वह तो काल परिवर्तन था

बनवारी

छत्रपति शिवाजी के उदय और मराठा राज्य की स्थापना ने भारत का राजनैतिक परिदृश्य बदल दिया था। अठारहवीं शताब्दी के मध्य तक मराठों के शासन का विस्तार मुगलों से भी बड़े क्षेत्र पर हो गया था। मराठों का शासन हिंदू शासन था, भारतीय शासन था और उसने राजधर्म की अधिकांश पुरानी मान्यताओं को पुनर्स्थापित कर दिया था।

स्थानीय शासन की अनुलंघनीयता फिर स्थापित हो गई थी। स्थानीय शासन को कराधान के अधिकार फिर से प्राप्त हो गए थे और उसका लोकहितकारी कार्यों में उपयोग होने लगा था। मंदिरों की ओर कोई आंख उठाकर नहीं देख सकता था। मजहबी पूर्वग्रह से न्याय करने की प्रथा समाप्त हो गई थी। भारतीय विद्या परंपराओं का और धर्माचार्यों का फिर से सम्मान होने लगा था। इस तरह अठारहवीं शताब्दी भारतीय शासन की पुनर्स्थापना की शताब्दी थी। फिर भी भारतीय पूरी तरह विदेशी तंत्र को उखाड़ने में सफल नहीं हो पाए थे।

मुस्लिम काल में स्थानीय शासन की जगह बाहरी लोगों को मनसबदार बनाकर बिठा दिया गया था। मुगल सत्ता के कमजोर होते ही वह स्वतंत्र शासकों की तरह व्यवहार करने लगे थे। उन्हें हटाकर सत्ता फिर से स्थानीय देशज शक्तियों को सौंपना आसान नहीं था। समय रहते वे राज्याश्रय पाकर स्वयं उभर पाती तभी यह परिवर्तन संभव था। इसलिए ऊपर मराठा सत्ता स्थापित होने के बावजूद स्थानीय और क्षेत्रीय स्तर पर तुर्क-मुगल-अफगान सरदारों की अनेक जगह उपस्थिति बनी रही। दिल्ली में भी मुगल उत्तराधिकारियों की सत्ता बनी रही।

हालांकि वे मराठों से लगाकर जाटों तक अनेक बार पराजित हुए और दिल्ली लुटती रही। पर किसी ने दिल्ली को सदा के लिए हस्तगत करने की कोशिश नहीं की क्योंकि अब वह किसी केंद्रीय सत्ता का प्रतीक नहीं थी। यह सब मराठा राज्य को चौथ देकर शासन में बैठे रहे। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि मराठों को निरंतर युद्ध में पडे़ रहना पड़ा। अपना वर्चस्व स्थापित किए रहने के लिए उन्हें क्षेत्रीय शासकों पर बार-बार आक्रमण करने पड़ते थे।

इस सब में मराठे भी छीजे। उनमें आतंरिक कलह भी उभरने लगी। ऐसा सभी राजसत्ताओं में होता रहता है। अगर मराठों को पचास-सौ वर्ष और शासन करने का अवसर मिला होता तो वे भारत को इस बीच घुसी विदेशी शक्तियों की उपस्थिति से पूरी तरह मुक्त कर चुके होते। लेकिन जब मराठे भारत में अपनी शक्ति बढ़ाने में लगे थे यूरोपीय अमेरिकी महाद्वीप को अपने नियंत्रण में ले चुके थे।

इस सफलता ने न केवल विश्व की एक तिहाई भूमि पर उनका अधिकार जमा दिया था बल्कि उनमें विश्व विजय की एक दुस्साहसिक आकांक्षा भी पैदा की थी। पंद्रह सौ से पहले तक उनकी दुनिया बहुत छोटी थी। कुछ समय पूर्व उनकी अफ्रीका के दास व्यापार में संलिप्तता अवश्य आरंभ हुई थी पर संसार के व्यापारिक मार्गों से वे ठीक से परिचित नहीं थे।

