बाहुबली पूर्व सांसद आनंद मोहन की रिहाई के विरुद्ध दिवंगत आईएएस जी.कृष्णैया की पत्नी उमा कृष्णैया ने उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर कर बिहार सरकार द्वारा कानून में किए गए संशोधन को चुनौती दी है. सुनवाई शुरू हो चुकी है. सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में बिहार सरकार से जवाब मांगा है.
ध्यातव्य है कि बिहार सरकार ने 10 अप्रैल को बिहार जेल मैनुअल 2012 में बदलाव करते हुए सरकारी कर्मचारी की ड्यूटी के दौरान हत्या के मामले में जेल से रिहाई का प्रावधान किया जिसके पश्चात् आनंद मोहन की जेल से रिहाई संभव हुई और उन्हें 27 अप्रैल को रिहा कर दिया गया. उनके साथ ही अन्य 26 दुर्दान्त अपराधी भी मुक्त कर दिये गये जो बलात्कार और हत्या, डकैती जैसे गंभीर मामलों में सजायाफ्ता थे.
आलेख के विषय में प्रवेश से पूर्व उसके आधार को जानना होगा. मृतक जिलाधिकारी जी.कृष्णैया साधारण नहीं थे. वे तेलंगाना के एक गरीब भूमिहीन दलित परिवार में पैदा हुए थे. उनके पिता कुली का काम करते थे. परिवार की आर्थिक स्थिति संभालने के लिए अपने पिता के साथ कृष्णैया भी कुली का काम करने लगे. इसके साथ उन्होंने अपनी पढ़ाई भी जारी रखी. उन्होंने कुछ समय पत्रकारिता भी की. बाद में एक सरकारी दफ्तर में उन्हें क्लर्क की नौकरी मिल गई. यही उन्होंने सिविल सर्विसेज की तैयारी शुरू की और वर्ष 1985 में इस प्रतिष्ठित परीक्षा में सफल भी हुए. उन्हें बिहार कॉडर मिला और पहली पोस्टिंग पश्चिमी चंपारण में हुई. अपनी विशिष्ट कार्यशैली और जनजुड़ाव के चलते वे जल्दी ही लोकप्रिय हो गये. 1994 में उन्हें गोपालगंज का जिलाधिकारी नियुक्त किया गया.
वह वीभत्स घटना 5 दिसंबर, 1994 की है जिसने कृष्णैया का जीवन लील लिया. राज्य में विधानसभा के चुनाव की सरगर्मी थी. हाईवे से एक अपराधी कौशलेन्द्र उर्फ़ छोटन शुक्ला की शवयात्रा गुजर रही थी. जिसकी हत्या राजनीतिक-आपराधिक रंजिश में हुई थी. वह इसी बाहुबली आनंद मोहन की पार्टी बीपीपी के टिकट पर केसरिया सीट से चुनाव लड़ने उतरा था. दुर्योग से उसी समय जी.कृष्णैया पटना से एक चुनावी बैठक में शामिल होकर वापस लौट रहे थे. उत्तेजना का माहौल था. कृष्णैया की सरकारी गाड़ी को देखकर क्रुद्ध भीड़ ने उसे घेर लिया. इसी बीच अपने नेताओं के उकसाने पर लोगों ने उनकी कार पर हमला कर उन्हें इतना पीटा कि कृष्णैया की मौके पर ही मौत हो गई. इस जघन्य कृत्य का मुख्य सूत्रधार यही आंनद मोहन था.
इस मामले में कृष्णैया के परिवार को 12 साल बाद ही सही पर न्याय मिला. वर्ष 2007 में ज़िला एवं सत्र अदालत ने आनंद मोहन को फांसी की सजा सुनाई. आजाद भारत में यह पहला मुकदमा था जिसमें एक जनप्रतिनिधि को मृत्युदंड की सजा हुई थी. हालाँकि बाद में पटना उच्च न्यायालय ने दिसंबर 2008 में फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया. इसके बाद आनंद मोहन ने अपनी सजा कम करवाने के लिए वर्ष 2012 में सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जो ख़ारिज हो गईं. तब से पिछले 15 साल से वह बिहार की सहरसा जेल में सजा काट रहा था. लेकिन अब अपने राजनीतिक रसूख के बूते रिहा हो चुका है.
