लोकतंत्र की अगस्त क्रांति

रामबहादुर राय

इतिहास बोध क्या है? इसे अपनी आंखों से देखना हो, तो तीनमूर्ति परिसर में एक दिन पूरा गुजारें, सुबह से शाम तक। इससे कम समय में उस परिवर्तन को नहीं महसूस किया जा सकता, जो बीते पांच सालों में वहां हुआ है। यह पांच साल क्या है? इसे भी जानना चाहिए। 2018 वह साल है, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस परिसर के कायाकल्प की नींव रखी। उस समय भी अनेक विरोधी स्वर उभरे। वे हवा में विलीन हो गए हैं। उनकी कोई अनुगूंज सुनाई नहीं पड़ती। वे स्वर शून्यवत हो गए, क्योंकि असत्य पर आधारित थे। सत्य अचानक प्रकट नहीं होता। वह पहले अपनी आभा बिखरेता है। फिर सूर्योदय होता है। उसकी रोशनी में सत्य को देखना संभव हो जाता है।

यही आज हो रहा है। इसलिए यह साल जितना महत्वपूर्ण है, उतना आजाद भारत के इतिहास में कोई-कोई साल ही महत्वपूर्ण माने जाएंगे। इसे समझने और जानने की जरूरत है। इतिहास में लौटेंगे  तो 1962 को अपनी पराजय के लिए याद करेंगे। लेकिन 1971 को भारत की विजय का साल भी होने का गर्व है। ऐसे अनेक उदाहरण हो सकते हैं। उनकी लंबी सूची हो सकती है। यहां अपना मकसद सिर्फ एक है। उस कड़ी में जो नया इतिहास रचा गया है, उसे याद करना। इस लिहाज से 2023 का अगस्त भारत के इतिहास में दो बातें जोड़ गया है। वे दोनों ऐतिहासिक हैं। चांद के दक्षिण धु्रव पर चंद्रयान का उतरना अवश्य ही आकाश  में भारत के तिरंगे को फहराने की घटना है। वह भविष्य  में  याद की जाती रहेगी।

उसी तरह राजधानी दिल्ली में विधिवत प्रधानमंत्री संग्रहालय का बनना भी कई रूपों में एक ऐतिहासिक घटना है। क्या कोई सोच सकता था कि एक पूर्व प्रधानमंत्री के नाम से बना संग्रहालय ऐसा विस्तार पा सकता है? नेहरूयुगीन भारत में इसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी। क्यों? यही समझने की बात है। एक विवरण से यह स्पष्ट हो सकेगा। अगस्त क्रांति के 50 साल के पहले वाले साल में कई सप्ताह मैंने नेहरू संग्रहालय और पुस्तकालय में बिताए। खोजबीन कर जो लिखा वह जनसत्ता में छपा। अनेक खबरें छपी और कुछ लेख भी संपादकीय पेज पर छपे।

तब और अब में जमीन-आसमान का फर्क आ गया है। वह साल नेहरूयुगीन भारत की श्रृंखला में था। तब से 32 साल गुजर गए हैं। उस समय तीनमूर्ति परिसर में नेहरू संग्रहालय था, लेकिन उसमें आता-जाता कोई नहीं था। कुछ खास लोग आते थे। वे कांग्रेस के पदाधिकारी होते थे। उनके आने का भी कोई न कोई प्रयोजन होता था। आज जिस तरह दूर-दराज से लोग प्रधानमंत्री संग्रहालय देखने आ रहे हैं, वैसा उस समय कोई आकषर्ण नहीं होता था। सन्नाटा पसरा रहता था। उसे पढ़ने-लिखने वाले समुदाय थोड़ा तोड़ते थे। वे आते थे क्योंकि उनकी मंजिल वह होती थी जहां पुस्तकालय बना है। वे उस हिस्से में आते थे। यह भी अब जानने की बात है कि इतिहास के विद्यार्थी रहे हरिदेव शर्मा ने अपने खून पसीने से उस पुस्तकालय को बनाया था। उसका परिणाम था और आज भी है कि पुस्तकालय विश्व प्रसिद्ध है। आधुनिक भारत के इतिहास को जिसे जानना होता है वह टहलते हुए यहीं आता है। किस तरह यह परिसर नेहरू खानदान की जागीर बनती गई, इस पर गहन शोध  की जरूरत है। उन दिनों जो भी नेहरू संग्रहालय के पास आए होंगे, उन्होंने देखा होगा और उनको यह दिखाया भी जाता था कि नेहरू खानदान के हर नाम पर गैस अथॉरिटी ऑफ इंडिया की सहायता से तीन ज्योतियां जलाई जाती थी। नेहरू जी के लिए ज्योति जले, इस पर किसी को एतराज  नहीं होना चाहिए। लेकिन उनके खानदान के हर नाम पर ज्योति का क्या कोई औचित्य है।

