे।’ नेहरू और पटेल की इस सहमति से भारत विभाजन का निर्णय हुआ। जिसे कांग्रेस और संविधान सभा ने भी माना।

डा. बी पट्टाभि सीतारामय्या ने कांग्रेस के इतिहास में लिखा है कि ‘जब निश्चित तिथि आई तो 2 जून, 1947 को वायसराय माउंटबेटन ने थोड़े से नेताओं को दावत दी। जवाहरलाल तथा वल्लभ भाई पटेल कांग्रेस के प्रतिनिधि थे। कांग्रेस अध्यक्ष आचार्य जेबी कृपलानी का कहीं नाम नहीं था। कुछ दिनों से कांग्रेस के प्रधान को बराय नाम माना जाने लगा था।’ 3 जून, 1947 को ब्रिटिश सरकार ने भारत विभाजन की घोषणा कर दी। कांग्रेस का एक विशेष अधिवेशन 14-15 जून को नई दिल्ली में हुआ। अध्यक्ष कृपलानी सहित 218 नेता उपस्थित थे। उसमें संविधान सभा के ज्यादातर सदस्य भी थे। बहुत विवाद हुआ। अंत में कांग्रेस कार्यसमिति का प्रस्ताव 29 के विरूद्ध 153 के बहुमत से पारित हुआ। कुछ सदस्य तटस्थ रहे। जो प्रस्ताव पारित हुआ उसका विभाजन संबंधी अंश इस तरह है-‘3 जून, 1947 की घोषणा से हिंदुस्तान के कुछ भाग अलग हो जाएंगे। कांग्रेस इसे मान रही है।’ वहां महात्मा गांधी उपस्थित थे।

कांग्रेस अध्यक्ष आचार्य जेबी कृपलानी के अनुरोध पर चालीस मिलट बोले। उनके भाषण के ये अंश सार रूप हैं-‘इतना तो आप मानेंगे कि देश के टुकड़े होने का जितना दर्द मुझे हो सकता है, उतना और किसी को नहीं होगा।’… ‘लेकिन हमारा (कांग्रेस का) संविधान ऐसा है और आपका धर्म भी है कि यदि आप मानते हैं कि यह (कार्य-समिति) गलती पर है और उन्हें हटाना चाहिए तथा क्रांति कर देनी चाहिए और सारी बागडोर अपने हाथ में ले लेनी चाहिए तथा ऐसा करने की आप अपने में भी ताकत महसूस करते हैं तो आपको ऐसा करने का पूरा अधिकार है। लेकिन मैं अपने में वह ताकत आज नहीं देखता हूं। अगर देखूं तो मैं भी साथ दूं। अगर मैं ताकत अनुभव करता तो अकेला बागी बन जाता। पर आज मुझे ऐसा नहीं दिखता है।’… ‘सबसे जरूरी बात यह है कि हम समय को समझें। यह समय ऐसा है कि हम सब अपनी जबान पर लगाम लगाएं और वही करें जो हिन्दुस्तान के लिए भला हो।’

अपने भाषण में महात्मा गांधी ने दो बातें कहीं। पहली यह कि कांग्रेस कार्य समिति का यह निर्णय है। उनके इस कथन का अर्थ वहां उपस्थित कांग्रेसजन भलीभांति समझ रहे थे। उन्हें यह मालूम था कि कांग्रेस कार्यसमिति के अध्यक्ष के अलावा अठारह में से चौदह सदस्य संविधान सभा में सक्रिय थे। वे उसके सदस्य थे। गांधीजी ने कहा कि अगर उसे कांग्रेस नहीं मानती है तो उसका यह अधिकार है। लेकिन जो लोग ऐसा करेंगे उन्हें नेतृत्व देने के लिए तैयार रहना चाहिए। इसे ही समझाने के लिए उन्होंने यह कहा-‘आलोचना तो मैं कर लेता हूं, पर इससे आगे क्या? क्या मैं उसका भार उठा लूं? क्या मैं नेहरू बनूं? सरदार बनूं? या राजेंद्र बाबू बनूं? मुझे भी अगर आप इस काम में लगा दें तो मैं नहीं कह सकता कि मैं क्या कर पाउंगा।’

इसी आधार पर उन्होंने समय की अनिर्वायता का सहारा लिया। दूसरी बात जो उन्होंने संकतों में कही वह यह थी कि कांग्रेस का जो नेतृत्व आज है वह एक दिन में नहीं बना है। वह सालों के संघर्ष में से तपकर निकला है। उसे हटाकर कोई हल न तो संभव है और न ही उस नेतृत्व को हटाया जा सकता है। वह नेतृत्व ही समय का तकाजा है।

ये वही गांधीजी थे जिन्होंने माउंटबेटन से अपनी दूसरी मुलाकात में सुझाया था कि नेहरू की अंतरिम सरकार को भंग कर दीजिए और जिन्ना को अपनी सरकार बनाने की पूरी आजादी दीजिए। वे जैसा चाहे वैसा करें। किसे मंत्री बनाना है और उसमें कितने हिन्दू रहेगे और कितने मुसलमान, यह भी उन्हें तय करने दीजिए। इस सुझाव ने वायसराय को चौका दिया था। वे सोचने लगे थे कि क्या यह काम करेगा! उन्हें अधिक मानसिक व्यायाम नहीं करना पड़ा क्योंकि कांग्रेस के नेताओं ने इस सुझाव को सिरे से नकार दिया।

इतिहाकार आर.सी मजूमदार ने ‘स्ट्रगल फार फ्रीडम’ में बताया है कि ‘माउंटबेटन ने भारत विभाजन के लिए जिस एक तर्क को आधार बनाया और उसे कांग्रेस के नेताओं के गले उतारा वह यह था कि केबिनेट मिशन योजना में केंद्र की सरकार बहुत कमजोर होगी जबकि उनकी योजना में केंद्र की सरकार मजबूत होगी। मुस्लिम प्रांतों के अलग हो जाने के बाद शेष भारत को ऐसा संविधान बनाने का अवसर सुलभ हो जाएगा जिसमें एक मजबूत केंद्रीय सरकार होगी। वह भारत की एकता के लिए उपलब्धि होगी। आदर्शवाद को अवष्य नुकसान होगा, लेकिन व्यवहारिक राजनीति फाइदे में होगी। इस तर्क ने कांग्रेस नेताओं पर जादू कर दिया।’ यह वह तर्क था जो पहले वीपी मेनन ने दिया। जिसे पटेल ने समझा। पटेल ने गांधीजी को समझाया। गांधीजी ने इसी तर्क को अपने शब्दों में बढ़ाया। भारत विभाजन पर कांग्रेस का नेतृत्व सहमत हो गया। भले ही सबके तर्क अलग हों।

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