लोकतंत्र के लिए घातक होगा “कांग्रेस मुक्त भारत”

शिवेंद्र सिंहसन् 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा द्वारा ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा उछाला गया. जनता के समर्थन से कांग्रेस पराजित हुई, सिमटी, किंतु मिटी नहीं. आज आठ सालों के बाद स्थिति थोड़ी अलग हैं. वो नारा काफ़ी हद तक यथार्थ में परिणित होता दिख रहा है. स्वतंत्रता आंदोलन के विरासत की उत्तराधिकारी एवं विगत छः दशकों तक सत्ता का केंद्र रहने वाली कांग्रेस इससे पूर्व 1967 एवं 1977 में भी बुरे दौर से गुजरी है. लेकिन तब भी कांग्रेस में उम्मीद नहीं मरी थीं. वर्तमान परिस्थितियां भिन्न हैं. इस समय कांग्रेस पतनशीलता की ओर अग्रसर है तथा भविष्य में उसके के पुरुत्थान की संभावना भी क्षीण हैं. कांग्रेस की इस दशा तक पहुंचने में कई कारक उत्तरदायी हैं, जिनमें सर्वप्रमुख है वंशवाद. ओशो कहते हैं, “सिर्फ विश्वास के सिवाय और कोई दीवार नहीं है.” यह विश्वास कि, कांग्रेस और नेहरू-गाँधी परिवार को एक दूसरे का पर्याय है, ही कांग्रेस के दुर्दशा का मुख्य कारण है.
 आज भी कांग्रेस नेहरू-परिवार की चौथी पीढ़ी की विरासत बनी हुई है.लेकिन पिछले दो दशकों के अनुभवों ने देश को यह दिखा दिया कि राहुल गांधी में नेतृत्व की योग्यता नहीं है. नेहरू परिवार से एक उम्मीद प्रियंका गाँधी को समझा जा रहा था, लेकिन पिछले पांच वर्षों की उनकी प्रत्यक्ष राजनीतिक प्रतिभाग एवं उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव परिणाम को देखकर लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व के लिए वे भी सही विकल्प नहीं हैं. परन्तु मूल प्रश्न है कि कांग्रेस इसे कब स्वीकार करेगी? इस देश में व्यक्ति पूजक भावना इतनी प्रबल है कि वह किसी व्यक्ति या घटना के सामान्य गुण- दोषों की विवेचना से भी आहत होने लगती है. भारत अब एक गणतांत्रिक राष्ट्र है ना कि कोई राजतंत्र, यह बात राजनीतिक दलों को छोड़ पूरे देश को समझ आ चुकी है. वंशवाद की अपीलों का दौर बीत चुका हैं. कांग्रेस नेताओं को ये समझना होगा कि नेहरू परिवार कांग्रेस की वज़ह से है, कांग्रेस नेहरू परिवार की वजह से नहीं. कांग्रेस को वंशवाद की छाया से बाहर आने ही पड़ेगा. नेहरू-परिवार भारतीय राजनीति का हिस्सा रहे ना रहे लेकिन कांग्रेस रहनी चाहिए.
 कांग्रेस से नेताओं के हुए व्यापक पलायन के कई पहलू हो सकते हैं. कुछ नेता अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के चलते भी पलायन कर सकते हैं. किंतु इसमें भी एक सामान्य बात यह है कि इस निरंतर पलायन के लिए परोक्षतः वंशवाद ही उत्तरदायी है. पार्टी छोड़ने वाले ज्यादातर नेताओं ने स्वयं के साथ शीर्ष नेतृत्व के अपमानजनक व्यवहार की बात कही है. स्पष्ट सत्य यही है कि जनप्रिय एवं क्षेत्रिय कद्दावर नेताओं कों सिर्फ इसलिए निपटाया गया ताकि भविष्य में नेहरू परिवार के वंशजों के लिए चुनौती ना रह सके, परन्तु इसका दुष्परिणाम ये हुआ कि बाद में इन्हीं नेताओं ने अपने-अपने राज्यों में कांग्रेस की क़ब्र खोद दी. बीता दशक ऐसे उदाहरणों से पटा है.
  जगनमोहन रेड्डी अपने पिता की असामयिक मृत्यु के पश्चात् महत्त्वकांक्षी अवश्य दिख रहे थे किंतु यह भी स्पष्ट था कि आंध्र प्रदेश में जनसमर्थन उनके पक्ष में था, फिर भी उन्हें यथेष्ट सम्मान नहीं मिला. नतीजतन उन्होंने अलग पार्टी बनाकर ना सिर्फ राज्य की सत्ता हथियायी बल्कि कांग्रेस को भी ध्वस्त किया. हेमंत सरमा, जिन्हें असम में जननेता माना जाता है, ज़ब कांग्रेस उपाध्यक्ष से मिलने आये तो उनकी बात सुनने के बजाय वे अपने कुत्ते के साथ खेलते रहे. इससे आहत और अपमानित सरमा ने भाजपा की सदस्यता ले ली और आज असम के लोकप्रिय मुख्यमंत्री हैं.