एक खानदान की जागीर बन गई इस जगह का जैसे ही लोकतांत्रिकरण किया जाने लगा कि दस जनपथ की बेचैनी बढ़ गई। उसके प्रवक्ता अनाप-सनाप बोलने लगे। उन्हें ऐसे लगा कि वे निराधार बातें बोलकर उस रथ को रोक लेंगे जो परिवर्तन का है। वह रथ रूका नहीं, बल्कि सहज, मंथर, परंतु निरंतरता में चल रहा है। परिवर्तन की एक प्रक्रिया होती है। उसमें समय लगता है। जितना समय लगता है उतना ही उस दौर में सूझबूझ की जरूरत होती है। इन बातों का प्रत्यक्ष दर्शन  यहां आकर कोई भी कर सकता है। तीनमूर्ति चौराहे से सैकड़ों लोग, यह कहना नाकाफी होगा, सच यह है कि हजारों लोग रोज गुजरते हैं। चौराहा वही है लेकिन उसका नजारा बदला हुआ है।

उस चौराहे से आते-जाते कोई भी देख सकता है कि नवनिर्माण चल रहा है। जिस दिन वह पूरा होगा, उस दिन परिवर्तन का एक चरण पूरा हो जाएगा। तब अनाम को नाम मिलेगा। क्या है, वह नाम। ब्रिटिश  जमाने का जो ऊंचा फाटक था, उसे प्रधानमंत्री संग्रहालय के अनुरूप बनाया जा रहा है। यह ध्यान देने की बात है। जैसे प्रकृति में परितर्वन होता है, ठीक वैसे ही तीनमूर्ति परिसर में परिवर्तन की प्रक्रिया पांच साल से चल रही है। सबसे पहले नेहरू संग्रहालय का कायाकल्प हुआ। वह अब इतिहास बोध का साक्षी है। उसके बाद वह नई इमारत बनी, जिसे प्रधानमंत्री संग्रहालय नाम मिला। इसे अगर नेहरू जी के निवास और उनके निधन के बाद की घटनाओं के संदर्भ में देखें, तो पाएंगे कि तब ढंग सामंती था। अब तरीका लोकतांत्रिक है।

इसे तुलनात्मक रीति से जानना चाहिए। नेहरू जी के निधन के बाद भारत सरकार के राजनीतिक नेतृत्व ने निर्णय किया कि तीनमूर्ति परिसर में नेहरू स्मृति सुरक्षित रखी जाएगी। आज यह जानकर कोई भी चकित हो सकता है कि उस आवासीय परिसर को करीब तीन दशक तक अवैध तरीके से एक संस्था में बदल दिया गया। 1964 में तीनमूर्ति परिसर प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल  नेहरू का निवास था। इसलिए वह परिसर भारत सरकार के नियमों में आवासीय था। जरूरी था कि उसे सरकारी कागजातों में आवासीय से संस्था की श्रेणी में डाला जाए। ऐसा तब हुआ, जब सांसद मोहन सिंह ने एक प्रश्न पूछा। संस्कृति मंत्री अर्जुन सिंह ने जवाब देने की बजाए उसे टाला और बताया कि सूचना एकत्र की जा रही है। किसी मंत्री को जवाब नहीं देना होता है, तो वह यही बात कह कर अपना पिंड छुड़ा लेता है।

संसदीय प्रक्रिया में मंत्री का यह जवाब सदन को आश्वासन होता है। आश्वासन समिति उसकी जांच करती है। 1992 में आश्वासन समिति ने जांच की और पाया कि सचमुच नेहरू संग्रहालय और पुस्तकालय एक आवासीय परिसर में चल रहा है। सरकार की इस असावधानी पर ध्यान खींचने के लिए आश्वासन समिति ने सांसद को धन्यवाद दिया। अपनी संस्तुति में कहा कि आवास मंत्रालय इस भूल को सुधारें और करीब तीन दशक तक का किराया संस्कृति मंत्रालय से वसूले। वैसा ही हुआ भी। तब कहीं जाकर यह परिसर संस्था की श्रेणी में आ सका। भला सोचिए, ऐसा कैसे हो सका? इसे असावधानी वह कहेगा, जो सबसे नम्र और निरहंकारी होगा। लेकिन लोकतंत्र की शब्दावली में इसे सामंतवाद का सबूत और सिलसिला का एक जीवंत प्रमाण कहना उचित होगा।