1498 में वास्कोडिगामा ने केरल के तट पर पहुंच कर पहली बार यूरोपीय व्यापारियों के लिए पूर्व का मार्ग खोला था। भारत में पहले पुर्तगाली आए, फिर डच और तब ब्रिटिश और फ्रांसीसी। यह सब प्रतिद्वंद्वी शक्तियां थीं और प्रारंभ में एक-दूसरे से स्पर्धा में ही अपनी शक्ति व्यय करती रहीं। 1617 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को जहांगीर से व्यापार करने की छूट मिली थी। उस समय तक यूरोप के पास भारत को बेचने के लिए कुछ नहीं था। इसलिए उन्हें अपनी खरीददारी के लिए सोने जैसी मूल्यवान धातुओं में ही भुगतान करना पड़ता था। अठारहवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों को तटीय क्षेत्रों में कुछ बस्तियां बनाने में सफलता मिली। लेकिन अठारहवीं शताब्दी के मध्य में उन्हें बंगाल में पलासी की लड़ाई में सफलता मिल गई।

अठारहवीं शताब्दी के उत्तर्राद्ध में ब्रिटिश अन्य यूरोपीय शक्तियों से स्पर्धा में आगे निकल गए। धीरे-धीरे उनकी राजनैतिक शक्ति का विस्तार होता रहा। इस विस्तार में मिली सफलता का पहला कारण यह था कि उन्होंने उन तटवर्ती स्थानों से अपना अभियान आरंभ किया था जिनकी राजनैतिक महत्ता कम थी और वे मुस्लिम हाथों में थे। स्थानीय मुस्लिम शासन के कारण हिंदुओं की सेना में उपस्थिति नहीं थी। अंग्रेजों ने एक लंबे समय बाद हिंदुओं को सेना में भर्ती होने का अवसर दिया था। इसलिए वे अधिक अनुशासित और निष्ठावान सिद्ध हुए। अंग्रेज तटीय क्षेत्रों से हृदय देश की ओर बढ़े थे और उनकी मुख्य रणनीति स्थानीय शक्तियों को एक-दूसरे से लड़ाकर अपने लिए जगह बनाने की थी। ऐसी ही रणनीति उन्होंने मराठाओं के साथ बरती। फिर भी आरंभिक लड़ाइयों में वे मराठाओं से पराजित ही होते रहे। केवल 1817-18 में तीसरी बार की कोशिश में वे मराठाओं को अलग-अलग करके विजित करने में सफल हुए।

यह याद रखा जाना चाहिए कि अंग्रेजों को भारत में कोई बड़ा युद्ध नहीं लड़ना पड़ा। मराठा, मैसूर राज्य, सिख आदि से उन्हें जो लड़ाइयां लड़नी पड़ी वे स्थानीय संघर्ष ही थे। उनमें से अधिकांश को सैनिक झड़प ही कहा जा सकता है। अंग्रेज भारत में अपना शासन स्थापित करने में अपनी कूटनीतिक चालाकी, विश्वासघात और बेहतर तोपखाने के कारण ही सफल हुए। इस सफलता में भी यूरोपीय सैनिकों का नहीं, भारतीयों सैनिकों का ही योगदान था। उन्होंने सत्ता पुणे में केंद्रित मराठा शक्ति को जीत कर प्राप्त की थी। लेकिन उन्होंने अपने आप को मुगल सत्ता का ही उत्तराधिकारी बनाया और दिल्ली इस नई विदेशी सत्ता का फिर केंद्र हो गई। मराठों के समय के शासन की भारतीय व्यवस्थाएं समाप्त कर दी गईं। फिर से मुगलों की तरह का केंद्रीय शासन लागू हुआ जो संचार और परिवहन में हुई प्रगति और अधिक विस्तृत शासन तंत्र के कारण और अधिक प्रभावी व उत्पीड़क हो गया।

