चीन से अपेक्षा क्यों

बनवारी

भारत और चीन के बीच कमांडर स्तर की सातवीं बैठक के बाद अब यह आशा क्षीण हो गई है कि दोनों देशों के बीच बातचीत से कोई रास्ता निकलने वाला है। पिछले कई महीनों से दोनों देशों की सेनाएं आमने-सामने बनी हुई हैं। चीन ने आरंभिक दौर की वार्ता में अपनी सेनाओं को गलवान घाटी के विवादित स्थानों से पीछे हटाने की बात मानी थी। अपनी बात पर टिकने के बजाय उसने 15 जून को विश्वासघात किया। चीनी सैनिकों ने बर्बरतापूर्वक भारतीय सैनिकों पर हमला किया, जिसमें 20 भारतीय सैनिक शहीद हो गए। उसके बाद से अब तक सैनिक, कूटनीतिक और राजनैतिक स्तर पर अनेक बार बात हो चुकी है। पहले चीन बातचीत जारी रखने के प्रति भी उत्साही नहीं दिखाई देता था, लेकिन जब से भारतीय सैनिकों ने चुशूल क्षेत्र की रणनीतिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण चोटियों पर अपने सैनिक तैनात किए हैं, चीन व्याकुल है।

उसके बाद से अब तक सैन्य स्तर पर जितनी भी बातचीत हुई है, उसमें चीन का एकमात्र उद्देश्य भारतीय सेना से यह चोटियां खाली करवाना रहा है। भारत की ओर से अनेक बार यह स्पष्ट किया जा चुका है कि यह तभी संभव है, जब चीनी सेना पूरे लद्दाख क्षेत्र में अप्रैल की स्थिति पर लौटने के लिए तैयार हो जाए। चीन बातचीत को चुशूल क्षेत्र में सीमित रखना चाहता है और उसमें वह पूर्वस्थिति स्वीकार करने के बजाय भारत पर पहले रणनीतिक महत्व की इन सभी चोटियों से हटने के लिए दबाव डाल रहा है। इससे स्पष्ट है कि चीन की सीमा पर तनाव घटाने में कोई वास्तविक रुचि नहीं है। परिणामस्वरूप सैनिकों को कठिन शीतकालीन परिस्थितियों में इन अग्रिम मोर्चों पर तैनात रहना पड़ेगा। अलबत्ता भारतीय सेना ने इसकी पूरी तैयारी की हुई है।

चीन में 1949 में कम्युनिस्ट शासन स्थापित होने के बाद से भारत और चीन के संबंध कभी मधुर नहीं रहे। भारत के प्रति चीन का वैमनस्य आरंभ में ही स्पष्ट हो गया था। जवाहर लाल नेहरू अपने वामपंथी दुराग्रहों के कारण इसे जानते हुए भी स्वीकार नहीं करना चाहते थे। उन्होंने तिब्बत पर चीन का आक्रमण होने दिया। देश के भीतर और बाहर सब ओर से मिलने वाली चेतावनियों के बावजूद चीन से आठ वर्ष के लिए पंचशील समझौता किया गया। लेकिन भारत की ओर से लगाए जाने वाले हिन्दी-चीनी भाई-भाई के नारों के बीच 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया। तिब्बतियों पर बर्बरतापूर्ण अत्याचार होते रहे। दलाईलामा निर्वासित होकर भारत में शरण लिए रहने को विवश थे। इस सबके बाद भी हमने चीन से सौहार्द की आशा लगा रखी थी।

केंद्र में 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद चीन से संबंध सुधारने की नए सिरे से कोशिश हुई और उसमें अग्रणी भूमिका अटल बिहारी वाजपेयी की थी। इस दूसरे दौर में सीमा पर अपेक्षाकृत शांति रही हो, पर दोनों देशों के संबंधों में कटुता और अविश्वास बना रहा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीन हमें घेरने में लगा रहा। वह पाकिस्तान को नाभिकीय शक्ति बनाने में और उन्नत हथियारों से संपन्न करने में अपनी पूरी भूमिका निभाता रहा। जबकि उसने अमेरिका और भारत के बीच हुए नाभिकीय समझौते के बाद भारत को नाभिकीय आपूर्ति समूह का अंग बनने में निरंतर बाधा डाली। वह सुरक्षा परिषद में भारत को शामिल करने का विरोध करता रहा। इसके अलावा वह दोनों देशों के बीच के व्यापार को अपने अनुकूल बनाए रखने के लिए अपने बाजार को हमारे सामान के लिए बंद किए रहा। इस सबके बावजूद हम उससे सौहार्दपूर्ण संबंधों की आशा बांधे रहे हैं तो यह हमारे राजनेताओं की गलती है। 16 अक्टूबर को एशिया सोसायटी में अपनी पुस्तक के विमोचन के समय भारत और चीन के संबंधों में 15 जून की घटना के बाद आए तीव्र मोड़ को विदेश मंत्री जयशंकर ने कुछ हताशापूर्वक ही स्वीकार किया है।

