भाऊराव देवरस सजीव अस्तित्वरूप

रामबहादुर राय

भाऊराव देवरस लखनऊ आए थे। पुराने कुछ सहयोगी उनसे बात कर रहे थे। अचानक वे बोल पड़े, ‘सुनो! डॉ. हेडगेवार की पीढ़ी के लोग एक-एक कर चले गए। दो-चार बचे हैं। मेरा नंबर तो पहले है।’ यह बात है, 9 मार्च, 1992 की। कुछ दिनों बाद ही पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जन्मस्थली नगला चंद्रभान में वे अस्वस्थ हो गए। जहां ग्राम स्वराज की प्रगति देखने दिल्ली से गए थे। सहयात्री थे, अटल बिहारी वाजपेयी। वे लौटे। जिस अस्पताल में भर्ती हुए वह उस समय एक तीर्थ बन गया था।

19 मई, 1992 को भाऊराव देवरस शरीर छोड़ दिया। अदृश्‍य परंतु सजीव अस्तित्व के अंग बन गए। उन्होंने लखनऊ से अपनी जीवन यात्रा शुरू की थी। वहीं उन्हें उसके अंत का आभास हो गया, तभी तो पहले ही इसकी घोषणा कर दी। वे 1937 में लखनऊ आए थे। एक पंथ दो काज को साकार करना लक्ष्य था। विश्‍वविद्यालय की पढ़ाई और संघ कार्य का उत्तर प्रदेश में बीजारोपण। डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार की योजना में वे वहां पढ़ने और संघ कार्य के लिए आए थे। डॉ. हेडगेवार का जब रोग बढ़ा तो वे उनकी देखभाल के लिए नागपुर पहुंचे। एक दिन डॉ. हेडगेवार ने उनसे कहा, ‘भाऊ! उत्तर प्रदेश में संघ कार्य तुम्हें बढ़ाना है।’ यह निर्देश उनका जीवन व्रत बना। डॉ. हेडगेवार के निधन के बाद गुरुजी ने भाऊराव देवरस को उत्तर प्रदेश का दायित्व सौंपा।

बीते तीन साल से सामाजिक कार्य की जो तपस्या भाऊराव देवरस कर रहे थे, उसकी यह विधिवत घोषणा थी। इन तीन सालों में उन्होंने संघ की अनेक शाखाएं प्रारंभ करा दी थीं। उनमें एक कानपुर की शाखा थी। जहां 1938 में पंडित दीनदयाल उपाध्याय संघ के स्वयंसेवक बने। कानपुर के राजनीतिक इतिहास से रंच मात्र भी जिन्‍हें परिचय होगा, वे इसे पढ़कर चकित हुए बिना नहीं रह सकते, क्योंकि तब कानपुर कांग्रेस और कम्युनिस्टों का गढ़ था। वहां सांस्कृतिक हिन्दू राष्‍ट्र की पताका फहराना क्या सरल कार्य रहा होगा! भाऊराव के एक तप:पूत सहयोगी ने एक बार बातचीत में कहा कि ‘डॉक्टर साहब (डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार) कैसे थे? यह तो मैंने देखा न था, लेकिन भाऊराव को देखकर मैं उनकी सहज ही कल्पना कर लेता था। वे डॉक्टर जी की साक्षात प्रतिमूर्ति ही तो थे।’

भाऊराव देवरस चलते-फिरते विश्‍वविद्यालय थे। वे आचार्य भी थे और संस्थान भी। अपने व्यवहार से कार्यकर्ता गढ़ते थे। उसे अपना संरक्षण देते थे। जब तक वह पौधे की अवस्था में होता था तब तक उसकी देख-रेख वे स्वयं करते थे। इस  प्रक्रिया से अनगिनत कार्यकर्ता उन्होंने निर्मित किए। जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जहां उनकी प्रयोगशाला-कार्यशाला से निकले लोग न हों। वे सर्वत्र हैं, भूतल से शिखर तक। एक छोर से दूसरे छोर तक। वे निजता में व्यक्ति हैं और समूह में समाज के शिल्पी। उन लोगों के लिए भाऊराव देवरस भगवान थे। ऐसे कि उनमें ठहराव नहीं, बहाव और विकास था। भगवान और क्या होता है!

उनका जीवन धर्ममय राजनीति का था। अपने कर्ममय जीवन से उन्होंने राजनीति, धर्म, और संन्यास की अनुकरणीय परिभाषा दी। अपने आचार, व्यवहार और संस्कार से उन्होंने सिखाया कि समूह में जो घटता है वह राजनीति है। व्यक्ति में जो घटित होता है वह धर्म है। उसी भावभूमि पर जो आडंबर रहित जीवन जीता है वह संन्यास है। लखनऊ विश्‍वविद्यालय छात्रसंघ के इतिहास में एक घटना ऐसी है जो अविस्मरणीय बनी रहेगी। नेताजी सुभाष चंद्र बोस छात्रों के निमंत्रण पर वहां आए। नारा लगा-वंदे मातरम्। उस आयोजन के सूत्रधार भाऊराव देवरस थे। उनके स्वागत में भाऊराव देवरस का भाषण हुआ। जिससे नेताजी सुभाष चंद्र बोस इतने प्रभावित हुए कि अपने संबोधन में वे उनकी बार-बार प्रशंसा करते रहे। यह 1938 का प्रसंग है।

स्वतंत्रता आई। सपना अखंड भारत का था। भारत विभाजित हुआ। महात्मा गांधी की हत्या हुई। विभाजन और महात्मा गांधी की हत्या से आंख चुराने के लिए पंडित जवाहरलाल नेहरू को एक ही उपाय सूझा। वह यह कि राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर दोष मढ़ दो और छुट्टी पा जाओ। इसलिए संघ पर प्रतिबंध लगा। भाऊराव देवरस ने प्रतिरोध में सत्याग्रह का नेतृत्व किया। वे कानपुर की कचहरी में पहुंचे। उनके साथ सैकड़ों स्वयंसेवक थे। नेहरू सरकार से संवाद में संघ के संविधान की आवश्‍यकता पड़ी। उसे भाऊराव देवरस ने ही बनवाया। गणेश थे, पंडित दीनदयाल उपाध्याय। संघ पर दूसरा प्रतिबंध नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी ने लगाया। तब लोकतंत्र की बहाली के लिए भूमिगत आंदोलन का नेतृत्व भाऊराव देवरस ने किया। तानाशाह इंदिरा गांधी की पुलिस भाऊराव देवरस को बंदी नहीं बना सकी। इंदिरा गांधी ने अपनी पराजय मानी और सत्ता में वापसी के बाद राजीव गांधी को गुरुदक्षिणा सहित भाऊराव देवरस के पास भेजा। यह 1980 का प्रसंग है।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Name *