इस्लाम में जातिवाद एवं पासमंदा आंदोलन

शिवेंद्र सिंहनवगठित उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्रिमंडल में दानिश आजाद अंसारी को शामिल किया गया. एक ऐसी पार्टी जिस पर मुस्लिम विरोधी होने का ठप्पा लगा हो और जिसे प्रमाणिक रूप से मुसलमानों का वोट ना मिलता हो, तब ऐसे दल द्वारा एक मुसलमान को मंत्री बनाने पर मुस्लिम समाज द्वारा ख़ुशी जाहिर की जानी थी लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इसके बजाय मुस्लिम समाज द्वारा ही ना सिर्फ भाजपा बल्कि दानिश आजाद पर भी अपशब्दों एवं गालियों की बौछार की जा रही है. प्रश्न है कि जो मुस्लिम पंथ हर वक्त अपने अधिकारिता और प्रतिनिधित्व की माँग करता रहता है, उसे एक मुसलमान के मंत्री बनने से इतनी आपत्ति क्यों है??

इसका जवाब है, दानिश अंसारी की जाति. वो पिछड़ी जाति के पासमांदा समाज से आते हैं. एक पासमांदा युवा को सरकार में शामिल करने पर अपने स्वार्थ के लिए इस्लामिक एकता का नारा बुलंद करने वाले अशराफ वर्ग ने अपना सैय्यदवादी चरित्र दिखाया. फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सप्प जैसे तमाम संचार माध्यमों पर ऐसे संदेशों एक मीम्स की बाढ़ आ गयी, जिनमें पसमांदाओं को अपमानित और तिरस्कृत किया गया.

 सर्वप्रथम यह समझना आवश्यक है कि इस्लाम में समानता का विचार मात्र एक सैद्धांतिक पहलू हैं जिसका व्यावहारिकता से दूर-दूर तक सम्बन्ध नहीं है. मुस्लिम समाज में जाति विहीनता और समानता का दावा दुनिया के सबसे बड़े मिथकों में से एक है. इस्लामिक समाज सामान्यतः अशराफ, अजलाफ और अरजल, इन तीन वर्गों में विभक्त है. ‘अशराफ’ का तात्पर्य है ‘कुलीन’. इसमें विदेशियों के वंशज एवं तथाकथित सवर्ण जातियों के धर्मान्तरित हिंदू शामिल हैं, जैसे शेख, सैयद, पठान, मिर्जा आदि. दूसरा ‘अजलाफ’ वर्ग जिसमें पिछड़ी और दलित जातियों के मुसलमानों को रखा जाता है, जैसे दर्जी, जुलाहा, कसाई, धुनिया, कलाल नालिया, निकारी आदि.यही पासमांदा क़हलाते हैं. इन्हें सैय्यदवादी कमीन, कमीना या रासिल (रिजाल का अपभ्रन्श, ‘बेकार’) भी कहते हैं. तीसरा वर्ग है, ‘अरजल’ जिनकी स्थिति अछूतों जैसी या उनसे भी बुरी होती है. अन्य मुसलमान इनसे सामाजिक सम्बन्ध नहीं रखते, न ही उन्हें मस्जिदों और सार्वजनिक कब्रिस्तानों में प्रवेश करने देते हैं. इनमें भानार, कसबी, मोगता, लालबेगी आदि आते हैं. 

इस्लाम और मुस्लिम समाज में व्याप्त सामाजिक विसंगतियों, जातिगत विभेदों एवं वर्गीय शोषण का यथार्थ वर्णन बाबा साहब आंबेडकर (थॉट्स ऑन पाकिस्तान,1947), अली अनवर (मसावात की जंग, 2001) व मौलाना आलम फलाही (हिंदुस्तान में जात-पांत और मुसलमान, 2007) जैसे विद्वानों ने किया है. आपातकाल सेनानी एवं वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं, “जाति प्रथा केवल हिंदू धर्म में ही नहीं बल्कि ईसाईयों, मुसलमानों, नवबौद्ध के बीच भी है. आज इस्लाम हो या ईसाइयत, कोई भी धर्म या पंथ अपने समाज में एकता या समता का दावा नहीं कर सकता.”

