सांप्रदायिकता के भंवर में समाजवाद

पांच राज्यों के चुनाव परिणामों में सर्वाधिक चर्चा उत्तर प्रदेश की हो रही है, कारण कम्युनिस्ट दलों के पतन के बाद वामपंथ की आखिरी उम्मीद समाजवाद पर टिकी है. इस चुनाव में समाजवाद की पताका सपा ने थाम रखी थी, लेकिन वो उसे धूल- धूसरित होने से नहीं बचा पायी. समाजवादियों समेत सारे वामपंथी परिणामों के लिए भाजपा के धार्मिक ध्रुवीकरण के नारे, इवीएम के साथ ही जनता समझ पर लानत- मलानत भेजने में लगे है. किंतु स्वयं के सैद्धांतिक पहलू के सबसे बड़े दोष पर चर्चा करने को तैयार नहीं है.
   सैद्धांतिक रूप से ‘समाजवाद’ साम्यवादी समाज की स्थापना से पूर्व किंतु क्रांति के बाद के उस अंतरिम काल को कहा जाता है जिसका प्रबंधन सर्वहारा के अधिनायकवाद द्वारा किया जाता है. समाजवाद धर्म के प्रति मूलतः निरपेक्ष तथा ‘सांप्रदायिकता’ के प्रति  नकारात्मक रुख रखता है. ‘सांप्रदायिकता’ ऐसी वैचारिक प्रणाली है जो यह स्वीकार करती है कि किसी राष्ट्र या समाज में स्थित विभिन्न धार्मिक समुदायों के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक हित सर्वथा भिन्न – भिन्न है. इसे यूं भी परिभाषित किया जा सकता है, ‘किसी धार्मिक या पंथिक समुदाय के दुराग्रही एवं अनर्गल मांगों को राष्ट्र एवं अन्य धार्मिक समुदाय के हितों पर प्राथमिकता देना, सांप्रदायिकता हैं. सांप्रदायिकता को सबसे बड़ा संबल धर्म के राजनीतिकरण से मिलता है. ये सभी सैद्धांतिक बातें हैं, यथार्थ यह है भारत में समाजवाद कुछ अलग प्रकार का है. यहाँ समाजवाद की मूल राजनीति ही सांप्रदायिक है. यह वर्तमान समाजवादी राजनीति का सबसे दुःखद पहलू रहा हैं.
   पी. गार्डिनर लिखते हैं, “वर्तमान के संदर्भ में अतीत की गवेषणा का अभिप्राय ही ऐतिहासिक स्पष्टीकरण है.” अंग्रेजों से आजादी के दौरान अलगाववादी माँगों के समर्थन में सनातन समाज के नरसंहार में लिप्त ‘भोले- भाले, मासूम, और डरे हुए’ मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग अलग देश पाने के बाद भी भारत में रुक गया. अगले दो दशकों तक ये ‘डरे और मासूम’ अपनी बेचारगी दिखाते रहे. लेकिन फितरत वही बनी रही जो अनुकूलता के लिए प्रतीक्षारत थी.
 1970 के दशक में देश की राजनीति पतन की ओर बढ़ने लगी. अब राष्ट्र नहीं बल्कि सत्ता हथियाना और उस पर काबिज़ रहना ही प्राथमिकता बन गयी. ऐसी राजनीतिक परिस्थितियों के लिए ‘कोर वोट बैंक’ एक मूलभूत आवश्यकता है, जिसके लिए पहली पसंद थे मुसलमान. इनको अपने पाले में करने के तुष्टिकरण की प्रक्रिया शुरू हुई. राजनीति के इस क्षद्र मनोदशा कों भाँपकर ही 1980 के साधारण निर्वाचन से इन ‘तथाकथित’ धार्मिक-अल्पसंख्यकों ने आक्रामक तौर पर ऐसी माँगे रखनी शुरु कीं जो ना सिर्फ संविधान की मूल भावना के अनुरूप थीं बल्कि देश की सर्वोच्च अदालत के निर्णयों का भी अनादर करतीं थीं.
