नौकरशाही: जर्ज़र रुढ़ीवादियों से मुक्ति की उम्मीद

शिवेंद्र सिंहवर्तमान लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था के अंतर्गत लोक प्रशासनिक सेवाएं सरकार एवं शासन सत्ता की और राजनीतिक तथा और निर्वाचित कार्यकारी प्रमुख भाग हैं जो निर्वाचित जन प्रतिनिधियों के नियंत्रण एवं निर्देश के अधीनस्थ रूप में संवैधानिक नियमों के अनुरूप प्रशासन चलाने का उत्तरदायित्व संभालते हैं.
 परन्तु भारतीय लोकतंत्र में यह परिभाषा थोड़ी अलग और थोड़ी अपूर्ण है. यहाँ प्रशासनिक वर्ग यानि नौकरशाही उपरोक्त के अतिरिक्त एक समानांतर सत्ताधारी है और जो स्वयं को इस जनतंत्र का स्वयंभू संचालक मानती है. इसका उदाहरण पिछले दिनों देखने को मिला ज़ब एक स्थानीय भूमि व‍िवाद में उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले के एसडीएम ने सीधे प्रदेश के राज्‍यपाल महामहिम आनंदीबेन पटेल को ही समन भेजकर कोर्ट में पेश होने का आदेश दे दिया. यह सूचना सार्वजनिक होते ही प्रशासन में हड़कंप मच गया.
हालांकि यह प्रशासन द्वारा ऐसी गड़बड़िया किया जाना कोई विशेष बात नहीं है. यह भी आश्चर्य का विषय नहीं होना चाहिए की किसी प्रशासनिक अधिकारी ने राज्यपाल को नोटिस दे दिया. गनीमत है, वरना ये तो सीधे राष्ट्रपति को भी भेजा जा सकता था. और यह ऐसी घटना भी नहीं है जिसे राष्ट्रीय महत्त्व दिया जाये. लेकिन महत्त्वपूर्ण है इस घटना का संदेश  कि ऐसे नौकरशाहों की प्रशासनिक तरबियत किस प्रकार की होगी एवं जनता कार्यों एवं सरोकारों के प्रति उनकी गंभीरता का आलम कैसा होगा?
 नौकरशाही के ऐसे दुष्कार्यों का विश्लेषण करते हुए अमेरिकी समाजशास्त्री रॉबर्ट के. मर्टन ने ‘प्रशिक्षित अयोग्यता'(Trained incapacity ) शब्द का प्रयोग किया है, जिसका तात्पर्य ऐसे मामलों से है जिसमें किसी अधिकारी की योग्यताएं या क्षमताएं, उसकी कमियों के रूप में कार्य करती हैं. क्रियाएं जो प्रशिक्षण तथा निपुणता पर आधारित थी और जिन्हें भूतकालीन परिस्थितियों में सफलतापूर्वक संपन्न किया जा सका, आज की बदली हुई परिस्थितियों में अनुपयुक्त अनुक्रिया (प्रतिक्रिया) के रूप में प्रकट हो सकती हैं.
 ध्यातव्य है, मूलतः ऐसा समन अनु.361 का उल्लंघन है.अगर संवैधानिक नियमों के हवाले पर ना भी जाये तो भी यह सामान्य बात है कि राष्ट्रपति एवं राज्यपाल जैसे पदों पर आसीन व्यक्तियों को ऐसे मामलों से  संवैधानिक रूप से मुक्त रखा गया है.किन्तु अजीब तर्क है कि प्रतिष्ठित सिविल सेवा की परीक्षा पास करने वाले इन अधिकारियों को क्या सामान्य क़ानूनी एवं संवैधानिक नियमों का भी ज्ञान नहीं है? यदि ऐसा है तो उक्त प्रकरण ऐसी सम्मानित परीक्षाओं की विश्वासनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं. और यदि ऐसा नहीं है तो इसका उसका सीधा सा अर्थ है कि इस जम्हुरियत में नौकरशाही को बिना परिणाम की चिंता तथा बिना जवाबदेही की परवाह के कुछ भी करने की इजाजत है. ऐसा क्यूँ है कि भारतीय नौकरशाही अपने को सारे नियमों एवं विधानों से परे मानती है? आम जनता तक तो ठीक था, अब ये अहंमन्यता में संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को भी नहीं बख्श रहे हैं.
