आमजन का राम से रिश्ता दशहरा में नये सिरे से जुड़ता है। रामलीला एक लोकोत्सव है जिसमें राम की जनपक्षधरता अभिव्यक्त होती है। राजा से प्रजा, फिर वे नर से नारायण बन जाते हैं। सीता को चुरा कर भागने वाले रावण से शौर्यपूर्वक लड़ने वाले गीध जटायु को अपनी गोद में रखकर राम उसकी सुश्रुषा करते हैं, फिर उसकी अंत्येष्टि करते हैं जैसे वह उनका कुटुम्बीजन हो। रामकथा के टीकाकार जितना भी बालि के वध की व्याख्या करें, वस्तुतः राम का सन्देशा, उनकी मिसाल, असरदार है कि न्याय और अन्याय के बीच संघर्ष में तटस्थ रहना अमानवीय है। अपनी समदृष्टि, समभाव के बावजूद राम को वंचित और शोषित सुग्रीव प्यारा है। सत्ता पाकर सुग्रीव पम्पानगर के राज प्रसाद में रहते हैं मगर वनवासी राम किष्किंधा पर्वत पर कुटी बनाकर रहते हैं। कुछ ऐसा ही गांधी जी भी करते रहे। प्रवास में दिल्ली की भंगी कालोनी और लन्दन में श्रमिक बस्ती ईस्ट एण्ड इलाके में टिकते थे, अट्टालिकाओं से दूर।
सत्ता से युद्ध में राम ने वस्तुतः लोकशक्ति का प्रयोग किया। बजाय सामन्तों और सूबेदारों के, आमजन को भर्ती कर जनसेना संगठित की। ऐसी गठबंधन की सेना जो न सियासत में न समरभूमि में कभी दिखी है। विजय के बाद आभार ज्ञापन में वानरों से राम कहते हैं: ”तुम्हरे बल मैं रावन मारयो।“ वाहवाही लूटने की लेशमात्र भी इच्छा नहीं थी इस महाबली में। निष्णातों के आकलन में भारत को राष्ट्र का आकार राम ने दिया। सुदूर दक्षिण के सागरतट पर शिवलिंग की स्थापना की और निर्दिष्ट किया कि गंगोत्री के जल से जो व्यक्ति रामेश्वरम के इस लिंग का अभिषेक करेगा उसे मुक्ति मिलेगी। अब हिन्दुओं में मोक्ष प्राप्ति की होड़ लग गई, मगर इससे हिमालय तथा सागरतट तक भौगोलिक सीमायें तय हो गई।
चित्रकूट के भरतकूप में समस्त तीर्थों का जल डलवाकर भारतभूमि की भावात्मक एकसूत्रता को बलवती बनाया। आज अक्सर दावा पेश होता है देश में अनुसूचित जातियों और जनजातियों को राष्ट्र की मुख्यधारा में समाविष्ट करने के अभियान की। मगर भारतीय संविधान बनने के सदियों पूर्व, (तब वोट बैंक भी नहीं होते थे) वनवासी राम ने दलितों, पिछड़ों और वंचितों को अपना कामरेड बनाया, मसलन निषादराज गुह, और भीलनी शबरी। आज के अमरीका से काफी मिलती जुलती अमीरों वाली लंका पर रीछ-वानरों द्वारा हमला करना और विजय पाना इक्कीसवीं सदी के मुहावरें में पूंजीवाद पर सर्वहारा की फतह कहलायेगी। सभ्यता के विकास के विभिन्न चरणों का लेखा जोखा सर्वप्रथम परूशुराम की कुल्हाड़ी (वन उपज पर अवलम्बित समाज,) फिर धनुषधारी राम (तीर द्वारा व्यवस्थित समाज) और हल लिए बलराम (कृषि युग का प्रारम्भ) से निरूपित होता है।
लोगों को दर्द होता है जब जब राम को वोट से जोड़ने का प्रयास किया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय में रामसेतु पर संप्रग सरकार ने बेहूदा बयान दर्ज कराया कि राम काल्पनिक थे। नतीजे में कांग्रेस को माफी मांगनी पड़ी, जनता के सामने रोना धोना पड़ा, अदालत से बयान वापस लेना पड़ा। रामसेतु पर राजनीति शुरू से लंगड़ी थी। रेंग भी न पाई। हिन्दु-बहुल सरकार के हलफनामे की तुलना में तो मुसलमान साहित्यकारों के राम के मुतल्लिक उद्गार अधिक ईमानदार रहे। अल्लामा इकबाल ने कहा था कि, ”राम के वजूद पे है हिन्दोस्तां को नाज“। इस इमामे हिन्द पर शायर सागर निजामी ने लिखा, ”दिल का त्यागी, रूह का रसिया, खुद राजा, खुद प्रजा।“ मुगल सरदार रहीम और युवराज दारा शिकोह तो राम के मुरीद थे ही।
राम को आधुनिकता के प्रिज़्म में देखकर कहानीकार कमलेश्वर ने कहा था कि रामायण ब्राह्मण बनाम ठाकुर की लड़ाई है। (राही मासूम रजा पर गोष्ठी 20 अगस्त 2003: जोकहरा गांव, आजमगढ़)। यह निखालिस विकृत सोच है। यह उपमा कुछ वैसी ही है कि रावण और राम मूलतः पश्चिमी और पूर्वी उत्तर प्रदेश के थे तो यह पूरब-पश्चिम की जंग थी। रावण के पिता विश्वेश्रवा गाजियाबाद में दूधेश्वरनाथ मन्दिर क्षेत्र के निवासी थे। आजकल नोइडा प्रशासन इस पर शोध भी करा रहा है। भला हुआ कि अवध के राम और गाजियाबाद के रावण अब उत्तर प्रदेश में नहीं है, वर्ना राज्य के विभाजन के आंदोलन का दोनों आधार बन जाते। कमलेश्वर और उनके हमख्याल वाले भूल गये कि राम का आयाम उनके नीले वर्ण की भांति था। आसमान का रंग नीला होता है। उसी की तरह राम भी अगाध, अनन्त, असीम हैं। इसीलिए आम जन के प्रिय हैं।
के. विक्रम राव की किताब “जो जन-गण के मन बसे” से उद्धृत।