सनातन मंदिरों पर भेदभाव के आरोप के निहितार्थ

 

शिवेंद्र सिंहदक्षिण सिनेमा की अभिनेत्री अमला पॉल ने एर्नाकुलम(केरल) के तिरुवैरानिकुलम महादेव मंदिर में प्रवेश करने से रोकने तथा ‘धार्मिक भेदभाव’ का आरोप लगाया.मंदिर प्रशासन ने इसपर रीति-रिवाजों का हवाला देते हुए बताया कि इस मंदिर में केवल हिंदुओं को ही परिसर में प्रवेश एवं दर्शन-पूजन की अनुमति दी जाती है और वे केवल मौजूदा प्रोटोकॉल का पालन कर रहे थे. ध्यातव्य है कि अभिनेत्री ईसाई समुदाय से आतीं हैं. इसके बाद भी मंदिर प्रशासन को आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है.

  किंतु समस्या कहाँ है? पुरी के जगन्नाथ मंदिर समेत भारत के सैकड़ों मंदिरों में गैर-हिन्दुओं का प्रवेश वर्जित है. हर धर्म-पंथ के अपने नियम निर्धारित है. धर्म आस्था पर आधारित होता है और आस्था से श्रद्धा उत्पन्न होती है. जिसमें तर्क का कोई स्थान नहीं होता. जिन्हें तर्क के आधार पर धार्मिक नियम निर्धारित करने हैं, उन्हें मंदिरों में जाने के बजाय इसरो से लेकर बार्क तक की वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में जाना चाहिए जहाँ तर्कों की परिपुष्टि बेहतर हो सकती है.   मूलभूत प्रश्न किसी धर्म के आतंरिक मामलों में अनाधिकृत-अनावश्यक हस्तक्षेप का है. इसी प्रकार के सबरीमाला तथा शनि शिंगणापुर के मामले थे, जिनका ध्येय सनातन परंपरा दूषित करना था. मसलन सबरीमाला में दस से पचास साल की उम्र की महिलाओं को छोड़कर किसी के भी प्रवेश पर मनाही नहीं है. चूंकि भगवान अय्यप्पा ब्रह्मचारी थे. अगर इसी कारण महिलाओं का प्रवेश वर्जित हो तो इसमें विवाद का प्रश्न कहां है? ऐसे ही शिंगणापुर मंदिर के विषय में 400 साल पुरानी स्थानीय मान्यता है कि महिलाओं के पूजन से शनिदेव नाराज हो जायेंगे.
  वास्तव में यह मुद्दा लैंगिक भेदभाव का भी नहीं था, क्योंकि भारत में सनातन धर्म से सम्बंधित ऐसे सैकड़ों धार्मिक स्थल है जहां परंपरानुसार पुरुषों का प्रवेश वर्जित है. तर्कों की कसौटी तथ्य होते है इसलिए इस आक्षेप के आधार पर दृष्टिपात करने की आवश्यकता है. उदाहरणस्वरूप, पुष्कर (राजस्थान) स्थित ब्रह्माजी का मंदिर, जहाँ विवाहित पुरुषों का प्रवेश वर्जित है. केरल के आट्टुकाल भगवती मंदिर में पोंगल उत्सव के दौरान पुरुषों का प्रवेश वर्जित होता है. गुवाहाटी के कामाख्या शक्तिपीठ मंदिर में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले अंबुबाची उत्सव में पुरुष प्रवेश प्रतिबंधित होता है. तमिलनाडु के कुमारी अम्मन मंदिर में भी शादीशुदा पुरुषों का प्रवेश वर्जित है. माता मंदिर, बिहार इत्यादि ऐसे ही कितने अन्य सनातन मंदिर-मठ हैं जहाँ स्थानीय मान्यताओं के कारण पुरुषों का प्रवेश प्रतिबंधित है. तब क्या ऐसे मसलों को पुरुषों के विरुद्ध लिंगाधारित विभेदन के रूप में चिन्हित किया जाना चाहिए?
  रहीं बात महिलाओं के प्रति लैंगिक भेदभाव की तो सनातन धर्म आदिकाल से मातृशक्ति को श्रेष्ठ मानकर उसका उपासक रहा है. जैसा कि ऋग्वेद का दसवें मंडल का ‘देवीसूक्त’ जिसमें ‘वाक्शक्ति’ की उपासना है. वह कहतीं हैं, ‘मै समस्त जगत् की अधिश्वरी हूँ, अपने भक्तों को धन प्रदान कराने वाली, ब्रह्म को अपने से अभिन्न मानने वाली तथा देवताओं में प्रधान हूँ. मै सभी भूतों में स्थित हूँ. विभिन्न स्थानों में रहने वाले देवगण जो कुछ भी कार्य करते हैं वह सब मेरे लिये ही करते है.’
‘अहं राष्ट्री संगमनीं वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञीयानाम्l तां मां देव्या व्यदधु: पुरूत्रा भूरिस्थात्राँ भूर्यावेशयन्त:ll’