यह समझना कठिन है कि चीन के भारत विरोधी निरंतर रुख को देखते हुए भारतीय नेता उससे संबंध सामान्य बने रहने की आशा क्यों पाले हुए थे। इसका एकमात्र कारण यह प्रचार है कि चीन भारत से सामरिक और आर्थिक शक्ति के मामले में बहुत आगे निकल गया है। भारत उससे टकराने की स्थिति में नहीं है। इसलिए भारत को उससे संबंध सामान्य बनाए रखने की हरसंभव कोशिश करनी चाहिए। इस भ्रामक प्रचार के साथ ही भारत के राजनैतिक और रणनीतिक क्षेत्रों में एक वर्ग यह दलील भी देता रहा कि चीन का टकराव अमेरिका से है। चीन साम्राज्यवादी अमेरिका को चुनौती दे रहा है। इसलिए हमें उसके शक्तिशाली होने के रास्ते की बाधा नहीं बनना चाहिए। हमें चीन और अमेरिका को टकराने देना चाहिए और यथासंभव अपने आपको उनकी इस लड़ाई से दूर रखना चाहिए।

इस तरह की सरलीकृत कल्पनाएं या तो कायर लोग करते हैं या अंतरराष्ट्रीय संबंधों की प्रतिस्पर्धा को ठीक से न समझने वाले अज्ञानी लोग। यह भी बड़ी विचित्र बात है कि जब अमेरिका अपने नागरिकों के उपभोग की सस्ती सामग्री जुटाने के लिए चीन को अपने पिछवाड़े की फैक्टरी बनाने में लगा हुआ था और चीन अमेरिका से सहयोग का भरपूर लाभ उठाते हुए अपने आपको आर्थिक और सामरिक रूप से ताकतवर बनाने में लगा हुआ था हमारे यहां कुछ लोग चीन द्वारा अमेरिकी साम्राज्यवाद को चुनौती मिलने की कल्पना कर रहे थे। वे यह भी नहीं देख पा रहे थे कि चीन के कम्युनिस्ट नेता जिन नीतियों पर चल रहे हैं, वे उन्हें अमेरिका से भी कहीं बड़ा खलनायक सिद्ध कर रही हैं। चीनी नेता शक्ति अर्जन की उतावली में अपने नागरिकों के साथ जैसी बर्बरता बरतते रहे हैं, उसकी तुलना मुश्किल है। इसके साथ ही साथ अंतरराष्ट्रीय संबंधों में उनका व्यवहार अमेरिका और रूस दोनों से बुरा रहा है। उसका ताजा उदाहरण चीन की बेल्ट एंड रोड योजना है, जिसमें उसकी नवउपनिवेशवादी महत्वाकांक्षा देखी जा सकती है।

चीन को एक अग्रणी विश्व शक्ति बनाने और दिखाने में अमेरिका सहित पश्चिमी देशों की ही अब तक सबसे बड़ी भूमिका रही है। यह बात छिपी रही है कि पिछले चार दशक में चीन ने जो भी आर्थिक और सामरिक प्रगति की है, वह उसने अपने पुरुषार्थ से नहीं की। 1980 के दशक तक चीन औद्योगिक रूप से काफी पिछड़ा हुआ था। माओकालीन लंबी छलांग और सोवियत रूस से मिली भरपूर सहायता के बावजूद चीन तब तक भारत से कुछ पीछे ही था। उसके बाद अमेरिका ने चीन क¨ सोवियत रूस से अलग करने के लिए और उसे अपनी बैकयार्ड फैक्टरी बनाने के लिए अपनी कंपनियां, प्रौद्योगिकी और पूंजी उसे उपलब्ध करनी शुरू की। पिछले चार दशकों में चीन को लगभग 2300 अरब डॉलर का विदेशी निवेश प्राप्त हुआ है। पश्चिमी देशों से इतना बड़ा पूंजी निवेश दुनिया में और कहीं नहीं हुआ।