इस ब्रिटिश शासन की वास्तविक झलक देखनी हो तो वह उनके शासन काल के दौरान निरंतर घटी अकाल-भुखमरी की श्रृंखला में देखनी चाहिए। बंगाल में उनके शासन की स्थापना के कुछ ही समय बाद 1770 में भयंकर अकाल पड़ा जिसमें एक तिहाई जनसंख्या समाप्त हो गई। लगभग एक करोड़ लोग भूख और अकालजन्य  रोगों से तड़प-तड़प कर मर गए। उसके बाद 1855 में भयानक प्लेग फैली। फिर एक करोड़ आबादी स्वाहा हो गई। उसके कुछ ही वर्ष बाद 1876-78 में अकाल और भुखमरी से फिर उतने ही लोग मरे। 1899-1900 में फिर उतनी ही विकराल स्थिति पैदा हुई और फिर एक करोड़ के आसपास लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी।

ब्रिटिश तंत्र को लोगों के मरने की अधिक चिंता नहीं थी। 1800 में औद्योगिक क्रांति से पहले इतनी ही निरंतरता से ब्रिटेन में भी प्लेग, भुखमरी और महामारी से ऐसे ही लोग मरते थे। लेकिन भारत में लोगों के मरने से राजस्व की जो हानि होती थी उससे चिंतित होकर 1901 में एक अकाल कमीशन बैठा। उसने बताया कि ब्रिटिश नीतियों के कारण 1765 से 1858 तक बारह भीषण अकाल पड़े थे और उसके अलावा अनेक बार सूखे और महामारी ने सीमित पैमाने पर लोगों की जान ली थी।

यह अकाल केवल अनावृष्टि के कारण नहीं पड़े थे। एक प्राकृतिक आपदा के रूप में अकाल सदा पड़ते रहे हैं। लेकिन कुछ अपने और कुछ क्षेत्रीय व राज्य के साधनों से लोग इस अकाल की अवधि से निपटने में सफल हो जाते थे। लेकिन ब्रिटिश शासन के करों के अतिशय बोझ के कारण न स्थानीय साधन बचे न व्यक्तिगत। ब्रिटिश शासन तो ऐसे समय पैसा खर्च करना जानता ही नहीं था। करों का यह बोझ साधारण नहीं था। ईस्ट इंडिया कंपनी और बाद में ब्रिटिश हुकूमत को भारत से निर्यात की भरपाई यहीं के साधनों से करनी थी। वह अतिरिक्त कराधान से ही हो सकता था। स्थानीय साधनों और स्थानीय शासन की अनुपस्थिति से स्थितियां बिगड़ती चली गईं।

ब्रिटिश राज्य की एक और झलक उसने अपने औद्योगिक उत्पाद के लिए किस तरह भारत के उद्योग धंधों का विनाश किया इसमें देखी जा सकती है। यहां ब्रिटिश राज्य के आर्थिक परिणामों की गवेषणा का अवकाश नहीं है। लेकिन ऐसा किस बर्बरता से किया गया इसकी एक झांकी दिखाना आवश्यक है।

उस समय कृषि के बाद भारत में दूसरा बड़ा आर्थिक उद्यम कपड़े का उत्पादन था। ब्रिटेन में भी औद्योगिक क्रांति का आरंभ उसकी कपड़ा मिलों के यंत्रीकरण से ही हुआ था। उस समय विश्व बाजार में ढाका के मलमल की ही नहीं भारत के वस्त्र उत्पाद की बहुत मांग थी। इस प्रतिस्पर्धा को समाप्त करने के लिए बंगाल के हजारों जुलाहों के हाथ काट दिए गए थे। ब्रिटिश इतिहासकारों ने केवल इतना स्वीकार किया है कि सैंकड़ों जुलाहों के अंगूठे काट दिए गए थे। लेकिन प्रश्न निदर्यता के परिमाण का नहीं उसके स्वरूप का है। ब्रिटिश शासन या यूरोपीय जाति कितनी बर्बर थी इसी की यह एक झलक है।