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार आनंद मोहन की रिहाई से उनसे संबंधित जाति विशेष का महागठबंधन सरकार की दिशा में झुकाव संभव है इसीलिए सरकार उस पर मेहरबान हुई है. आनंद मोहन की रिहाई को राजपूत जाति के सम्मान सरिखा प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है. याद करिये ज़ब विकास दुबे का एनकाउंटर हुआ तब भी उसे ब्राह्मण जाति का नायक साबित करने की कोशिश हुई. यह पहली बार नहीं है जब ऐसे छंटे हुए अपराधी-बदमाशों को जाति विशेष के नायक के तौर पर स्थापित किया जा रहा है. इसकी कहानी बहुत पुरानी है. आंनद मोहन और उस जैसे अनेक राजनीतिक अपराधी एवं स्वयंभू जातीय नेता 90 के दशक में समाजवाद के नाम पर हुए जातिवादी संघर्ष एवं राजनीतिक-आपराधिक गठजोड़ की उपज हैं. उस दौर में जातीय वर्चस्व के नाम पर ‘कम्युनिटी वॉरियर्स’ पैदा हुए जो कि विशुद्ध अपराधी थे. बाद में नेताओं के मार्गदर्शन और जातीय समर्थन के बूते ये जनप्रतिनिधि भी बने.
मार्टिन लूथर किंग जूनियर कहते हैं, ‘कानून व्यवस्था न्याय की स्थापना के लिए होते हैं। और जब वे इसमें नाकाम रहते हैं तो वे खतरनाक ढंग से बने बांध की तरह हो जाते हैं. जो सामाजिक प्रगति के प्रवाह को थाम लेते हैं.’ बिहार में 90 के दशक में यही हुआ था. इसी के दुष्परिणाम स्वरूप बिहार पिछड़ता चला गया. कृष्णैया की हत्या तो उसे अंधयुग का एक उदाहरण भर है.
1966 में इंदिरा गाँधी ज़ब पहली बार प्रधानमंत्री बनी तब उन्होंने कहा था, ‘कभी-कभी मैं सोचती हूं कि काश आजादी के वक्त हिंदुस्तान में भी फ़्रांस या रूस की तरह कोई वास्तविक क्रांति हुई होती.’ यह ठीक भी है क्योंकि समझौते के तहत अंग्रेजों द्वारा स्थानांतरित सत्ता एवं उनकी इच्छानुरूप समझौते में प्राप्त स्वतंत्रता से हम वो मूल्य ग्रहण करने से चूक गये जिनसे हमें क्रांति और स्वतंत्रता का सम्मान की सीख मिलती. उसके अभाव में हमारा तीव्र नैतिक पतन हुआ है जिसने राष्ट्र को इस पतनशीलता की कगार पर ला खड़ा किया है.
आनंद मोहन की रिहाई इस देश के राजनीतिक वर्ग की निर्लज्जता और घटियापन का सबूत है. यहां कोई भी राजनीतिक वर्ग पक्ष या विपक्ष में खड़ा नहीं है. बल्कि जो समर्थक हैं उनको चुनावी लाभ दिख रहा है और जो विरोध में हैं उनका आक्रोश अपनी चुनावी हानि के कारण ही है. आनंद मोहन की रिहाई के लिए महागठबंधन सरकार की आलोचना करने के बजाए भाजपा के नेता भी उन्हें अपनी पार्टी में स्वागत करने को तैयार है. जो थोड़ा बहुत आलोचना का स्वर है वह सिर्फ इसलिए है कि रिहा होने वाला हमारे बजाय विरोधी पक्ष का सहयोगी बनेगा.
