वर्तमान सरकार इन सभी देशों के साथ होने वाले व्यापार घाटे को गंभीरता से ले रही है। इन समझौतों में ऐसे संशोधन करवाना चाहती है, जिससे हमारा व्यापारिक घाटा पट सके। यह सही दिशा में सही कदम है।
भारत अपनी विदेश नीति और विदेश व्यापार नीति में अधिक दृढ़ता और व्यावहारिकता दिखाने लगा है, इसका सबसे ताजा प्रमाण केंद्र सरकार का क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी से बाहर रहने का निर्णय है। लगभग छह वर्ष पहले इस बात की पहल शुरू हुई थी कि भारत के पूर्व में बसे देशों को मिलाकर मुक्त व्यापार का एक बड़ा समूह बनाया जाए। इसमें आसियान के दस देशों के अलावा भारत, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड को सम्मिलित करने की योजना थी। इन सभी देशों में दुनिया की लगभग आधी आबादी रहती है। उनका सकल उत्पादन दुनिया के सकल उत्पादन का लगभग एक तिहाई है और विश्व व्यापार में उनकी लगभग एक चौथाई भागीदारी है। इसमें संसार के सबसे बड़े व्यापारिक समूह की संभावना देखी गई।
लेकिन जैसे-जैसे इस व्यापारिक समूह के नियमकायदों पर बातचीत आरंभ हुई, यह अनुभव किया गया कि इस समूह की मुख्य शक्ति चीन ही है और उसे जो स्वरूप दिया जा रहा है, उसमें सबसे अधिक लाभ चीन का ही है। इस आशंका के बाद भारत को इस समूह से जोड़ने में आसियान के देशों सहित जापान और दक्षिण कोरिया आदि की भी अधिक दिलचस्पी हुई। भारत आरंभ से इस बात पर जोर देता रहा है कि इस समूह के नियम-कायदे ऐसे हो, जिससे सभी देश लाभान्वित हो सके। भारत को ऐसा होता दिख नहीं रहा था, इसलिए उसने अपनी आशंकाएं साफ शब्दों में रखीं। मोदी सरकार ने बता दिया कि अगर भारत के द्वारा उठाए गए मुद्दों का संतोषजनक समाधान नहीं होता तो भारत इस समूह में शामिल नहीं होगा। भारत अपनी इसी नीति पर दृढ़तापूर्वक बना रहा और उसी के कारण उसे इस व्यापारिक समूह में कम से कम अभी शामिल न होने का फैसला करना पड़ा।
अब तक चीन अंतरराष्ट्रीय व्यापार का उपयोग अपने सस्ते माल से दुनियाभर को पाट देने के लिए करता रहा है। उसकी व्यापारिक नीतियों के कारण दुनियाभर के देशों के आंतरिक उद्योग दबाव में आ गए हैं। चीन की व्यापारिक नीतियों का ठीक यही अनुभव हमें होता रहा है। उसके सस्ते उत्पादों ने हमारे छोटे और मध्यम आकार के उद्योगों को चौपट कर दिया है। चीन हमारे उत्पाद के लिए अपना बाजार पूरी तरह खोलने के लिए तैयार नहीं है। इसका परिणाम यह है कि चीन के साथ हमारा व्यापारिक घाटा बढ़ता जा रहा है। इस समय वह 54 अरब डॉलर के स्तर पर है। हमारी बड़ी समस्या चीन है, लेकिन इस समूह में सम्मिलित अन्य देशों के साथ भी हमारा व्यापारिक घाटा पटने का नाम नहीं ले रहा है। इस समूह में शामिल होने वाले सब देशों को मिलाकर देखें तो उसके साथ हमारा व्यापारिक घाटा 110 अरब डॉलर से अधिक है। इसका बड़ा कारण यह है कि इन सभी देशों के साथ अब तक हमने जो व्यापारिक समझौते किए हैं, उनके नियम-कायदे बनाते समय भारतीय हितों का पूरी तरह ध्यान नहीं रखा गया।
सोनिया गांधी और राहुल गांधी इस व्यापारिक समूह में शामिल होने के खिलाफ आवाज उठाते हुए यह आशंका जताते रहे कि सरकार इस समूह में शामिल हुई तो हमारे उद्योग धंधे तबाह हो जाएंगे। लेकिन अब तक चीन और आसियान देशों से सभी व्यापारिक समझौते कांग्रेस के शासनकाल में ही हुए थे। तब उन्होंने देशहित का ध्यान नहीं रखा। इस समूह में सम्मिलित होने के लिए भारत जिन प्रावधानों पर जोर देता रहा है, वे हमारे आंतरिक उद्योग-कृषि तंत्र की रक्षा के लिए आवश्यक हैं। भारत ने कहा कि समूह के प्रावधानों में इस बात की व्यवस्था होनी चाहिए कि अगर किसी देश से आयातित होने वाले माल की मात्रा अचानक बढ़ जाए और उससे हमारे आंतरिक उद्योग को नुकसान पहुंच रहा हो तो उस पर अंकुश लगाने की प्रक्रियाएं स्वत: आरंभ हो जाएं।
इसी तरह कुछ देश अपने बाजार में पहुंच रोकने के लिए सीमा शुल्क के अतिरिक्त अन्य उपायों का इस्तेमाल करते रहते हैं। चीन इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। ऐसे बंधनों को दूर किए जाने की भी कुछ व्यवस्था होनी चाहिए। इस समूह के सीमा शुल्क को 2014 के स्तर पर रखने के फैसले का भी भारत ने विरोध किया। उसका आग्रह था कि सीमा शुल्क को 2019 के स्तर पर ही रखा जाना चाहिए। भारत का यह भी आग्रह है कि इस समूह की नीतियां केवल वस्तुओं के व्यापार तक ही सीमित न हों। सेवा क्षेत्र को भी उसमें शामिल किया जाए। भारत के प्रशिक्षित लोगों के लिए भी इस समूह के देशों के दरवाजे खुले रहें। भारत का मानना है कि जब तक सेवा क्षेत्र को समूह के दायरे में नहीं लाया जाता, भारत का व्यापारिक घाटा पटना संभव नहीं है। अंत में भारत का यह आग्रह रहा है कि कृषि और डेयरी क्षेत्र को कुछ संरक्षण मिलना चाहिए। इन क्षेत्रों में भारत की बड़ी आबादी लगी है।
