डा. अंबेडकर की वह मार्मिक अपील!

 

रामबहादुर राय

संविधान के लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव पर बहस से एक बात साफ-साफ उभरती है। वह उस समय की कड़वी सच्चाई थी। बड़े नेता अखंड भारत का संविधान बनाने बैठे थे। लेकिन मुस्लिम लीग के बहिष्कार से जो खतरा पैदा हो गया था उसे किस प्रकार दूर करें, इस पर अलग-अलग राय थी। एम.आर जयकर ने सलाह दी थी कि मुस्लिम लीग के आने तक इंतजार करें। उनके बाद बिहार के नेता श्रीकृष्ण सिन्हा बोले। उन्होंने एम.आर जयकर की सलाह को अपने शब्दों में रखा। इस तरह उसे नया अर्थ दे दिया। उनके शब्द हैं-‘वस्तुतः उन्होंने (एम.आर जयकर) यह राय दी है कि यदि हमारे लीगी मित्र कुछ समय तक न आए तो फिर हमें अपने काम में अग्रसर हो जाना चाहिए।’

श्रीकृष्ण सिन्हा कांग्रेस के प्रबुद्ध नेताओं में से थे। उस समय जो सबसे बड़ा प्रश्न था उसके मद्दे नजर उन्होंने कहा कि ‘मेरा विस्वास है कि भारतीय राष्ट्र का प्रादुर्भाव हो चुका है जो भारतीय सभ्यता और संस्कृति से ओत-प्रोत है।’ लेकिन वे उन कठिनाइयों से भी परिचित थे जो ‘भारतीय राष्ट्र के प्रादुर्भाव’ में खड़ी की जा रही थी। उन्होंने चर्चिल की आलोचनाओं को खारिज किया। लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव के समर्थन में  बोलते हुए उन्होंने जवाहरलाल नेहरू, डा. राजेंद्र प्रसाद और महात्मा गांधी के योगदान की प्रसंगवश सराहना की। उस दिन दो ही भाषण हुए। पांच बज चुके थे। सरदार पटेल की इच्छा को सदन ने आदर दिया। वे चाहते थे कि सदन की कार्यवाही पांच बजे पूरी कर दी जाए।

अगले दिन बहस की शुरूआत मीनू मसानी ने की। वे स्वाधीनता संग्राम के बड़े नेताओं में से थे। 1943 में बंबई के मेयर चुने गए थे। उससे पहले 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनवाई थी। जवाहरलाल नेहरू के मित्र थे। उन्होंने ही 1947 में समान नागरिक संहिता का प्रस्ताव संविधान सभा में रखा था। जिसे   नेहरू ने नामंजूर करवा दिया था। वे जब लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव पर बोलने के लिए खड़े हुए तो एक स्पष्टीकरण दिया। ‘मैं एक भारतीय की हैसियत से ही बोलूंगा।’ यह था उनका स्पष्टीकरण। इस एक वाक्य में तब की राजनीति और विखंडन का जहां दृश्य समाया हुआ है वहीं एक आदर्श भी उपस्थित होता है क्योंकि वे अत्यंत अल्पसंख्यक समुदाय यानी पारसी समाज से आते थे।

दूसरी महत्वपूर्ण बात उन्होंने कही कि ‘बावजूद इस बात के कि इस प्रस्ताव में लोकतंत्र और समाजवाद का उल्लेख नहीं है, मैं इसका स्वागत करता हूं।’ एक समाजवादी जब ऐसा कहे तो उसकी वजह कुछ खास ही होगी। वह यह थी कि मीनू मसानी स्टालिन के अत्याचारों से समाजवाद के ढोंग को तब तक समझ गए थे। इसलिए वे लोकतंत्र को महात्मा गांधी के शब्दों में समझा रहे थे। ‘मैं चाहता हूं कि सत्ता हिन्दुस्तान के सात लाख गांवों में बाट दी जाए।’ यह वाक्य महात्मा गांधी का है। जिसे उन्होंने लुइस फिसर से कहा था। वह लक्ष्य आज भी अधूरा है।