यह पुराना उदाहरण है। नया इससे भिन्न है। नए का संबंध 2023 की ‘अगस्त क्रांति’ से है। यह लोकतांत्रिक क्रांति है। यह विधि और विधान में निर्धारित प्रक्रिया का पालन है। वह क्या है? संग्रहालय की एक आम सभा है। प्रधानमंत्री उसके अध्यक्ष हैं। उपाध्यक्ष इस समय जो हैं, वे रक्षामंत्री राजनाथ सिंह हैं। एक कार्यकारी परिषद है। इसके अध्यक्ष नृपेंद्र मिश्र हैं। ये दोनों नियम-कानून से चलने के लिए जाने जाते हैं। संग्रहालय के विधान में परिवर्तन के लिए जो तरीका निर्धारित है, उसका पालन करते हुए नाम बदला गया है। इसके लिए सोसायटी की आम सभा बुलाई गई। उसकी अध्यक्षता राजनाथ सिंह ने की। संग्रहालय के निदेशक ने एजेंडा पहले ही भेजा था। बैठक में उसे उन्होंने उसे पढ़कर सुनाया। पूरी प्रक्रिया का पालन हुआ। एक बार निर्णय हुआ।

दूसरी बार सोसायटी की आम सभा ने उसकी पुष्टि  की। लेकिन कांग्रेस के प्रवक्ता इसे महत्व नहीं देते और  मानना भी नहीं चाहते। ऐसा क्यों है? इसलिए है कि वे अपने प्रवक्ता नहीं हैं। उनका प्रश्न यह नहीं है कि मैं अपने प्रति इमानदार हूं? वे प्रश्न  पूछते हैं, स्वयं से कि क्या मैं दस जनपथ के प्रति निष्ठावान हूं? अगर जयराम रमेश सही प्रश्न  पूछते तो वे कांग्रेस में एक क्षण के लिए भी रह नहीं सकते। उन्हें बाहर का दरवाजा दिखा दिया जाएगा जैसाकि गुलाम नबी आजाद के साथ हुआ है। उन्होंने अपने से सवाल पूछा। एक लोकतांत्रिक व्यक्ति दूसरों से सवाल नहीं पूछता। पहले खुद से सवाल पूछता है। यहां धारा उलटी है। वह कांग्रेस की धारा है। उसी की देखा देखी दूसरी पार्टियों में भी खुद से सवाल कहां कोई पूछ रहा है! लेकिन कांग्रेस को क्या अधिकार है कि वह प्रधानमंत्री संग्रहालय पर प्रश्न उठाए?

होना तो यह चाहिए कि कांग्रेस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को धन्यवाद दे। वह चाहे तो तीनमूर्ति परिसर में जो जीवंतता आई है, उसके लिए नृपेंद्र मिश्र का आभार मानें। कांग्रेस कार्य समिति एक प्रस्ताव पारितकर सकती है कि इस परिवर्तन का स्वागत है। इसके लिए भारत सरकार का धन्यवाद। तब कांग्रेस लोकतंत्र की डगर अपनाती। एक लोकतांत्रिक सहयोग का वह सकारात्मक रूख होता। कांग्रेस ने इसके विपरीत रूख अपनाया है। यह उसका अपना तरीका है। लेकिन इस सच्चाई से वह भी मुंह नहीं मोड़ सकती कि तीनमूर्ति परिसर में जो जीवंतता आ गई है, उससे नेहरू का इतिहास में स्थान न केवल सुरक्षित हुआ है, बल्कि विलुप्त होने से बच गया है। कैसे? इस तरह कि नेहरू संग्रहालय जैसा था, अगर वैसा ही उसे छोड़ दिया जाता, तो उसका निरंतर संकुचन होता जाता। संकुचन मृत्यु है। विस्तार जीवन है। प्रधानमंत्री संग्रहालय में लोकतंत्र की जीवंतता स्थापित हुई है। उसका स्पंदन परिसर में अपनी अनुभूति करा रहा है।

 

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