इस मामले में आंध्र प्रदेश आईएएस एसोसिएशन ने भी इसका विरोध जताते हुए बिहार सरकार से अपने फैसले पर पुनर्विचार करने की अपील की. वही उमा कृष्णैया ने राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री से दखल देने की अपील की है. उन्होंने न्यायपालिका पर भरोसा जताते हुए कहा कि, ‘वह जरूर इस केस में न्याय करेंगे.’ उनकी बेटी जी.पद्मा ने कहा कि राज्य सरकार के निर्णय गलत बताते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को अपने फैसले पर पुनर्विचार करने को कहा. उनकी अपील वाजिब है.
इस देश में न्यायिक दुर्व्यवस्था के लिए हर बार न्यायपालिका को कटघरे में खड़े जरूरत नहीं है क्योंकि न्यायपालिका ने बहुत हद तक इस देश में लोकतंत्र का सम्मान बनाए रखें. आवश्यकता है कि न्याय के कटघरे में देश के नेतृत्व वर्ग को खड़ा किया जाए और उनसे पूछा जाना चाहिए कि क्या वास्तव उनकी अंतरात्मा जीवित है? क्या उनमें नैतिकता का अंश मात्र भी बचा है? क्या उम्मीद किंचित लोकतंत्र के प्रति निष्ठा शेष है? इस आत्ममंथन से जनता को भी गुजरना होगा. उसे भी अपनी जिम्मेदारी तय करनी होगी. उसे भी यह बताना ही होगा कि क्या उसकी सोच सही दिशा में है? क्योंकि वह लोकतंत्र की अधिष्ठाता है. मतदान का अधिकार तो उसका अपना है जिसे उसने सांप्रदायिकता-जातिवाद के हाथों गिरवी रखा है. तो इस न्याय के कटघरे में वह भी खड़ी होगी.
एक राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग आनंद मोहन की रिहाई को दलित उत्पीड़न से जोड़कर देख रहा है. ये भी कुंठित मानसिकता का ही परिचायक है. यदि जी.कृष्णैया किसी तथाकथित सवर्ण जाति होते तब क्या आंनद मोहन जैसे किसी अपराधी को जेल से रिहा किया जाना नैतिक होता? असल में इस देश में सांप्रदायिकता एवं जातिवाद से ग्रसित राजनीतिक विमर्श कुंठा और ओछेपन के निम्नतम स्तर तक पतित हो चुका है. अगले दो-तीन दशकों तक यही हालात रहें तो एक दिन खंडित राष्ट्र के साथ हम सभी पागलखाने में होंगे. जातिवाद के दुर्घष रोग से पीड़ित जनता की मानसिक विकृति किस स्तर पर पहुंच चुकी है इसका उदाहरण आनंद मोहन की रिहाई पर गूँज रहे वे नारे हैं, जिनमें उसे ‘बिहार का शेर’ एवं ‘बिहार का नेल्सन मंडेला’ कहा जा रहा है.
मूल प्राकृतिक न्याय के आत्मा का निवास हर न्यायिक व्यवस्था में होता है. संभव है कि न्यायपालिका के निर्णय से बिहार सरकार की आत्मा जाग जाए और आनंद मोहन को वापस उसकी सही जगह यानी जेल भेज दिया जाए. पर क्या उससे उमा जी के उस दुख की भरपाई कैसे होगी जो एक लंबी उम्र वैधव्य के रूप में काट दिया. एक बेटी जो पितृत्व प्रेम के सुख से वंचित रह गई. सिर्फ इसलिए क्योंकि कुछ बाहुबलियों की सनक और हनक बरकरार रहनी चाहिए.