इस्लाम में इसी धार्मिक-सामाजिक उत्पीड़न के विरुद्ध पासमंदा समाज संघर्षरत है. ‘पासमांदा’ फ़ारसी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ हैं पिछड़ा. पसमांदा आन्दोलन सामाजिक अस्तित्व की लड़ाई है. यह आन्दोलन अब तमाम पिछड़े और दलित जातियों के मुसलमानों को संगठित करके मुस्लिम समाज में व्यापक बहुजनवाद की अवधारणा पर काम कर रहा है तथा सामाजिक न्याय के चक्र को पूरा करने के लिए प्रयासरत है.

इस सन्दर्भ में  सर्वप्रथम मुस्लिम समाज के प्रतिनिधित्व के आंकड़ों पर दृष्टिपात करना आवश्यक है. एक आकलन के हिसाब से पहली से लेकर चौदहवीं लोकसभा तक चुने गए 7,500 प्रतिनिधियों में 400 मुसलमान थे और इन 400 में 340 अशराफ और केवल 60 पसमांदा समाज से थे. अगर भारत में मुसलमानों की आबादी 13.4 फीसद (जनगणना, 2001) है तो अशराफिया आबादी भारत की कुल आबादी की 2.01 फीसद के आसपास होगी. हालांकि, लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व 4.5 प्रतिशत रहा है. जो कि उनकी आबादी प्रतिशत के दोगुने से भी ज्यादा है. वहीं 11.4 फीसद पसमांदा आबादी की नुमाइंदगी केवल 0.8 फीसद रही. मुसलमानों की कुल आबादी का सवर्ण मुसलमान लगभग 15 फीसद और दलित, पिछड़े और आदिवासी मुसलमान 85 फीसद होते हैं. वास्तव में यह सैय्यदवादी अशराफ वर्ग के विरुद्ध 85 बनाम 15 का संघर्ष है जिसे भारत का मूल निवासी पसमांदा समाज एवं अरजल वर्ग इन विदेशी मूल के शोषक एवं उत्पीड़क अशराफ मुसलमानों के विरुद्ध लड़ रहा है. अशफाक हुसैन अंसारी ने अपनी किताब “बेसिक प्रॉब्लम्स ऑफ ओबीसी एंड दलित मुस्लिम (2010) में ऐसे आंकड़ों के जरिये पसमंदा एवं अरजल वर्ग के प्रतिनिधित्व का पिछड़ापन प्रदर्शित करते हैं.

उपर्युक्त आंकड़ों के अनुसार सवर्ण वर्ग के अशराफों को अपनी आबादी की अपेक्षा दुगुने से भी अधिक  प्रतिनिधित्व प्राप्त है जबकि पिछड़े-पासमांदा एवं दलित-अरजल वर्ग हासिये पर पड़ा है. यही स्थिति विधानसभाओं से लेकर नगर पालिकाओं एवम् पंचायतों तक है. मुस्लिम समाज की बेहतरी के नाम पर बने राजनीतिक और शिक्षण संस्थानों की स्थिति भी भिन्न नहीं है. उदाहरणस्वरुप विभिन्न इस्लामी संगठनों यथा, जमीअत-ए-उलेमा-ए-हिन्द, जमात-ए-इस्लामी, आल इण्डिया पर्सनल लॉ बोर्ड, इदार-ए-शरिया, इत्यादि, शिक्षण संस्थान अलीगढ़ यूनिवर्सिटी, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, मौलाना आजाद एजुकेशनल फाउंडेशन, उर्दू अकादमी, इत्यादि में भी सिर्फ उच्च जाति के अशराफ परिवारों का ही दबदबा है. 

सामाजिक जीवन में भी पसमांदा एवं अरजल तबका  भेदभाव एवं उत्पीड़न का शिकार है. वैवाहिक संबंधों में जातिगत भेदभाव, पिछड़े- दलित मुसलमान जातियों को अपमानित करना, उन्हें अपने कब्रिस्तान में अंतिम संस्कार से रोकना और इसके लिए अलग जगह का निर्धारण करना, नमाज़ के दौरान मस्जिदों में पिछडी एवं कमज़ोर जातियों को पीछे की पंक्तियों में ही खड़े होने के लिए बाध्य करना, दलित मुसलमानों के साथ छुआछूत के प्रचलन, इत्यादि में नज़र आता है. यहां तक कि इस्लाम के नाम पर गठित पाकिस्तान में भी अजलाफ (पसमांदा) और अरजल वर्ग का इन सैय्यदवादियों ने जीवन नर्क बना रखा हैं.