 संविधान के पालनकर्ताओं एवं उन्हें जनता पर लागू कराने की जिम्मेदार जमात कैसे उसके मूल्यों की धज्जियाँ उड़ाती है, नौकरशाही उसका सटीक उदाहरण है.अब जरा सोचिये कि ऐसे रूढ़िवादी संस्था के नुमाइंदो का भारतीय जनता के साथ कैसा रवैया होगा? संभवतः इसी परिपेक्ष्य में हेराल्ड लास्की ने नौकरशाही को एक ऐसी व्यवस्था के रूप व्यक्त किया है जिसमें ‘यन्त्रवत् कार्य के लिए उत्कंठा, नियमों के लिए लोचशीलता का बलिदान, निर्णय लेने में देरी और नवीन प्रयोगों का अवरोध, रूढ़िवादी दृष्टिकोण’ जैसी बातें प्रभावी रहती हैं.
 हालांकि यदि आप ऐसा समझते हैं कि भारतीय प्रशासनिक तंत्र बिलकुल रूढ़-लोचहीन है तो आपका विश्लेषण बिलकुल गलत है. हकीकत में भारतीय जनतंत्र में एक गजब की लोचशीलता एवं अनुकूलता का गुण है जो राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान एवं समर्थ वर्ग के सम्मुख ही दिखता है. यह नौकरशाही की सत्ता का सबसे विचित्र सत्य है कि उसकी सारी हेकड़ी आर्थिक और राजनीतिक रूप से सशक्त वर्ग के सामने गायब हो जाती है. आम गरीब, निम्न वर्ग से लेकर मिडिल क्लास लोगों को हड़काने-धमकाने में माहिर प्रशासनिक सेवा के लोग सक्षम वर्ग के सामने मिमियाने लगते हैं.ये एक बड़ी वज़ह है जिसके कारण आम भारतीयों में नौकरशाही के प्रति नफरत भरी है.
भारतीय सिविल सर्विस जो ब्रिटिश सत्ता के काल में इंपीरियल सिविल सर्विसेज कहलाती थी, का आतंक एवं उसके द्वारा प्रसारित दुर्व्यवस्था के प्रति भारतीय समाज की अरुचि एवं घृणा का इतिहास बहुत पुराना है. 1928 में मोतीलाल नेहरू समिति की रिपोर्ट ने सिफारिश की थी कि भारत में उत्तरदायी शासन लागू होने तक अखिल भारतीय सेवाओं को स्थगित कर दिया जाए. यही नहीं प्रथम गोलमेज सम्मेलन के दौरान भी सेवाओं संबंधी उपसमिति के दो भारतीय सदस्यों ने भी इन सेवाओं को तत्काल प्रभाव से पूरी तरह समाप्त किए जाने की मांग की थी.
 स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारतीयों के संघर्ष के विरुद्ध क्रूर दमन में आई.सी.एस. अधिकारियों को महारत हासिल थी. तब इन्हें ब्रिटिश सरकार की असैनिक अंग्रेज सेना कहा जाता था जो प्रत्यक्ष एवं परोक्ष, दोनों प्रकार से पूरे राष्ट्र पर कब्जे का आधार बनी हुई थी. उस समय प्रशासनिक सेवाओं के जो अधिकारियों को आम भारतीयों से दूरी रखने की शिक्षा दी जाती थी उस अनैतिक ज्ञान को नौकरशाही ने आज तक अपने संस्कारों में सहेज रखा है.