अगले वक्ता एफ.आर एन्थोनी थे। वे बंगाल से संविधान सभा में आए थे। उन्हें फ्रेंक एन्थोनी के नाम से सारा देश जानता है। उन्होंने एम.आर जयकर के संशोधन का समर्थन किया। उनका तर्क था कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने सद्भावना और मतैक्य स्थापित होना चाहिए। उनके बाद डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी बोले। उन्होंने एम.आर जयकर के संशोधन से असहमति जताई। कहा कि ‘मैं इस संशोधन का समर्थन करने में असमर्थ हूं।’ उन्होंने पूछा कि ‘इस बात की क्या गारंटी है कि प्रस्ताव को स्थगित कर देने पर मुस्लिम लीग आएगी ही और संविधान सभा में शामिल होगी?’ इस प्रश्न का उत्तर कोई भी नहीं दे सकता था। उनका मत था कि एम.आर जयकर जो संशोधन रख रहे हैं उससे संविधान सभा मुस्लिम लीग के फंदे में पड़ जाएगी और उससे ब्रिटेन के प्रतिक्रियावादियों का हाथ मजबूत होगा। यह भी कहा कि एम.आर जयकर ऐसा कभी नहीं करेंगे। इसलिए डा. मुखर्जी ने कहा कि ‘मुझे आशा है कि डा. जयकर समय आने पर संशोधन को वापस ले लेंगे।’ अंततः डा. मुखर्जी को निराश नहीं होना पड़ा।

उसी दिन डा. भीमराव अंबेडकर बोले। तारीख थी-17 दिसंबर, 1946। अध्यक्ष डा. राजेंद्र प्रसाद ने जब उनका नाम पुकारा तो अंबेडकर आश्चर्यचकित रह गए। कारण यह था कि बोलने वालों में डा. अंबेडकर से पहले बीस-बाइस नाम थे। इसलिए वे समझते थे कि उन्हें अगले दिन मौका मिल सकता है। तब वे तैयार होकर आते। लेकिन उन्हें अध्यक्ष ने जब अवसर दिया तब वे थोड़ा असहज हो गए थे। संभले और जो बोले वह ऐतिहासिक है। उन्होंने लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव को दो हिस्से में किया। पहले हिस्से पर कोई विवाद नहीं था। उस हिस्से में संविधान के लक्ष्य का वह प्रस्ताव  था जो स्वाधीनता संग्राम के जीवन मूल्यों में रच-बस में गया था। इसलिए डा अंबेडकर की नजर में वह दोहराव था। वे चाहते थे कि प्रस्तावक पंडित नेहरू उससे कहीं आगे जाए। अगर नेहरू ऐसा करते तो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय को सुनिश्चित, सुरक्षित और संरक्षित करने का प्रस्ताव प्रस्तुत करते।

डा. अंबेडकर के उस भाषण का स्वर भारत की एकता और अखंडता का है। वे देख रहे थे कि उस पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। फिर भी वे बोले कि ‘मुझे इस बात का पक्का विश्वास है कि समय और परिस्थिति अनुकूल होने पर दुनिया की कोई भी ताकत इस देश को एक होने से रोक नहीं सकती।’ जैसे ही वे यह बोले कि सभा ने हर्ष घ्वनि से उनका समर्थन किया। उनका कहना था कि ‘हमारी कठिनाई इति को लेकर नहीं अथ को लेकर है।’ इसे उन्होंने स्पष्ट किया। लक्ष्य साफ है। प्रश्न है कि उसे पाने के लिए शुरूआत कैसे करें।

उनका सुझाव था कि हमें ऐसे नारे लगाने बंद करना चाहिए जिससे भय का वातावरण समाप्त हो। उन्होंने डा. एम.आर जयकर के संशोधन का समर्थन एक दूसरे आधार पर किया। उनका मत था कि कानूनी प्रश्न को आधार बनाकर निर्णय करना उचित नहीं होगा। ‘यह कानूनी समस्या है ही नहीं। हमें ऐसा प्रयत्न करना चाहिए जिससे वे लोग (मुस्लिम लीग) जो नहीं शामिल हैं, शामिल हो जाए।’ उन्होंने श्रीकृष्ण सिन्हा और डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के उठाए सवालों पर कहा कि वे गंभीर सवाल हैं। डा. अंबेडकर का मत था कि पंडित नेहरू के प्रस्ताव का ‘यह परिणाम होगा कि मुस्लिम लीग (संविधान सभा से) बाहर ही रह जाएगी।’ इतिहास गवाही दे रहा है कि डा. अंबेडकर का अनुमान सही निकला।