हिंदू समाज में सामाजिक न्याय के लिए दिनरात विलाप करने वाले अशराफ मुस्लिम समाज में जातिगत उत्पीड़न के मसले पर मौन साध लेते हैं. आज जो उच्च जातीय अशराफ मुसलमान अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व की बात करते हैं, इन्हीं पसमंदा वर्ग के मुसलमानों के चुनाव में उतरने पर उन्हें धुनिया, जोलहा, कुंजड़ा, कसाई कहकर अपमानित करते हैं और उसे हराने में लग जाते हैं. वहीं, ज़ब अशराफ़ वर्ग का सवर्ण मुसलमान उम्मीदवार हो तो उसके पक्ष में फतवे जारी किये जाते हैं उसे जिताना इस्लामी फ़र्ज़ क़रार दिया जाता है. इसी सैय्यदवादी चरित्र के विरुद्ध पसमांदा समाज अपनी लड़ाई लड़ रहा है.  

यही नहीं इस समय देश में धार्मिक ध्रुवीकरण की सांप्रदायिक राजनीति के पीछे यही अशराफ वर्ग हैं जो अपने द्वारा प्रायोजित सांप्रदायिक दंगे एवं मॉब लिंचिंग की घटनाओं के माध्यम से बहुजन मुस्लिम समाज को भावनात्मक रूप से उलझाकर सैय्यदवादी वर्चस्व क़ायम रखना चाहता है. लेकिन वास्तविकता यह है कि ऐसी घटनाओं में सबसे ज्यादा नुकसान पसमांदा एवं अरजल तबके के मुसलमानों का ही होता है. अपनी राजनीतिक- आर्थिक सुदृढ़ता के चलते ये उच्च जाति अशराफ वर्ग आसानी से ऐसी चीज़ों से निकल जाता हैं और पिछड़े- बहुजन मुस्लिमों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है. रोजमर्रा के जीवन में सैकड़ों जातियों में विभाजित मुस्लिम आबादी जो सैय्यदवादियों द्वारा ‘रासिल एवं कमीन’ कहकर निरंतर अपमानित की जाती है उन्हें  रातोंरात ‘मुसलमान’ मान लिया जाता है.डॉ लोहिया ‘भारत विभाजन के गुनहगार’ में लिखते हैं कि, “इससे लगता कि यह जैसे इतिहास का नियम हो कि समीपता के काम छोटी जाति व अर्द्धशिक्षित लोगों ने ही किये और पृथकता का काम शासकों तथा अधिक शिक्षित उच्च जाति के लोगों ने.”

मुस्लिम समाज में जातिगत भेदभाव के विरुद्ध संघर्षरत इस्लामिक स्कालर एवं सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. फैयाज अहमद वर्तमान में फैले धार्मिक उन्माद पर कहते हैं, “धर्म हमारे देश की कभी  समस्या नहीं थी. समस्या हमारे देश में सामाजिक न्याय है और हिंदू समाज में तो सामाजिक न्याय पर काम हुआ हैं लेकिन मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय पर काम नहीं हुआ है इसीलिए ये जल्दी से रेडीकलॉइज (कट्टरपंथी) हो जाता है.” देखा जाए तो डॉ. फैयाज, बाबा साहब आंबेडकर की धारा को ही आगे बड़ा रहे हैं.

पसमांदा आंदोलन ने प्रचलित मुस्लिम विमर्श की तमाम मान्यताओं को सदैव चुनौती दी है. यह राष्ट्रवादी विचारों पर आधारित पिछड़े और दलित मुस्लिमों का आंदोलन है. इस आंदोलन का प्रारम्भ ‘मोमिन कांफ्रेंस’ के संस्थापक अब्दुल कयूम अंसारी ने जिन्ना के ‘द्विराष्ट्र सिद्धांत’ के विरोध स्वरुप की थी. ऐतिहासिक रूप से पसमांदा समाज ‘कबीरदास’ को अपना आदर्श मानता हैं, जिन्होंने मुस्लिम समाज में व्याप्त जातिवाद और ऊंच-नीच के खिलाफ आवाज उठाई तब इन्हीं विदेशी अशराफियों ने उलेमा के जरिये कबीर के विरुद्ध कुफ्र का फ़तवा जारी करा इस्लाम से ख़ारिज करवा दिया था. स्वतंत्रता के बाद मौलाना आजाद के नेतृत्व में अशराफों ने शासन-प्रशासन में खुद को स्थापित कर लिया और देश का मूल निवासी पसमांदा मुसलमानों को हासिये पर धकेल दिया गया, क्योंकि पसमांदा समाज हमेशा से इनकी विभाजनकारी राजनीति का विरोधी रहा हैं.