 इसी कारण भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू का मानना था कि नौकरशाह अति अहंकारी होते हैं तथा हम भारतीयों को घृणा की दृष्टि से देखते हैं. बल्कि अप्रैल, 1940 में उन्होंने यह तक कहा था कि राष्ट्रीय सरकार का सबसे पहले काम आईसीएस को पूरी तरह समाप्त करना होगा. उनका मानना था कि जब तक आईसीएस और उसकी सर्वाधिकारवादी भावना भारतीय प्रशासन में रहेगी, तब तक राष्ट्र में कोई नई व्यवस्था स्थापित ही नहीं की जा सकती. वर्तमान दौर को देखकर प्रतीत होता हैं कि पं.नेहरू अपने विचारों में पूरी तरह सही थे.
 हालांकि संविधान सभा में सरदार पटेल और उनके कुछ समर्थक अखिल भारतीय सेवाओं के समर्थक बन गये बल्कि उन्होंने इसे जारी ना रखने की स्थिति में इस्तीफे की धमकी तक दे डाली. नतीजतन स्वतंत्र भारत में ब्रिटिश सत्ता की क्रूर एवं रुक्ष विरासत अखिल भारतीय सेवाओं का सुस्थापित-सुसंगठित श्रृंखलाबद्ध ढांचा बना रहा. उस दौरान संविधान निर्माताओं ने  स्वविवेक से अखिल भारतीय सेवाओं हेतु भर्ती की सुरक्षा, अनुशासन संबंधी कार्रवाई आदि के मामले में कुछ कतिपय प्रकार के संवैधानिक सुरक्षा उपाय की व्यवस्था की. वही आज नौकरशाही के उदंडता एवं अहंमन्यता का सुरक्षात्मक आवरण बन गए हैं.
 
इन संवैधानिक अपबंधों में, अनुच्छेद 308 ( संघ तथा राज्य की सेवाओं के उपबंध जो समूचे भारत पर लागू होते हैं), अनुच्छेद 309( संबंध विधान मंडल संविधान के अपबंधों के अधीन इन सेवाओं की भर्ती एवं सेवा शर्तों का विनियमन करेंगे), अनुच्छेद 310 (सिविल सेवकों के अपना पद राष्ट्रपति या राज्यपाल के प्रसादपर्यंत्र धारण करने की उद्घोषणा), अनुच्छेद 311 सिविल सेवकों को उसे नियुक्त करने वाले प्राधिकारी के अधीनस्थ किसी प्राधिकारी द्वारा पदच्युत करने से निषेध) शामिल हैं.
असल में संविधान की इन धाराओं ने एक ऐसी सुरक्षात्मक क़ानूनी ढाल बना दी है जिसके अंतर्गत नौकरशाही किसी भी प्रकार सें दुष्कृत्य एवं अभद्रता करने को उद्यत रहती है. हालांकि 42वें संविधान संशोधन अधिनियम,1976 द्वारा संविधान में भाग-14क तथा अनु.323क और 323ख द्वारा प्रशासनिक अधिकरणों का गठन किया गया ताकि सिविल सेवकों के मामले में कोई शिकायत एवं विवादों का निपटारा त्वरित हो सके. इसी श्रृंखला में प्रशासनिक सेवा अधिकरण अधिनियम,1985 द्वारा भी नौकरशाही से संबंधी विवादों के निपटान हेतु अधिकरणों की स्थापना की गई. किन्तु यहां भी भारतीय न्यायिक व्यवस्था का पुराना श्राप हावी रहा.यहां भी मामले न्यायालय की भांति ही चलते रहे और सालों-साल खींचते रहे और उनकी भी कार्यवाहियां उस तरह से प्रभावित नहीं हो सकी जैसी उम्मीद थी. अब सत्य तो यही है कि न्यायिक चाबुक से निर्द्वन्द नौकरशाही को अपने कुकृत्यों का बहुत डर नहीं रहा है.