यूरोप की औद्योगिक क्रांति अब शिक्षातंत्र द्वारा यूरोपीय जाति की यशोगाथा बना दी गई है। लेकिन इस औद्योगिक क्रांति के लिए पूरी दुनिया को कितना तबाह होना पड़ा इसकी गाथा लिखने की फुरसत किसी को नहीं है। उन्नीसवीं सदी अगर यूरोप की राजनैतिक और आर्थिक क्रूरता की सदी थी तो बीसवीं सदी उसकी शैक्षिक क्रूरता की सदी है। अंग्रेजी शिक्षातंत्र ने पढ़े-लिखे भारतीय के मन में यह भ्रम बैठा दिया है कि अठारहवीं शताब्दी का भारत एक पिछड़ी सभ्यता थी और यूरोप एक उन्नत सभ्यता। भारत एक उन्नत सभ्यता के हाथों पराजित हुआ और अब अपने उन्नयन के लिए उसे यूरोपीय सभ्यता का अनुकरण करते चले जाना है। मुस्लिम शासक यह भ्रम पैदा नहीं कर पाए थे, अंग्रेजी शासन ने यह भ्रम इतना दृढ़ मूल कर दिया कि उनके जाने के बाद भी हम उस भ्रम से उबर नहीं पा रहे।

अंग्रजों ने भारत को जीता नहीं, अपनी कुटिलता से उसे प्राप्त किया था। लेकिन इस दौर को वैसे भी स्थानीय संघर्षों की जय-पराजय के रूप में देखना सही नहीं है। पिछले हजार वर्ष में यूरोप समेत पूरी दुनिया में बाहरी आक्रमणकारियों द्वारा राजसत्ताएं स्थापित की गई थीं। लेकिन पहले की सभी सत्ताएं क्षेत्रीय सत्ताएं थीं। जिन सत्ताओं का शासन एक अपेक्षाकृत बड़े क्षेत्र पर फैला उन्हें आज के इतिहास लेखन की भाषा में साम्राज्य कहा जाने लगा है। पर वे थी क्षेत्रीय सत्ताएं हीं। इतिहास में पहली बार यूरोपीय जाति ने विश्वभर में अपनी सत्ता के विस्तार का मंसूबा गांठा। उसके लिए उसने हर तरह की क्रूरता बरती। इस औपनिवेशिक अभियान में अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया की मूल आबादी समूची नष्ट कर दी गई और एशिया तथा अफ्रीका में अकथनीय उत्पीड़न हुआ।

जिस समय भारत ब्रिटिश नियंत्रण में पहुंच रहा था, उसी समय डच, ब्रिटिश, फ्रांसीसी और रूसी दुनियाभर को पराभूत करने में लगे थे। उनके यहां कोई उन्नत सभ्यता नहीं थी, युद्ध के उन्नत हथियार थे। चीनियों पर ताना कसते हुए किसी अंग्रेज ने कहा भी था कि जितना कला कौशल उन्होंने अपने सामान्य जीवन को उन्नत करने में दिखाया है उतना तोपखाना सुधारने में लगाते तो आज वे नहीं हम याचक होते। वास्तव में यह काल-परिवर्तन था और उसका निमित्त यूरोप बना था। बाकी सभी लोग उसमें फंस गए। यूरोप के पास कभी कोई सभ्यता-दृष्टि नहीं थी। इसलिए उसने जो शक्ति तंत्र खड़ा किया वह मनुष्य को पशुवत ही देखता है। यह शक्ति तंत्र उसकी एंद्रिक इच्छाओं को पूरी करते हुए उसे अपने विलास में जोते हुए है। गांधीजी ने उसे ठीक ही आसुरी कहा था। हम तो अभी भी आत्म विस्मृति में पडे़ हैं और उसके इस आसुरी स्वरूप को देखने-समझने के लिए तैयार नहीं है।

 

 

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