भारत उनके हितों को चोट पहुंचाकर कोई व्यापारिक समझौता नहीं कर सकता। भारत के यह सभी आग्रह तर्कसंगत और व्यावहारिक हैं। अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक समझौते करते हुए अपने राष्ट्रीय हितों पर दृढ़तापूर्वक टिके रहने की यह नीति विशेष रूप से मोदी सरकार के आने के बाद बनी है। दो दशक पहले हमने पूर्व की ओर उन्मुख होने की नीति के अंतर्गत उस क्षेत्र के देशों से मुक्त व्यापार समझौते करने आरंभ किए थे। अपने विदेश व्यापार को गति देने के लिए पूर्व की ओर देखना एक अच्छी और व्यावहारिक पहल थी। अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में इस दिशा में काफी प्रगति हुई। लेकिन मनमोहन सिंह कार्यकाल में ही मुक्त व्यापार संबंधी अधिकांश समझौते हुए। 2009 में हमने आसियान से मुक्त व्यापार का समझौता किया था।
इसके अलावा जापान और दक्षिण कोरिया से भी हमने मुक्त व्यापार के समझौते किए। लेकिन यह सब समझौते करते समय हमने सावधानीपूर्वक अपने राष्ट्रीय हितों का पूरा ध्यान नहीं रखा। ठीक से यह समझने का प्रयत्न नहीं किया कि इन समझौतों से हमारे आंतरिक उद्योग-कृषि तंत्र पर क्या असर पड़ने वाला है। इसका परिणाम यह हुआ कि केरल की मार्क्सवादी सरकारों तक को दिल्ली के दरवाजे खटखटाते रहने पड़े क्योंकि इंडोनेशिया और वियतनाम से होने वाले व्यापार के नियम-कायदे बनाते समय हमने केरल के आर्थिक हितों का ध्यान नहीं रखा था। और भी अनेक समस्याएं सामने आती रही हैं, उन सबके कारण मौजूदा सरकार ने अब तक के सब मुक्त व्यापार समझौतों की समीक्षा का फैसला किया है। आसियान से हुए मुक्त व्यापार समझौते की भी समीक्षा होगी और जापान तथा दक्षिण कोरिया से हुए मुक्त व्यापार समझौते की भी।
वर्तमान सरकार इन सभी देशों के साथ होने वाले व्यापार घाटे को गंभीरता से ले रही है। इन समझौतों में ऐसे संशोधन करवाना चाहती है, जिससे हमारा व्यापारिक घाटा पट सके। यह सही दिशा में सही कदम है। इस व्यापारिक समूह में फिलहाल सम्मिलित न होने का निर्णय सुनाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि इस व्यापारिक समूह के नियम कायदे न महात्मा गांधी के बताए बीज मंत्र पर खरे उतर रहे हैं और न इस समूह में सम्मिलित होने के लिए उनकी अंतार्त्मा गवाही दे रही है। महात्मा गांधी का दिया बीज मंत्र यह था कि कोई काम करते समय यह देखना चाहिए कि उससे देश के सबसे निर्बल व्यक्ति को कुछ लाभ हो रहा है या नहीं। प्रधानमंत्री ने कहा कि इस व्यापारिक समूह में सम्मिलित होने का अर्थ होगा-देश के लाखों लोगों के जीवन और आजीविका की अनदेखी करना। संयोग से इस समय देश में केंद्र सरकार के इस निर्णय को लेकर सर्वानुमति दिखाई देती है।
मौजूदा सरकार ने अब तक के सब मुक्त व्यापार समझौतों की समीक्षा का फैसला किया है। आसियान से हुए मुक्त व्यापार समझौते की भी समीक्षा होगी और जापान तथा दक्षिण कोरिया से हुए मुक्त व्यापार समझौते की भी।
इस व्यापारिक समूह में सम्मिलित होने के विरुद्ध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े संगठन भी थे, मार्क्सवादी पार्टी और उससे जुड़े हुए संगठन भी। सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने तो इस व्यापारिक समूह के विरुद्ध झंडा ही उठा रखा था। कांग्रेस का यह विरोध वैसे हास्यास्पद लगता है, क्योंकि उसकी व्यापारिक नीतियों ने ही देश के उद्योग-धंधों को चौपट किया था। केंद्र सरकार के इस निर्णय का उद्योग संगठनों ने भी समर्थन किया है। विभिन्न किसान और स्वयंसेवी संगठनों ने भी सरकार के इस निर्णय पर संतोष व्यक्त किया है। लेकिन इस निर्णय से हमारी कमजोरी भी प्रकट हुई है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार से लाभ तभी होता है, जब आपके उद्योग तंत्र की नींव मजबूत हो और आपके उत्पादों की लागत प्रतिस्पर्धी हो। पिछले सात दशक के बाद भी हम इस मामले में काफी कमजोर हैं। अगर हम अपना औद्योगिक ढांचा मजबूत नहीं बना पाते तो अंतरराष्ट्रीय व्यापार के जो लक्ष्य हमने तय किए हुए हैं, वे पूरे नहीं होंगे।