 यही नहीं बल्कि अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू, मणिपुर के मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह ही नहीं नागालैंड में भाजपा गठबंधन के मुख्यमंत्री नेफियू रियो भी पूर्व में कांग्रेसी ही हुआ करते थे. निकट ही त्रिपुरा के मुख्यमंत्री बने डॉ. माणिक साहा भी कांग्रेस से ही आये हैं. एक तरह से पूर्वोत्तर में भाजपा की सत्ता खड़ी करने में भूतपूर्व कांग्रेसी क्षत्रपों का ही सबसे बड़ा योगदान हैं. अन्य राज्यों में भी देखें तो ऐसे उदाहरणों की सूची लंबी है. पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह, मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया, पंजाब में सुनील जाखड़, उत्तर प्रदेश में जितिन प्रसाद एवं आरपीएन सिंह आदि जो कांग्रेस छोड़ भाजपा के साथ खड़े है.
कांग्रेस की समस्याओं का दायर विस्तृत है. सांगठनिक मोर्चे पर भी पार्टी संघर्ष कर रही है. राजस्थान, उत्तराखंड एवं छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों को छोड़ दें तो देश में कांग्रेस का सांगठनिक ढांचा बुरी तरह ध्वस्त हो चुका है. केंद्रीय नेतृत्व की अक्षमता, राज्य स्तरीय नेतृत्व के पलायन एवं स्थानीय नेतृत्व के अकर्मण्यता ने सांगठनिक क्षमता के पुनरुत्थान की संभावना को दुष्कर बना दिया है.
कांग्रेस में या तो योग्य नेतृत्व का अभाव है या वह चाहती ही नहीं कि प्रबुद्ध एवं जनाधार वाले नेता उसका प्रतिनिधित्व करें. एक तरफ उसके नेता उदित राज एवं आचार्य प्रमोद, जो आये दिन टीवी डिबेट के दौरान तर्कहीन बातें करने लगते हैं तो दूसरी तरफ दिग्विजय सिंह के विवादित बयान पार्टी को असहज करते रहे हैं. यूपी विधानसभा चुनाव में समर्पित कार्यकर्त्ताओं को छोड़कर पार्टी द्वारा हस्तिनापुर से ‘बिकनी गर्ल’ को उम्मीदवार बनाना उसके वैचारिक दिवालियेपन का उदाहरण है. यकीन करना कठिन है कि ये वही कांग्रेस है जिसका प्रतिनिधित्व कभी लोकमान्य तिलक, महात्मा गाँधी आचार्य कृपलानी, राजेंद्र प्रसाद, सरोजिनी नायडू, सुचेता कृपलानी एवं जेपी जैसे जननायक करते थे. वास्तव में यह कांग्रेस के लिए ‘तसव्वुर की कंगाली का दौर’ है. या तो कांग्रेस के रणनीतिकारों ने पार्टी के भविष्य के लिए सोचना छोड़ दिया है या वे अपनी प्रतिद्वंदी भाजपा के सामने मैदान खुला छोड़ देना चाहते हैं.
  कांग्रेस को सबसे ज्यादा नुकसान वैचारिक दिग्भ्रमित होने से हुआ है. पार्टी ने पिछले दो दशकों में राजनीतिक एवं सामाजिक मुद्दों पर नितांत एकांगी राय बना रखी है. या तो वह जनता का मिजाज नहीं भाप पा रही है या उसे समझना नहीं चाहती है. समस्या यहां भी हुई ज़ब धार्मिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर कांग्रेस ने अपना समर्थन एवं विरोध चयनित रूप से प्रकट किया. शाहबानो मामले (1986) में कांग्रेस ने जो गलती की, उसे रामसेतु या सेतुसमुद्रम प्रोजेक्ट (2005) तक लगातार दुहराती आयी. उदाहरणार्थ, धारा 370, सर्जिकल स्ट्राइक, पाकिस्तान के साथ विवाद, राम मंदिर, ज़ेएनयू में लगे राष्ट्रविरोधी नारे का मसला आदि. इसका लाभ आसानी से भाजपा ने उठाया. कांग्रेस तुष्टिकरण की राह पर रही है, इसे अस्वीकार करना सत्यता से आँखें मूंद लेना है. कांग्रेस को अपने चयनित विरोध या चुप्पी की नीति को त्यागकर समर्थन या विरोध के निरपेक्ष नीति को अपनाने की दिशा में बढ़ना चाहिए.