 यही वज़ह है कि भारतीय जनतंत्र में एक समानांतर सत्ता की हामी नौकरशाही अपने सर्वाधिकरवादी एवं अहंकारी रवैये का निरंतर प्रदर्शन करती रहती है. ज़ब कोई पुलिस अधिकारी किसी जनप्रतिनिधि को सार्वजनिक रूप से ‘भाग जा हरामजादे’ कहता है तो ये उसकी मानसिकता में पैठी नौकरशाही का सर्वाधिकारवाद ही बोल रहा होता है. ज़ब कोई  प्रशासनिक अधिकारी बिना सरकारी अनुमति के सरकारी राशन के वितरण पर रोक की सूचना जारी कर रहा होता है तो यह उसके नौकरशाही से मिले संस्कार है जिसमें प्रशासनिक सत्ता के बूते कुछ भी करने और फिर बच जाने का अहं होता है.ज़ब चुनावी पर्यवेक्षक नियुक्त कोई प्रशासनिक अधिकारी अगर कैमरे के सामने पद की गोपनीयता का ध्यान रखने की बजाय पदाधिकार के हीरोगिरी का प्रदर्शन करे तो उसके पीछे उसकी कार्य के प्रति अगंभीरता ही देखी जा सकती है. ज़ब कोई आईपीएस अधिकारी सोशल मीडिया पर अपराधियों को जाति के आधार चिन्हित करे तो यह उसकी संवैधानिक मूल्यों के प्रति अशिष्टता प्रदर्शित करती है.
प्रश्न है, फिर विकल्प क्या है? तो इसका उत्तर हमें अतीत में स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं के विचारों तथा संविधान सभा की बहसों में तलाशना होगा. जो तब नहीं हो पाया यानि इस औपनिवेशिक व्यवस्था का संहार कर नई संस्था का बीजारोपण, उसे अब संभव बनाने का प्रयास हो. लेकिन इस विषय पर स्वतंत्र भारत की सरकारों की कार्यशैली का अतीत निराशाजनक रहा है.प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्टें (1966 एवं 2005),  ए.डी. गोरेवाला समिति की रिपोर्ट(मार्च,1951), भारत में लोक प्रशासन सर्वेक्षण रिपोर्ट(एप्पलेबी रिपोर्ट,1953), राष्ट्रीय पुलिस आयोग (1977-1981),  में रिबेरो कमेटी(1998),  में पद्मनभैया कमेटी(2000),  में मलिमथ कमेटी(2003), पूर्व अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी की अध्यक्षता में मॉडल पुलिस एक्ट ड्राफ्टिंग कमेटी (2005) की रिपोर्ट जैसी कितनी राजनीतिक, बौद्धिक उछल-कूद के लिखित प्रमाण धूल फांक रहे हैं लेकिन इच्छाशक्तिहीन सरकारें अब तक इस चरम रूढ़िवादी संस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की हिम्मत नहीं जुटा पाई.
असल में विख्यात सामाजशास्त्री मैक्स वेबर ठीक कहते हैं, ‘जो नौकरशाही के द्वारा एक बार शासित हुए हो उससे विमुक्त कभी नहीं हो सकते. अफ्रो-एशियन देश भारत शुरू होकर विदेशी शासन से विमुक्त हो पाए पर औपनिवेशिक शासकों द्वारा स्थापित नौकरशाही के व्यवहारों से नहीं.’ क्या भारत इस कुंठा से मुक्त हो सकता है? हालांकि निकट भविष्य में भी यह संभव नहीं दिखता है किन्तु यदि आगामी कुछ दशकों में यह संभव हो पाए तो नौकरशाही से प्रताड़ित यह राष्ट्र विकास के नये रास्ते एवं प्रतिमानों के निर्माण में अधिक सक्षम होगा.

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