पसमांदा आंदोलन धार्मिक-अल्पसंख्यकवाद के नारे का भी विरोधी हैं. उसका मानना है कि एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में धार्मिक-अल्पसंख्यक माँग का कोई औचित्य नहीं है, तथा इतनी बड़ी आबादी में निवास करने वालीं इस्लामिक कौम अल्पसंख्यक कैसे हो सकती है?? पसमांदा नेता मदरसों को परिवारवाद और सामंतवाद का स्तंभ मानते हैं, जिन पर सरकार का नियंत्रण होना चाहिए. पसमांदा वर्ग भारत में हमेशा से सैय्यदवादी अशराफ़ वर्ग की सांप्रदायिक एवं धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति का विरोधी रहा है. चूंकि पसमांदा वर्ग हिंदू समाज से ही धर्मानंतरित इस देश के मूल निवासी है और देश में विदेशी मूल के अशराफ वर्ग द्वारा फैलाये जा रहे सांप्रदायिकता का विरोध कर वो इसकी एकता को पुनः खंडित होने से रोकना चाहते हैं, इसीलिए सपा, कांग्रेस, राजद जैसे तथाकथित सेक्युलर एवं वास्तव में सांप्रदायिक दलों के लिए पासमंदा आंदोलन हमेशा एक चुनौती रहा है अतः इन दलों ने पासमंदा नेताओं को हमेशा हासिये पर रखा है. 

देशज पसमांदा समाज की आवाज इन विदेशी उत्पत्ति के अशराफ वर्ग ने दबा रखी हैं.वास्तविक यही हैं कि आज देशज मुसलमान यानि अजलाफ (पसमांदा) एवं अरजल वर्ग, सैय्यदवादी इस्लाम के नाम पर शोषित-प्रताड़ित और अपमानित है. आवश्यकता हैं कि केंद्र एवं राज्य सरकारें पसमांदा एवं अरजल समाज को इन विदेशी सैय्यदवादियों के शोषण से मुक्त कराये. राजनीतिक प्रतिनिधित्व में तरजीह देने के साथ ही अल्पसंख्यक वर्ग के लिए आवंटित सुविधाओं में पसमांदा एवं अरजल वर्ग को प्राथमिकता देनी चाहिए एवं विभिन्न अल्पसंख्यक संस्थानों में अशराफ के बजाय पसमांदा वर्ग से आने वाले व्यक्तियों की अधिकाधिक नियुक्ति की जानी चाहिए.

 आज तक तुष्टिकरण करने वाले दलों कांग्रेस, सपा या राजद आदि द्वारा विभाजनकारी मानसिकता के अशराफ वर्ग को ही मात्र अल्पसंख्यक मान कर तरजीह दी गई और पसमांदा समाज को सत्ता में भागीदारी से वंचित रखा गया. लेकिन ‘सबका साथ-सबका विकास’ के दावे वालीं भाजपा भी ये नहीं देख पाई. अब समय है कि भाजपा सरकार पसमांदा एवं अरजल वर्ग को उसका हक एवं सम्मान दिलाये. 

सूफ़ी संत जलालुद्दीन रूमी कहते हैं, ”अपने शब्दों को ऊँचा करो आवाज को नहीं! बादलों की बारिश ही फूलों को बढ़ने देती है, उनकी गर्जना नहीं.” बीतते वक्त से साथ पसमांदा आंदोलन ने धैर्यपूर्वक ना सिर्फ मुस्लिम विमर्श को बदलने का प्रयत्न किया है, बल्कि पिछड़े-दलित मुस्लिम वर्ग की सोच और मतदान व्यवहार में परिवर्तन लाकर राजनीति को एक सही दिशा देने की प्रबल संभावना भी पैदा की है. इस  संभावना को सहयोग ही भविष्य के लिए उचित होगा.

 

 

 

 

 

 

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