पंडित नेहरू के प्रस्ताव का तीसरा पैरा भारत की संघीय व्यवस्था का खाका था। जिसमें राज्य स्वतंत्र होते और उनका संघ होता भारत। इसे जिस स्पष्टता से डा. अंबेडकर ने देखा वैसा दूसरा कोई नहीं देख सका। डा. अंबेडकर ने कहा कि इसे मंजूर करने से संविधान सभा एक आदेष मूलक प्रस्ताव स्वीकार करेगी। जो मजबूत केंद्र के लिए बाधक बनेगा। उन्होंने स्पष्ट किया कि ‘मैं एक दृढ़ और संयुक्त केंद्र चाहता हूं।’ उन्होंने आरोप लगाया कि इस प्रस्ताव से ‘कांग्रेस स्वयं दृढ़ केंद्र को विघटित करने पर राजी हो गई है।’ श्रीकृष्ण सिन्हा ने प्रश्न पूछा था कि यह प्रस्ताव मुस्लिम लीग को संविधान सभा में आने से कैसे रोकता है। इस पर डा. अंबेडकर ने कहा कि ‘इस प्रस्ताव के तीसरे पैरे से मुस्लिम लीग अवश्य लाभ उठाएगी और अपनी अनुपस्थिति औचित्य दिखाएगी।’ उन्होंने एक यक्ष प्रश्न रखा कि ‘क्या प्रस्ताव को पास करना बुद्धिमानी और नीतिज्ञता की बात होगी?’ इसका उन्होंने उत्तर भी दिया कि ‘ऐसा करना बुद्धिमत्ता और नीतिज्ञता के विपरीत है।’

उस समय बड़ा प्रश्न यही था कि मुस्लिम लीग से संबंध कैसे बने और किस तरह उसे संविधान सभा में आने पर राजी किया जाए? वह असाधारण प्रश्न था। उसे उसी गंभीरता से ग्रहण करना चाहिए, यही भाव डा. अंबेडकर संविधान सभा में पैदा करना चाहते थे। वे कांग्रेस नेतृत्व से जिस तरह अपील कर रहे थे उसे आज देखें तो उसका महत्व समझ में आता है।  उन्होंने कहा कि ‘कांग्रेस और मुस्लिम लीग के झगड़े को सुलझाने  के लिए एक और प्रयास करना चाहिए। यह मामला इतना संगीन है कि इसका फैसला एक या दूसरे दल की प्रतिष्ठा के ख्याल से ही नहीं किया जा सकता। जहां राष्ट्र के भाग्य का फैसला करने का प्रश्न हो, वहां नेताओं, दलों तथा संप्रदायों की शान का कोई मूल्य नहीं रहना चाहिए। वहां तो राष्ट्र के भाग्य को ही सर्वोपरि रखना चाहिए।’ यह कहकर उन्हें एक स्पष्टीकरण देने की जरूरत महसूस हुई।

ऐसा करते हुए जो भी वे बोले वह हमारे इतिहास में पत्थर की अमिट लकीर बन गई है। जिसे संविधान सभा की कार्यवाही में कोई भी पढ़ सकता है। वह  समझते थे कि कांग्रेस जल्दीबाजी कर रही है। इसलिए उसे सावधान किया। बोले- ‘मुझे तीन ही रास्ते दिखाई देते हैं। पहला कि एक दल दूसरे की इच्छा के सामने आत्म समर्पण कर दे। दूसरा कि विचार- विनिमय से समझौता कर ले। तीसरा कि खुलकर लड़ाई की जाए।’ उन्होंने विचारक और राजनेता एडमंड बर्क के भाषण का हवाला देकर तीसरे विकल्प के खतरों से संविधान सभा को सावधान किया। अमेरिकी क्रांति होने तक बर्क ने संसद से लगातार अनुरोध किया था कि उसे अमेरिकी उपनिवेशों के प्रति नरम रवैया अपनाना चाहिए। उसी भांति डा. अबंडेकर भी कांगे्रस के नेताओं से अपील कर रहे थे। आखिर में उन्होंने बर्क का एक वाक्य दोहराया-‘शक्ति देना तो आसन है पर बुद्धि देना कठिन है।’ इस वाक्य की तर्ज पर उन्होंने कहा-‘हम अपने आचरण से यह प्रमाणित कर दें कि अगर संविधान सभा ने सर्वोच्च सत्ता जबर्दस्ती अन्याय पूर्वक ले ली है तो वह उस सत्ता का प्रयोग बुद्धिमानी से करेगी।’ क्या ऐसा ही हुआ?

 

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