नीतीश को एक और कार्यकाल

बनवारी

बिहार के लोगों ने राज्य का शासन चलाने के लिए लालू परिवार के प्रतिनिधि तेजस्वी यादव की जगह एक बार फिर नीतीश कुमार पर भरोसा जताया है। नीतीश कुमार के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को और भी बड़ा बहुमत मिल सकता था अगर चिराग पासवान ने नीतीश के नेतृत्व का विरोध करते हुए उनकी पार्टी के विरुद्ध अपने उम्मीदवार न खड़े किए होते। चिराग पासवान तमाम हो-हल्ला मचाने के बावजूद अपनी पार्टी के विधायकों की पिछली संख्या तक भी नहीं पहुंच पाए। उनकी पार्टी का केवल एक विधायक जीता है। लेकिन उनकी पार्टी को मिले 6 प्रतिशत वोट अगर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के खाते में गए होते तो उसे 25-30 सीट अधिक मिल सकती थीं। तब नीतीश कुमार के जनता दल के विधायकों की संख्या भी राष्ट्रीय जनता दल और भारतीय जनता पार्टी के आसपास ही कहीं होती।

इससे यह बात सिद्ध हो जाती है कि बिहार में नीतीश के शासन से असंतोष की जो हवा बनाई गई थी, वह काफी कुछ काल्पनिक थी। भारत के मतदाता शून्य में नहीं सोचते। बिहार के लोग अपने मुख्यमंत्री के तौर पर नीतीश की जगह तेजस्वी का चुनाव नहीं कर सकते थे। इस चुनाव प्रचार के दौरान लालू शासन के 15 वर्ष पुराने जंगलराज की खूब चर्चा हुई, लेकिन उसके साथ यह भी याद रखने की आवश्यकता है कि तीन वर्ष पहले राजद गठबंधन को छोड़कर नीतीश इसलिए नरेंद्र मोदी की पार्टी के साथ आए थे कि उनकी सरकार में उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने भ्रष्टाचार के एक मामले में अपने ऊपर एफआईआर दर्ज हो जाने के बावजूद अपने पद से इस्तीफा देने से इनकार कर दिया था। नीतीश को समझ में आ गया था कि लालू परिवार को सब नियम-कायदों से ऊपर रखकर शासन नहीं चलाया जा सकता।

इस चुनाव में तेजस्वी यादव के एक शक्तिशाली नेता के रूप में उभरने को अनदेखा नहीं किया जा सकता। उनके गठबंधन को एनडीए के बराबर ही वोट मिले हैं। लेकिन इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि राष्ट्रीय जनता दल का परंपरागत जनाधार-यादव और मुसलमान-अभी लालू परिवार के पीछे एकजुट है। यादव बिहार की एक संख्या बहुल और शक्तिशाली जाति हैं। नीतीश कुमार के पिछले लगभग 15 वर्ष के शासनकाल में उन्हें सत्ता में समुचित भागीदारी नहीं मिली। इसका असंतोष ही तेजस्वी यादव की विशाल जनसभाओं में प्रकट हो रहा था। उसी को गलती से बिहार की समूची जनता का असंतोष समझ लिया गया और चुनावी पंडितों से लगाकर एग्जिट पोल करने वाले संस्थान तक उसके प्रभाव में आ गए।

नीतीश कुमार के लंबे शासन से निश्चय ही बिहार के लोगों में कुछ थकावट पैदा हुई होगी, लेकिन उसकी भरपाई बिहार के लोगों में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता से हो गई। बिहार के इस चुनाव में नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार के प्रभाव को अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता। लोग सामान्यतः अनेक कारणों को मिलाकर ही अपने वोट का निर्णय करते हैं। बिहार के चुनाव के नतीजों से यह माना जाना चाहिए कि राज्य के लोग केंद्र और राज्य दोनों सरकारों के कामकाज से संतुष्ट हैं। इस नाते अब नीतीश कुमार की नई सरकार को अधिक प्रभावी और अधिक प्रतिनिधिक बनाने के बारे में सोचा जाना चाहिए। इस चुनाव ने कुछ नई चुनौतियां पैदा की हैं, उनमें से केवल एक सशक्त विपक्ष है। विपक्ष की सीटें भले न बढ़ी हो, आत्मविश्वास बढ़ा है और वह नई विधानसभा में परिलक्षित होगा।

इस चुनाव से पैदा हुई सबसे बड़ी चुनौती यह है कि सरकार का नेतृत्व नीतीश कुमार के हाथ में होगा, लेकिन विधानसभा में उनकी पार्टी की हैसियत एक कनिष्ठ सहयोगी की ही होगी। इससे स्वाभावतः कुछ मनोवैज्ञानिक समस्याएं पैदा होंगी। भाजपा के विधायकों की महत्वाकांक्षा बढ़ेगी और वे केवल सरकार में अपनी शक्ति के अनुपात में दिए गए पदों से संतुष्ट नहीं होंगे। भाजपा में ऐसे कई नेता हैं, जो नीतीश कुमार के नेतृत्व के सामने समस्याएं पैदा करते रहेंगे। इसी तरह नीतीश की पार्टी में यह भावना बनी है कि चिराग पासवान को भाजपा के केंद्रीय नेताओं ने बढ़ावा दिया, ताकि राज्य में नीतीश का कद छोटा किया जा सके। पर चिराग पासवान के विद्रोह में भाजपा के केंद्रीय नेताओं का षड्यंत्र देखना उचित नहीं है।

