यादों में अटल

देवेन्द्र स्वरूप

आखिरकार, अटल जी ने 16 अगस्त (2018) को 5 बजकर 5 मिनट पर दिल्ली के एम्स अस्पताल में यमराज को अपना पार्थिव शरीर ले जाने की अनुमति दे ही दी। यम से उनका संघर्ष अंतिम समय तक चला।

इस संघर्ष ने पत्रकार विजय त्रिवेदी द्वारा लिखित अपनी जीवनी के इस शीर्षक को पूर्णत: सार्थक कर दिया कि ‘हार नहीं मानूंगा’। अटलजी की इस पुरानी कविता की दूसरी पंक्ति है ‘पर रार नहीं ठानूंगा’।

अटल जी का लंबा सार्वजनिक जीवन इन दोनों पंक्तियों की बोलती साक्षी है। अद्भुत वकृत्व कला उन्हें विधाता ने जन्म से ही दे दी थी। इसे पाने के लिए उन्हें कोई साधना नहीं करनी पड़ी, आंदोलन का रास्ता नहीं अपनाना पड़ा।

1957 में जब वे पहली बार लोकसभा में पहुंचे, तब नेहरू जी भारत के प्रधानमंत्री थे। लोकसभा में अटल जी की वकृत्व प्रतिभा ने ही उन्हें बहुत प्रभावित किया था।

एक भाषण में अटलजी ने कहा था कि ‘मैंने सुना है कि नेहरूजी रोज प्रात: शीर्षासन करते हैं। यह तो बहुत ही अच्छी बात है, पर मेरी उनसे एक ही प्रार्थना है कि शीर्षासन करते समय वे मेरी पार्टी की छवि को उल्टा करके न देखें।’

लोकसभा में अपनें एक भाषण में अटल जी ने कहा था कि ‘मैंने सुना है कि नेहरूजी रोज प्रात: शीर्षासन करते हैं। यह तो बहुत ही अच्छी बात है, पर मेरी उनसे एक ही प्रार्थना है कि शीर्षासन करते समय वे मेरी पार्टी की छवि को उल्टा करके न देखें।’ अटलजी के इस वाक्य पर पूरे सदन के साथ नेहरू जी भी खिलखिलाकर हंसे बिना नहीं रह सके।”

अटल जी के इस वाक्य पर पूरे सदन के साथ नेहरू जी भी खिलखिलाकर हंसे बिना नहीं रह सके। उनकी अल्हड़ वेशभूषा और भावुक कवि व्यक्तित्व बाहर से उनकी जो छवि प्रस्तुत करता है, उनका अंन्तर्मन उतना ही गंभीर और विचारशील था।

मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में संघ का प्रचारक था। मुझे स्मरण आता है कि सन् 1948 में जब उत्तर प्रदेश के प्रांत प्रचारक भाऊराव देवरस ने मुझे लखनऊ बुलाकर आदेश दिया था कि हम काशी से एक हिंदी साप्ताहिक शुरू करने जा रहे हैं।

तुम उसके संपादकीय विभाग में काम करो। यह आदेश सुनकर मैं चौंक गया। मैंने कहा, भाऊराव मेरे पास पत्रकारिता का कोई अनुभव नहीं है। मैंने बीएससी की पढ़ाई की है।

भाऊराव ने कहा, इसकी चिंता मत करो। सब चीज सीखने से आती है। यहां लखनऊ में दीनदयाल जी हैं, तुम कुछ समय उनके पास बैठो। पत्र का सम्पादन अटल जी करेंगे।

तुम उनके मार्गदर्शन में काम करते हुए पत्रकारिता की कला सीख जाओगे। भाऊराव से यह आश्वासन पाकर मैं काशी पहुंच गया और अटल जी के सहायक के नाते चेतना साप्ताहिक में काम करने लगा।

चेतना के संपादक के नाते अटलजी का नहीं, काशी के एक संघ कार्यकर्ता राजाराम द्रविड़ का नाम छपता था। हम दोनों उन्हीं के घर में रहते थे। राजाराम जी आगे चलकर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में दर्शन शास्त्र के प्राध्यापक बने।

चेतना का कार्यालय आस भैरव पर होता था। रोज शाम को हम दोनों चेतना कार्यालय से राजाराम जी के घर जाते थे, उस गली में ‘राम भंडार’ नामक मिठाई की दूकान थी जहां मेवा और खोये से बनी मिठाइयां हमें बहुत ललचाती थीं।पर, उन दिनों बहुत आर्थिक तंगी थी इसलिए वह दूकान आने के पहले ही अटल जी बड़े मस्ती के अंदाज में कहते, ‘यार मुंह घुमा लो, वे कमबख्त हमें ललचाने आ रहे हैं।’