 हालांकि कांग्रेस अभी भी आत्म-साक्षात्कार को तैयार नहीं है. उसकी आत्ममुग्धता का आलम ये है कि अपनी पराजय और पतन के लिए वह सिर्फ भाजपाई राजनीति को दोषी मान रही है. आत्ममंथन के नाम पर आयोजित किए गए कांग्रेस शिविर मात्र अपनी गलतियों पर लीपापोती का प्रयास है. नीत्शे’ लिखते हैं, “तुमने अपने को नहीं खोजा था, इसलिए मुझे पाया था. यही तो हर आस्थावान करता है, इसलिए आस्था का कोई मूल्य नहीं.” कांग्रेस जिस अँधेरे से गुजर रही है, वह उसका प्रारब्ध नहीं होना चाहिए. कांग्रेस अपनी ही आस्था की यूटोपिया में डूबी हैं और चाहती है कि देश भी उसे स्वीकार कर ले. ख़ैर यह तो हुई कांग्रेस की खामियों की बात लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है.
 लोकतंत्र में भावना का उफ़ान, संवेदना की अपीलें तथा आस्था एवं विश्वास की युति-वियुति अकसर उसके स्थायी मूल्यों व लक्ष्यों को आच्छादित कर लेते हैं. तर्कहीन समर्थन की भावना से सम्मोहित जनता यह देख ही नहीं पाती कि सत्तासीन व्यक्ति या दल के प्रति अंधभक्ति के कारण वह अपने साथ राष्ट्र के भविष्य को अंधी गली में धकेल रही होती है. कांग्रेस या विपक्ष मुक्त भारत का नारा लगा रहा उत्साही वर्ग ये नहीं समझ पा रहा कि वह स्वयं अपनी स्वतंत्रता के साथ गणतंत्र की प्रगति के मार्ग भी बंद कर रहा है. उसे यह समझना होगा कि जिस दिन भारत विपक्ष मुक्त होगा उसी दिन वो लोकतंत्र मुक्त भी हो जाएगा.
 
  जम्हूरियत के मूलभूत मूल्यों में सशक्त विपक्ष का होना तथा विरोध एवं अभिव्यक्ति की निर्बाध स्वतंत्रता प्राथमिकता है, जबकि एकाधिकारवादी दल एवं एकांगी सत्ता के दौरान इन मूल्यों का क्रमशः क्षय होता जाता है. चाहे राष्ट्र के एक बड़े वर्ग के समर्थन से ही सही, लेकिन ज़ब कोई सत्ता दृढ़ होती जाती है तो समय के साथ वह व्यवहार में अहंकारी तथा अधिनायकवादी होती जाती है. आज देश का एक बड़ा वर्ग यह नहीं समझ रहा है कि अपने वैचारिक प्रतिद्वंदी को समाप्त करने के लिए सत्ता के जिस अहम्मन्यता तथा सर्वाधिकारवाद को प्रश्रय दे रहा है वह ऐसी दोधारी तलवार है जिसकी चोट कभी न कभी उसके समर्थकों पर भी पड़ती है. आस्थायुक्त जनसमर्थन किसी भी सत्ता को अपनी आलोचना के प्रति असहिष्णु बना देता है. आगे चलकर ऐसी सत्ता किसी भी राष्ट्र या समाज के लिए विध्वंसकारी बनने लगती है. आज अगर जनसमर्थन की शक्ति के बल से सत्ता विपक्ष को समाप्त कर दे तो कल जनप्रतिरोध की आवाज भी ऐसे ही दबा दी जाएगी. अतः भारतीय गणतंत्र के लिए भी यह उपयुक्त ही नहीं आवश्यक भी है कि कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल समेत देश में एक मजबूत प्रतिपक्ष का वजूद बना रहे.
 शचीन्द्र नाथ सान्याल अपनी आत्मकथा ‘बंदी जीवन’ में लिखते हैं, “इतिहास का प्राण होता है जजमेंट-निर्णय. इस जजमेंट (निर्णय) के बिना इतिहास खाली घटना- पंजिका रह जाता है.” यह न्याय निर्णयन का यक्ष प्रश्न किसी भी राजनीतिक दल या राजनेता के बजाय जनता के लिए ज्यादा आवश्यक है, क्योंकि लोकतंत्र की प्राथमिकता प्रहरी और अभिभावक वही है. अगर अपने 70 सालों से अधिक के लोकतंत्र की यात्रा में भी जनता ने लोकतांत्रिक मूल्यों को आत्मसात नहीं किया है तो उसे सर्वप्रथम स्वयं की नैतिकता से प्रश्न करने की जरुरत है. किसी भी राजनीतिक दल या राजनेता के बजाय इस समय आत्ममंथन की सबसे बड़ी आवश्यकता भारतीय जनता को है क्योंकि लोकतंत्र के इतिहास के न्याय निर्णयन के कटघरे में सर्वप्रथम वही खड़ी होगी, कल इतिहास उसे ही अपराधी समझेगा इसलिए जनता जवाबदेही से नहीं बच सकती . इस मोड़ पर जनता के निर्णायक मनोभाव की महती आवश्यकता है.

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