चिराग पासवान का विद्रोह इतना खुला और सीधा था कि उसे किसी षड्यंत्र का परिणाम नहीं कहा जा सकता। जब किसी नेता की महत्वाकांक्षा उसे इतनी नकारात्मक दिशा में ले जाए तो उसका कुछ नहीं किया जा सकता। अगर भाजपा ने चिराग पासवान के विरुद्ध कड़ा रुख दिखाया होता तो उससे न केवल उनकी पार्टी के जातीय आधार में कड़वाहट पैदा हुई होती बल्कि भाजपा निचली जातियों में अपनी विश्वसनीयता को भी नुकसान पहुंचा रही होती। सबसे अच्छा यही है कि इसे एक अप्रिय घटना की तरह भुला दिया जाए। भाजपा और नीतीश की पार्टी के नेता उससे जल्दी से जल्दी उबरकर शासन की अगली नीतियों के बारे में सोचे। अगर उनमें परस्पर अविश्वास बना रहता है तो वे शासन को अपेक्षित दिशा नहीं दे पाएंगे और उसका नुकसान किसी एक को नहीं दोनों को होगा।

बिहार में भाजपा को पहली बार इतनी अधिक सीटें मिली हैं। इसमें निश्चय ही नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का योगदान है, पर बिहार में पार्टी का जनाधार भी निरंतर बढ़ रहा है। बिहार में भाजपा को अगड़ी जातियों की पार्टी माना जाता था। यह जनाधार उसे मुख्यतः कांग्रेस का जनाधार बिखरने से मिला था। लेकिन पिछले दिनों उसने पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों में भी अपना जनाधार बनाया है। यह जनाधार उसे कांग्रेस के बिखरने के अलावा नीतीश कुमार की पार्टी के कमजोर पड़ने के कारण भी मिला होगा। नीतीश कुमार की पार्टी का मूल आधार राज्य के कुर्मी और उनकी सहयोगी जातियां हैं। पर 2010 के चुनाव के समय नीतीश कुमार की लोकप्रियता शिखर पर थी और उन्हें अति पिछड़ी जातियों का ध्यान आकर्षित करने में काफी सफलता मिली थी। इन जातियों में मोदी सरकार की कल्याणकारी नीतियों के कारण भाजपा को भी पैठ जमाने में सफलता मिली है। आने वाले समय में भाजपा नीतीश की पार्टी के और बड़े जनाधार को अपनी ओर खींचने में सफल हो सकती है। यह नीतीश की चैथी पारी है और वे कह चुके हैं कि यह उनका अंतिम चुनाव है।

नीतीश अपनी पार्टी में अपना कोई योग्य उत्तराधिकारी पैदा नहीं कर पाए। परिवारवादी राजनीति से वे दूर रहे हैं और उनके परिवार का कोई सदस्य उनकी राजनैतिक विरासत पाने का आकांक्षी भी नहीं है। इस नाते भाजपा को नीतीश के साथ सहयोग करके उनके निचली जातियों के जनाधार को अपनी ओर आकर्षित करने में सफलता मिल सकती है। पर भाजपा को इन जातियों के बीच से कुशल नेतृत्व को पचाना और आगे बढ़ाना होगा। भाजपा को इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।

इस बार के चुनाव में तेजस्वी यादव ने बेरोजगारी को एक बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश की थी। संचार माध्यमों ने तेजस्वी यादव के दस लाख नौकरियां देने के वादे को काफी प्रचारित किया और उससे एक झूठी आशावादिता पैदा हुई। किसी सरकार के लिए इस तरह नौकरियां बांटना संभव नहीं हो सकता। सरकारें अपनी नीतियों के द्वारा कामधंधे के अवसर बढ़ा सकती हैं, नौकरियां नहीं दिला सकतीं, इसलिए इस तरह की नारेबाजी से बचना चाहिए। बिहार पर जातिवादी राजनीति का आरोप भी लगाया जाता है। जाति को हमेशा गलत रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है।

जाति भारतीय समाज की मूल इकाई है और इस रूप में वह उसके संगठन का आधार है। पिछले 70 वर्षों में जाति के द्वारा ही राजनैतिक शक्ति को निचले से निचले स्तर तक पहुंचाने में सफलता मिली है। जाति के कारण ही स्थानीय नेतृत्व को उभरने का अवसर मिलता है। तीस वर्ष पहले तक बिहार के मुख्यमंत्री का निर्णय दिल्ली में बैठे लोग ही करते थे। श्री कृष्ण सिंह को छोड़कर कोई मुख्यमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया था। साल दो साल में मुख्यमंत्री बदले जाते रहे हैं। पिछले 30 वर्ष से बिहार के मुख्यमंत्री का निर्णय दिल्ली में बैठे लोग नहीं बिहार के लोग कर रहे हैं। निश्चय ही उसकी भी कुछ समस्याएं हैं। लालू-राबड़ी शासन में यादव राज को जंगल राज में बदलने में देर नहीं लगी थी। लेकिन अंततः उसका विकल्प राज्य के भीतर ही पैदा हुआ।

यह मात्र एक संयोग था कि लालू और नीतीश दोनों का पहली बार चुनाव दिल्ली के नेताओं ने ही किया था। क्योंकि हमारी राजनीति का स्वरूप ही ऐसा है। लेकिन अपने जातीय आधार के कारण उन्हें राज्य स्तर पर अपने आपको स्थापित करने में देर नहीं लगी। लालू को भी इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने राजनैतिक शक्ति को नेताओं के एक छोटे से दायरे से निकालकर एक बड़े वर्ग तक पहुंचाया। अगर वे परिवारवाद और यादव वाद से उबर पाए होते तो और बड़े नेता होते। वे यह भूल गए कि जातीय नेताओं की अगली चुनौती सर्वजातीय नेता होने की होती है। भारतीय राजनीति को जातिविहीन नहीं इस सर्वजातीय होने की ओर ही बढ़ना है। भाजपा समेत सभी दलों को यह बात समझ में आनी चाहिए।

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