चीन में सरकारी आंकड़ों के हिसाब से कोई छह लाख विदेशी कंपनियां पंजीकृत हैं। इन कंपनियों में से अनेक एक ही कंपनी की शाखाएं प्रशाखाएं होंगी। फिर भी यह माना जाता है कि अन्य देशों की कोई डेढ़ लाख कंपनियां चीन में सक्रिय हैं। इन कंपनियों को चीन में अपनी प्रौद्योगिकी साझा करने के लिए विवश किया जाता रहा है। इसके अलावा चीन स्वयं यह मानता है कि उसकी प्रौद्योगिकीय प्रगति रिवर्स इंजीनियरिंग के आधार पर प्राप्त की गई है। इस सबसे चीन की कोई बहुत अच्छी छवि नहीं निकलती। इस तरह की प्रगति अर्थव्यवस्था के भीतर अनेक तरह की विसंगतियां पैदा करती हैं। चीन की अर्थव्यवस्था में यह विसंगतियां अब उभरकर सामने आने लगी हैं। अमेरिका ने अब उससे हाथ खींचने और उसे सबक सिखाने का निर्णय कर लिया है। अब अधिक दिन चीन को पहले की तरह विदेशी कंपनियां पूंजी और प्रौद्योगिकी उपलब्ध नहीं रहेगी। कोविड-19 ने उसकी बेल्ट एंड रोड परियोजना को खटाई में डाल दिया है। उसकी कंपनी हूबे की 5जी संबंधी महत्वाकांक्षा हवा हो गई और उसकी तेजी से आगे बढ़ती अन्य टेक्नोलॉजी कंपनियां अब मुसीबत में हैं।

भारतीय नेताओं की सबसे बड़ी गलती यह है कि उन्होंने इस चीनी प्रचार को अपने यहां होने दिया और यह भ्रम फैलाने दिया कि चीन की अर्थव्यवस्था भारत से पांच गुनी है, उसके पास भारत की तुलना में अधिक बड़ी सेना है और उसके पास भारत से अधिक उन्नत हथियार हैं। दरअसल चीन की अर्थव्यवस्था स्टाॅराइड पर निर्भर शरीर की तरह है। अगले एक दशक में वह अनेक समस्याओं से ग्रसित होने वाली है। चीन को उसकी नीतियां पश्चिमी देशों में ही नहीं दुनियाभर में खलनायक बना चुकी हैं। आने वाले दिनों में पश्चिमी शक्तियों के असहयोग के कारण उसका अंतरराष्ट्रीय बाजार भी सिकुड़ेगा और उसकी जनसंख्या में जो गिरावट आना शुरू हुई है, उसका प्रभाव भी उसकी अर्थव्यवस्था पर दिखने लगेगा। उस पर कर्ज का बोझ काफी बड़ा है और पिछले कुछ समय में ही उसका विदेशी मुद्रा भण्डार एक हजार अरब डॉलर तक कम हो चुका है। इस सबसे उसकी आंतरिक स्थिति का पता लगता है, जो उसकी आंतरिक राजनीति को अस्थिर बना सकती है।

अपनी इन अस्थिर परिस्थितियों से ध्यान बंटाने के लिए वह भारत पर आक्रमण कर सकता है। पर यह दुस्साहस इस बार उसे अपने पराभव की ओर ही ले जाने वाला है। आज भारत उससे कहीं बेहतर स्थिति में है। किसी देश की अर्थव्यवस्था की शक्ति जीडीपी के आकार से तय नहीं होती। भारतीय समाज आर्थिक चुनौतियों और उतार-चढ़ाव को झेलने में चीनी समाज से अधिक समर्थ है। लड़ाई हुई तो चीनी सेनाएं भारतीय सेना के सामने टिक नहीं पाएंगी। अब उत्तरी सीमाओं पर हमारी पर्याप्त सेना तैनात है। हम टैंक, मिसाइल या लड़ाकू विमान आदि के मामले में उससे बेहतर स्थिति में ही हैं। दक्षिणी समुद्र में हम मलक्का जल संधि पर उसके सामने बड़ी चुनौती पैदा करने की स्थिति में है। चीन भारत से युद्ध छेड़कर अपनी आफत ही मोल ले रहा होगा। लद्दाख में तनाव पैदा करके चीन ने भारत को अपना स्थाई दुश्मन बना लिया है। यह दुश्मनी अब चीन से कम्युनिस्ट शासन की विदाई के बाद ही समाप्त होगी।

 

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