द्रविड़ जी के घर में एक बड़े दालान में झूला था। अटल जी कुर्ता उतारकर बनियान पहने उस झूले पर बैठकर पींगें लगाते। पर उनके भीतर विचार मंथन चलता रहता था, कभी-कभी वे बुदबुदा उठते, ‘कोई न कोई रास्ता तो हमें चुनना ही होगा। क्या हम रामकृष्ण मिशन की राह पर चलेंगे या राजनीति में उतर कर संघर्ष का रास्ता अपनाएंगे?’

“13 दिन बाद सरकार को विश्वास मत प्राप्त करना था, विश्वास मत पर चर्चा के दौरान हर दल के नेता ने कहा कि अटल जी इज राइट मैन इन रांग पार्टी अर्थात उन्हें अटल जी पसन्द थे पर भाजपा नहीं।”

संघ पर प्रतिबंध लगा हुआ था। संघ के अधिकांश कार्यकर्ताओं का मन राजनीतिक संघर्ष का रास्ता अपनाने के लिए मचल रहा था किंतु सरसंघचालक श्री गोलवलकर को राजनीति से घोर विरक्ति थी। लगभग दो वर्ष तक संघ के भीतर ‘संस्कृति या राजनीति’ बहस चलती रही। जुलाई 1949 में संघ पर से प्रतिबंध हटा लिया गया और तब यह बहस खुले में आ गई थी। मुझे स्मरण है कि उत्तर प्रदेश में संघ प्रचारकों की प्रत्येक बैठक में अटल जी और उनके पीछे-पीछे मैं भी प्रश्न पूछा करते। हम दोनों की गणना आलोचकों में होने लगी, एक बार भाऊराव ने अटल जी को निहारते हुए कहा कि अटल, मुझे लगता है कि तुम्हें अखबार से हटाकर फील्ड में भेंज दें।

अटलजी ने मुस्कुराते हुए तत्काल उत्तर दिया कि ‘भाऊराव आप मुझे कानपुर के कालेज से फील्ड के लिए नहीं, राष्ट्रधर्म मासिक के लिए लाए थे।’

जून 1967 में मुझे ‘आर्गनाइजर’ के संपादक स्व. केआर मलकानी ने मिलने को बुलाया। उन दिनों आर्गनाइजर का कार्यालय कनाट प्लेस के मरीना होटल में किराये पर चलता था।

मैं गया तो उन्होंने कहा कि पाञ्चजन्य का संपादकीय विभाग लखनऊ से दिल्ली लाने का निर्णय हुआ है। अटल जी ने कहा कि उसके सम्पादन का दायित्व मुझे दिया जाए। मैं कॉलेज में वेतन भोगी प्राध्यापक था। इसका हल निकाला गया।

कई महीने तक पाञ्चजन्य के संपादक के रूप में मलकानी जी का नाम छपता रहा। किन्तु जब डीएवी मैनेजमेंट कमेटी ने मेरा नाम छापने की अनुमति दे दी तब मेरा नाम छपना शुरू  हुआ।

उन्हीं दिनों की बात है कि पाञ्चजन्य के एक अंक में हमारे कार्टूनिस्ट रंगनाथन ने कम्युनिस्ट नेता भूपेश गुप्ता को कुत्ता बनाकर उनके गले में रूसी गुलामी का पट्टा पहना दिया।

अटल जी का तुरंत फोन आया कि भूपेश गुप्ता भले ही हमारी विपक्षी पार्टी के नेता हैं पर उनहें कुत्ता बनाना हमारे कार्टूनिस्ट को शोभा नहीं देता। आप को तो ऐसे कार्टून को छापना ही नहीं चाहिए था।

अटल जी का चिन्तन पूर्णतया राष्ट्रवादी था। जनता पार्टी सरकार के अंतरविरोधों से गुजरते समय उन्हें लगा कि पूरे भारतीय समाज को लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अंग बनाने के लिए आवश्यक है कि समाज में प्रवाहमान सभी विचारधाराओं को एक साथ लाने वाला दल ही प्रभावी हो सकता है।

संभवत: इस धारणा के वशीभूत होकर 1980 में जब जनता पार्टी के विघटन से भारतीय जनता पार्टी का जन्म हुआ और अटल जी उसके अध्यक्ष बने, तब उनके आग्रह पर पार्टी ने अपनी विचारधारा को गांधीवादी समाजवाद नाम दिया।