वो नेता-बुद्धिजीवी जो हर छोटी-बड़ी घटना पर लीचिंग-लिंचिंग का शोर मचा रहें हैं आज उनकी ज़बान को लकवा मर गया है. ये स्वतंत्र भारत के इतिहास के शर्मनाक अध्यायों में से एक है जहाँ हजारों की भीड़ के सामने एक जिलाधिकारी की मॉब लिंचिंग हो गई. उस दिन सिर्फ एक व्यक्ति की जान ही नहीं गई बल्कि देश के संविधान, सरकार और प्रशासन का इक़बाल भी रसातल में चला गया. ऊपर से आनंद मोहन जैसे दुर्दांत अपराधियों की रिहाई ने इस देश के आम नागरिकों को यह संदेश दिया है कि नैतिकताविहीन राजनीतिक सत्ता, जातिगत गोलबंदी, धनबल एवं बाहुबल का गठजोड़ इस देश के क़ानून, न्यायिक व्यवस्था तथा न्याय की अवधारणा को कभी भी नपुंसक एवं कायर बना सकता है. वह विधानमंडलों और लोकतंत्र के मंदिर में संविधान की धज्जियां उड़ा सकता है.
कृष्णैया. की हत्या मात्र एक नौकरशाह की हत्या नहीं थी बल्कि मेहनती, संघर्षशील युवाओं के संघर्षों तथा सपनों की हत्या की भी हत्या थी. यह इस देश में समानांतर सत्ता चला रहे राजनीतिक अपराधियों के विरुद्ध संविधान एवं कानून की श्रेष्ठता की स्थापना की उम्मीदों की हत्या थी. आनंद मोहन की रिहाई ने यह साबित किया कि इस देश में राजनीति अपने विघटनकारी और संवेदनशीलता की पराकाष्ठा की तरफ अग्रसर है. इससे यह संदेश गया कि इस देश में न्याय की अवधारणा संभ्रांत और शक्तिशाली वर्ग के आगे बेबस है.
इसलिए उमा जी से निवेदन है कि कृपया इस देश से अपने लिए न्याय मत मांगिये क्योंकि यह आपके नैसर्गिक अधिकार के उत्पीड़न का तमाशा उसी उपहास भरी मौन नजरों से देखेगा जिस तरह वह निरंतर संसद और विधानमंडलों में सांप्रदायिकता-जातिवाद रूपी दु:शासन के हाथ रोज लोकतंत्र एवं न्याय की देवी का चीरहरण देखता रहा है. इसलिए निवेदन है कि अपनी वेदना को इस निष्ठुर समाज के समक्ष तमाशा मत बनने दीजिये.
परंतु इस सारी विवेचना से अधिक जरूरी उन जातियों के आत्ममंथन का यह विषय है जिनके नेता के तौर पर ऐसे दुर्दांत अपराधियों को स्थापित किया जाता रहा है. साथ ही कुछ सवाल भी है. जातिगत गोलबंदी और राजनीतिक ध्रुवीकरण को एक तरफ रख दें तो भी जातीय सम्मान के नारे लगाने वालों को स्वयं से यह प्रश्न करना आवश्यक है कि, क्या उनकी जातीय चेतना इतनी छिछले स्तर पर आ चुकी है कि उन्हें अपने समाज के नेतृत्व के लिए विकास दुबे और आनंद मोहन जैसे सर्टिफाइड अपराधी चाहिए? अगर आनंद मोहन एवं विकास दुबे जैसे शातिर अपराधी किसी समाज के प्रतिनिधि अथवा नायक हो सकते हैं तो यकीन मानिये वह समाज अपने वैचारिकी के निम्नतम स्तर की ओर अग्रसर है.
यह सवाल देश की हर जाति के लिए जरूरी है जिनकी भीतर से ‘कम्युनिटी वॉरियर्स’ के आवरण में दुर्दांत अपराधी अपने जाति का नेतृत्व हथियाने का प्रयास करते हैं. क्या इन जातियों को अपने भविष्य को गुंडागर्दी और अपराध की दिशा देनी है या समाज में अध्ययन-मनन द्वारा नये मार्ग तलाशने हैं? इसका निर्णय तो उन्हें करना ही पड़ेगा क्योंकि इतिहास द्वारा निर्धारित यह प्रश्न बारंबार उनके समक्ष तब तक खड़ा होगा जब तक वे इसका समुचित उत्तर नहीं तलाश लेते. उनका जवाब ही उनके भविष्य की दिशा निर्धारित करेगा.
[तहलका से साभार]