  90 के दशक में उदारीकरण की आंधी ने समाजवाद के आभामण्डल कों बुरी तरह क्षतिग्रस्त कर दिया. इसकी एक वजह समाजवाद खुद भी था, क्योंकि उसने बाजारवाद- पूँजीवाद को मिटा डालने की जितनी गर्जना की हो पर यथार्थ में उसके विरुद्ध प्रभावी संघर्ष नही कर पाया. ज़ब समाजवाद अपने मूल ध्येय गरीबी, वंचना, समानता के लिए सार्थक सिद्ध नहीं हो पाया तो अपनी प्रासंगिकता को बनाये रखने के लिए उसने एक आसान विकल्प के रूप में धार्मिक- पंथिक विवादों का मार्ग चुना. 90 के दशक से समाजवाद ने अपनी सारी शक्ति दक्षिणपंथ के कल्पित सांप्रदायिकता के विरुद्ध क्षय की.परन्तु उससे भी अधिक ऊर्जा उसने अल्पसंख्यक तुष्टिकरण में लगा दी. कुछ उदाहरण देखिये, समाजवाद के अग्रणी योद्धाओं की पार्टी कांग्रेस (आई) एवं जनता दल ने  दसवीं लोकसभा चुनाव (सन् 1991) में जो घोषणा पत्र निकाला था, उसमें इन तथाकथित अल्पसंख्यकों के लिए नौकरियों और सैन्य बलों में आरक्षण देने का वादा किया था. 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में समाजवाद की ढोल बजाने वाले दलों ने पुनः अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने की बात की. भले ही इस आरक्षण के लिए पिछड़े और दलितों के हितों में कटौती करनी पड़ जाए.
  समाजवाद को ये भी गलतफहमी है कि उनके आंदोलन ने जनसंघ (अब भाजपा) के उत्कर्ष की पृष्ठभूमि उपलब्ध कराई. ज़ब वामपंथी ‘गिरोह’ जेपी आंदोलन के दौरान दक्षिपंथी समूहों और दक्षिणपंथी विचारधारा के उत्कर्ष की बात करते हैं. तब वे इतिहास की एक पक्षीय व्याख्या कर रहे होते हैं. सत्य तो यह हैं कि उनका ही एक बड़ा समूह (बुद्धिजीवी, नेता, सामाजिक कार्यकर्ता) आपातकाल का प्रतिरोध करने से ना केवल पीछे हट गये, बल्कि इसका समर्थन करते हुए इसे लोकतंत्र के ‘अनुशासन पर्व’ की संज्ञा दी. वैसे यह तानाशाही सत्ता भी समाजवादी हीं थीं. इस अधिनायकवाद की प्रवर्तक ‘खानदानी समाजवादी’ थीं जिन्होंने स्वयं को उत्कृष्ट समाजवादी भक्त साबित करते हुए संविधान की प्रस्तावना तक को संशोधित करवा डाला.पेरिस में प्रगतिशील साहित्यकारों के सम्मेलन में फ्रांसीसी कवि और उपन्यासकार ‘अरागो’ ने कहा था, “एक कलाकार के लिए सोशलिज़्म की तरफ भावनात्मक तरीके से आना एक प्राकृतिक प्रभाव है. लेकिन अगर वह शीघ्र ही साम्यवाद की बौद्धिक और क्रियात्मक बुनियादें मजबूत ना कर ले तो किसी भी जटिल और नाजुक ऐतिहासिक अवसर पर वह प्रतिक्रियावाद के दलदल में फँस सकता है.” दुर्भाग्यवश अरागो सही साबित हुए. जब स्वघोषित प्रगतिशील वर्ग जनतंत्र से दग़ा कर अधिनायकवादियों के चरणों में लोटने लगा. तब इस संघर्ष की कमान इन्हीं राष्ट्रवादियों ने संभाली जिन्हें दक्षिणपंथी कहा जाता है. अतः आपातकाल के दौरान दक्षिणपंथ ने संघर्ष की कमान छल से नहीं हथियायी थी बल्कि तानाशाही के सामने लोकतंत्र को निढाल छोड़कर भाग खड़े होने वालों के बाद नेतृत्व संभाला था. इसलिए कम से कम ‘वाम सरगनाओं’ के पास आलोचना का नैतिक आधार नहीं है. अरस्तु कहते है, ‘प्रकृति क़ो खाली जगह पसंद नहीं होती’. ज़ब समाजवाद वंचितों के प्रति अपनी घोषित जिम्मेदारी से पीछे हटा तो उसकी जगह ‘दक्षिणपंथ’ ने ले ली.