किंतु देशभर में फैले जिन असंख्य कार्यकर्ताओं के कंधे पर भाजपा दिखती थी, उन्हें गांधीजी शिरोधार्य होते हुए भी गांधीवाद का समाजवाद के साथ नत्थीकरण स्वीकार्य नहीं था।

उन्होंने खुलकर तो इस परिवर्तन की आलोचना नहीं की किन्तु उनके मन में हताशा एवं असंतोष अगले आम चुनाव में भाजपा की भारी पराजय के रूप में सामने आया।

अटल जी अच्छी प्रकार समझते थे कि उन्होंने पार्टी को नहीं बनाया है बल्कि पार्टी ने उन्हें अपने कंधों पर बैठाकर देश का सबसे लोकप्रिय और प्रभावशाली नेता बनाया है।

उनकी लोकतांत्रिक चेतना ने पार्टी की भावना और इच्छा को शिरोधार्य किया। फलत: भारतीय जनता पार्टी पुन: सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पुरानी विचारधारा पर लौट आयी।

सन् 1996 में अटल जी  के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी, पूर्ण बहुमत नहीं था। 13 दिन बाद सरकार को विश्वास मत प्राप्त करना था, विश्वास मत पर चर्चा के दौरान हर दल के नेता ने कहा कि अटल जी इज राइट मैन इन रांग पार्टी अर्थात उन्हें अटल जी पसन्द थे पर भाजपा नहीं।

अटल जी ने एक लम्बे भाषण में सब नेताओं के आक्षेप की धज्जियां उड़ायीं और भाजपा की राष्ट्रवादी विचारधारा की तर्कपूर्ण व्याख्या की। भाषण पूर्ण करते ही उन्होंने कहा कि मैं राष्ट्रपति को अपना त्यागपत्र देने जा रहा हूं। आप बहस करते रहें।

अटल जी विपक्ष की सबसे सशक्त आवाज माने जाते थे। किंतु उनके मन में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के लिए कटुता नहीं थी। 1971 के युद्ध में पाकिस्तान की पराजय के लिए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का अभिनंदन करते हुए उन्होंने उन्हें ‘दुर्गा’ तक कह डाला।

अटल जी की व्यापक लोकप्रियता के बावजूद उनकी व्यक्तिगत जीवनशैली में कुछ बातें मुझे नापसंद थीं। मैं यदा कदा उनके प्रधानमंत्री पद पर बने रहने की आलोचना करता था।

एक बार उनके घर पर मलकानी जी, आडवाणी जी और दीनानाथ  मिश्र के साथ मुझे भी जाना पड़ा। मुझे देखते ही अटल जी ने कटाक्ष किया कि अरे!   देवेन्द्र जी को क्यों घसीट लाए। इन्हें तो राजनीति से नफरत है… और हंसी का ठहाका लग गया।

आपातकाल के बाद मोरार जी देसाई के मंत्रिमंडल में अटल जी को विदेश मंत्री का कार्यभार मिला। मैंने उन्हें अपने कालेज के एक कार्यक्रम में मुख्य वक्ता के नाते आमंत्रित किया, वे आए।

पर संजय गांधी ने उस कार्यक्रम को भंग करने के लिए बहुत उधम मचाया। अटलजी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। वे अपना भाषण पूरा करके चाय पान के लिए रुके बिना चले गए। कभी चर्चा नहीं की।

एक बार एक टैबलाइड पत्रिका ने अटल जी के व्यक्तिगत जीवन के बारे में बहुत ऊलजलूल बातें छापीं पर उससे उनकी लोकप्रियता पर कोई असर नहीं पड़ा।

उनकी लोकप्रियता निरंतर बढ़ती ही गई। स्वतंत्र भारत में उभरे नेताओं में अटल जी की सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। और वे भावी पीढि़यों की स्मृति में हमेशा जीवित रहेंगे।

उनके कुछ वाक्य जनमानस पर छाये रहेंगे जैसे भारत पाकिस्तान संबंधों के बारे उनका यह वाक्य कि हम पड़ोसी को बदल नहीं सकते। उनका यह वाक्य कि कश्मीर में हमारी नीति का निर्णय जम्हूरियत, इंसानियत, कश्मीरियत की कसौटी पर होगा। आज भी प्रत्येक राजनीतिक द्वारा इसे दोहराया जाता है।

 

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