   इसमें कोई शक नहीं कि आजादी के बाद सीमा से परे धर्म विशेष का तुष्टिकरण किया गया. समाजवाद आज भी वही गलती कर रहा है जो स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान गाँधी जी और कांग्रेस ने की. इन्होंने सनातन समाज से हर बार त्याग की माँग की, लेकिन कभी दृढ़ता से इस्लामियों से कुछ नहीं माँगा. युगपुरुष बाबा साहब आंबेडकर ने इसी मुद्दे पर गाँधी जी की कटु आलोचना अपनी किताब ‘ थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ में की है. अल्पसंख्यक अधिकारों के समर्थक होने का ये अर्थ नहीं कि उनके उनके अनुचित माँगो, कट्टरता एवं सांप्रदायिकता भावना का मुखर अथवा अवसर अनुकूल मौन समर्थन किया जाए. लोकतंत्र में सत्ता का लोभ सत्य कहने का साहस नष्ट कर देता है, परन्तु यह सर्वभौमिक सत्य नहीं है. विख्यात समाजवादी राममनोहर लोहिया ज़ब लिखते हैं कि, ‘भारत अकसर अपनी अल्पजातियों मुस्लिम, क्रिस्तान और पारसी की सुरम्य आखेट-भूमि जैसा लगा है और हिन्दू जिन्हें और कहीं जाना नहीं है, कभी-कभी ऐसा लगता है, जैसे उन्हें अपने ही घर से निकल दिया गया हो. कभी- कभी ऐसा लगा कि भारत हिन्दुओं के अलावा और दूसरे सबों का है.’ (भारत विभाजन के गुनहगार, पृष्ठ-51) अथवा, “अपने पूर्वजों की सतत् नपुंसकता के दुख से मैं सदा ही दबा रहा हूँ. हमें यह भी नहीं भूलना है कि अधिकांश मुसलमान पहले के हिन्दू हैं.”(वहीं, पृष्ठ-52). इसका अर्थ ये तो नहीं कि वे दक्षिणपंथ या सांप्रदायिकता क़ो प्रश्रय दे रहे थे बल्कि वे सत्य कहने का साहस रखते थे.
   समाजवाद अगर अपने सिद्धांतों के प्रति दृढ़ था तो उसे सांप्रदायिक एवं धार्मिक कट्टरपंथियों के विरुद्ध दृढ़ता से खड़ा हो जाना था. समाजवादी खड़े तो हुए, लेकिन चुनिंदा तरीके से. उदाहरणस्वरुप ज़ब समाजवादी अहमदाबाद दंगों के विरुद्ध आवाज़ उठा रहे थे तब उन्हें गोधरा कांड की भी भर्तस्ना करनी चाहिए और वो भी अधिक सख़्ती के साथ, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अगर एक पक्ष गलत था तो इसका कारण दूसरे पक्ष की उन्मादी सांप्रदायिकता ही थी. अन्यत्र ज़ब एक प्रतिनिधि (प्राक्सी) प्रधानमंत्री, जो समाजवादियों के सहयोग से पदासीन था, लोकतंत्र के मंदिर में यह कहता है कि, देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है, तब वंचितों, दलितों, आदिवासियों के अधिकार के स्वयंभू रक्षक समाजवादियों की चुप्पी को समझ पाना कठिन है. सनातनियों की तथाकथित ‘डरे-सहमे’ अल्पसंख्यक द्वारा क्रूरतापूर्वक लिंचिंग इन्हें कभी विरोध का विषय नहीं लगा. सनातन समाज की बेटियां ‘लव- जिहाद’ के नाम पर शारीरिक शोषण और नृशंस हत्या का शिकार बनी, जिसके हज़ारों मामले पिछले एक दशक में देश के विभिन्न भागों के थानों में दर्ज है, लेकिन समाजवाद सोता रहता है. उसकी तंद्रा तो किसी अल्पसंख्यक को खरोंच आने पर ही टूटती है. फिर इस देश का संविधान, सनातन समाज सब पर लानत भेजने की रुदाली शुरू हों जाती है. स्पष्ट कहें तो ‘चयनित मौन और चयनित क्रोध,'(तुष्टिकरण) ने समाजवाद क़ो पतन की ओर धकेला है.
  इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि देश में अल्पसंख्यकों को भी कही- कही विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ता होगा जो अनुचित है. लेकिन पंथनिरपेक्षता के अलम्बदार होने के नाते संवेदना और आक्रोश एकपक्षीय नहीं होना चाहिए थी. यहीं नहीं, अब तो समाजवाद सनातन समाज को उकसाने पर उतर आया हैं. उत्तर प्रदेश के समाजवादी राजकुमार अपने चुनाव प्रचार में जिन्ना की महानता का गुणगान कर रहे थे.जौहर विश्वविद्यालय के आजीवन कुलपति महोदय (भू-माफिया), जिन पर स्वयं उन्हीं के सहपंथियो ने मुक़दमे दर्ज करा रखे हैं, के ऊपर कानूनी कार्यवाही को मुसलमानों पर अत्याचार बताना जैसे कृत्य उकसावे का प्रयास ही लगता है. यथार्थ यही हैं कि इस देश को धार्मिक संघर्ष की ओर दिनोंदिन धकेलने के सबसे बड़े दोषी यही वामपंथी बौद्धिक – राजनीतिक वर्ग (समाजवादियों एवं छद्म गाँधीवादियों समेत) हैं. आज सबसे ज्यादा सांप्रदायिक ताकतें एवं उनके अलम्बदार समाजवादी हैं. समाजवादी ये भले ही सार्वजानिक रूप से स्वीकार ना करें लेकिन इस्लामी कट्टरता को मजबूत करने में उनका भी प्रत्यक्ष योगदान है. वस्तुस्थिति यह है कि दक्षिणपंथ के ‘तथाकथित साम्प्रदायिकता’ (तुष्टिकरण -विरोध) का विरोध करते-करते समाजवाद स्वयं सांप्रदायिक हो गया है.
    हालांकि यह भी सत्य है कि समाजवाद के सांप्रदायिकता के पक्षधर होने और तुष्टिकरण की नीति ने ही उसे अल्पसंख्यकों के मध्य प्रासंगिक बनाये रखा है. आज उसके समर्थक वर्ग में सबसे बड़ा आधार यही है. कम से कम चुनाव परिणाम के मत प्रतिशत तो यही दर्शाते हैं. इसके प्रतिक्रियास्वरुप धीरे- धीरे देश का बहुसंख्यक समाज भी दक्षिणपंथ की ओर आकर्षित एवं एकजुट होता जा  रहा है. ज़ब धर्म और संस्कृति का अस्तित्व संकट में हो तब उसके रक्षार्थ दुनिया की सबसे सभ्य, अहिंसक़ और सहिष्णु जाति भी सन्नद्ध हो जाती है और सनातन समाज भी अब उत्तरोत्तर इसी दिशा में अग्रसर है. गनीमत है कि अभी भी सनातन समाज ने अपने सम्मान की रक्षा के लिए लोकतान्त्रिक मर्यादाओं को लाँघा नहीं हैं, वरना समाजवाद एवं छद्म गाँधीवाद की आड़ में संचालित जिहाद कब का मिट गया होता.
  स्वामी विवेकानंद कहते हैं, “कोई भी समाजवादी सभ्यता, जो धर्म पर अथवा मनुष्य के भीतर के शुभ पर आधारित ना हो स्थायी नहीं हो सकती.” (विवेकानंद साहित्य, खंड 4 पृष्ठ 243) और यथार्थ  यही है कि दिनोंदिन सांप्रदायिक वर्ग के साथ दुरभीसंधि में शामिल होकर समाजवाद सनातन समाज के लिए अशुभ बनता गया है. संभवतः इसी छद्म समाजवाद से कुपित होकर पूर्व सर संघचालक बाला साहब देवरस ने कहा था, “जो सदा से यह मानते आए हैं कि ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे भवन्तु निरामया:, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मां कश्चित् दुख: प्राप्युनात्’ और जो गीता के मंत्र ‘सर्व भूत हिते रता:’ का पालन करते हैं, ऐसे हिंदुओं को सोशलिज्म सिखाने की जरूरत नहीं है.”( 4 मार्च 1979 को दिल्ली के रामलीला मैदान में भाषण: पांचजन्य, 11 मार्च 1979) 
    ऋग्वेद में कहा गया है,
सामानो मंत्र: समिति: समानी समानं मनं सह चित्तमेषामl
समानी व आकृति: समाना ह्रदयानिवःl
समानमस्तु वो मनः यथा वः सुसहासतिl
अर्थात् ” समान मंत्र, समान समिति, समान मन, समान सबकी प्रेरणा, समान सबके ह्रदय, समान सबके मानस, समान सबकी स्थिति……”

समाजवाद किसी धार्मिक पंथ कि तुष्टि से कहीं बढ़कर आखिरी पायदान पर खडे व्यक्ति का दर्शन बने, यही  समाजवाद की सही पहचान होनी चाहिए जिसे अभी समाजवाद को समझना है अन्यथा नियति बड़ी निष्ठुर है.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Name *