  वास्तव में सनातन समाज के उपासना स्थलों के संबंध में ऐसे कुत्सित धारणाओं एवं विवादों का प्रचार-प्रसार, अनर्गल आरोप, उसकी मिथ्या निंदा द्वारा सनातनियों को लांछित करने की एक अघोषित परंपरा बन चुकी है. इसी परिपेक्ष्य में अकसर मंदिरों में दलित-अस्पृश्य लोगों के प्रवेश से रोकने का मुद्दा चर्चा में रहता है. लेकिन क्या ये घटनाएं वैसी ही होतीं हैं जैसी मिडिया प्रदर्शित करता है या फिर धर्म विशेष की एक मूलभूत बुराई जातिवाद के आधार पर उसे अपमानित करने का प्रयास होता है. इसे द्वितीय सरसंघचालक श्री गोलवरकर द्वारा वर्णित एक घटना द्वारा समझने का प्रयास करतें हैं. एक दफ़े काशी विश्वनाथ मंदिर में पुजारियों के प्रतिरोध के कारण कुछ अहिंदुओं और कथित अस्पृश्यों के बलपूर्वक प्रवेश का विफल प्रयास समाचार-पत्रों में प्रकाशित हुआ. अपने काशी प्रवास के दौरान गुरूजी ने पुजारियों से उनके प्रवेश के विरोध का कारण पूछा.  पुजारियों का उत्तर था, ‘देखिए, यहाँ प्रतिदिन हजारों भक्तों का तांता लगा रहता है. वे सभी गर्भगृह में प्रवेश करते हैं, पवित्र शिवलिंग का स्पर्श करते हैं और अपनी श्रद्धा-भेंट अर्पित करते हैं. किसी ने आज तक उनकी जाति, संप्रदाय के विषय में पूछताछ नहीं की, परंतु जब वह नेता अपने प्रचार के ताम-झाम के साथ सारी दुनिया को यह दिखाने आया कि दीन-दलितों के उत्थान हेतु किसी मसीहा का जन्म हुआ है और हम सब अपराधी हैं, तो स्वाभाविकरूपेण हमने स्वयं को अपमानित अनुभव किया और उनको उसी भाषा में उत्तर देने का निर्णय किया.’ तिरुवैरानिकुलम महादेव मंदिर मामले में भी ट्रस्ट के सचिव प्रसून कुमार ने कहा, ‘कई अन्य धर्मों के भक्त मंदिर में दर्शन के लिए आए हैं, लेकिन यह कोई नहीं जानता. हालांकि, जब कोई हस्ती आती है, तो यह विवादास्पद हो जाता है.’ यही वो बिंदू है जिसे ऐसे मामलों में समझने की आवश्यकता है.
  जिस धर्म में आपकी आस्था ना हो वहाँ देशाटन के लिए जाने का क्या तुक है? क्या सनातन धर्म के पवित्र स्थान ‘पिकनिक’ स्थल हैं, जहाँ सैर-सपाटा कर बोरियत दूर की जाये. साथ ही कट्टरपंथियों एवं वामपंथी वर्ग द्वारा पिछले कई दशकों से किये जाने वाले अधिप्रचार (प्रोपगेंडा) के अनुरूप यह ज्ञात होते हुए कि सनातन समाज इतना ही भेदभाव आधारित है और अपने व्यवहार में संकीर्ण है, तो फिर उनके निजी पूजास्थलों मंदिर-मठों में गैर-संतानियों या शामी पंथ में आस्था रखने वालों को जाने की आवश्यकता ही क्या है?  इसके अतिरिक्त आलोच्य विषय से सम्बंधित एक और प्रश्न मौजूँ है, ऐसे लोग जो अपने पंथीय आस्था से सम्बंधित उपासनागृहों यानि मस्जिद और गिरजाघरों में नियमित नहीं जाते, उन्हें एक गैर-धर्म के पूजा स्थलों में जाने की इतनी व्यग्रता क्यों रहती है. इतना ही वे वामपंथी जिनके मूलभूत सिद्धांतों में ही धार्मिक आस्था का वजूद नहीं है, वे भी ऐसे विवादों में सनातन धर्म के आचार-विचार पर ज्ञान देने हेतु बड़े आग्रही दिखते हैं.
कुछ समय पूर्व केरल के एक मंदिर द्वारा मुस्लिम भरतनाट्यम नृत्यांगना मनसिया वीपी को अपने वार्षिकोत्सव में नृत्य करने से रोक दिया, क्योंकि वे गैर-हिंदू थीं. मंदिर प्रशासन ने अपने फ़ैसले बचाव करते हुए परंपराओं का हवाला दिया. पश्चिमी मिडिया, बीबीसी से लेकर भारतीय वामपंथियों ने इस पर तमाम लानत-मलानत भेजी. इसके कुछ दिनों बाद ही केरल के पलक्कड़ जिले के एक स्कूल में प्रसिद्ध मोहिनीअट्टम नृत्यांगना डॉ. नीना प्रसाद  ‘सख्यम’ कार्यक्रम की प्रस्तुति दे रहीं थीं जिसमें श्रीकृष्ण और अर्जुन के संबंधों को दर्शाया गया है.वहां के जिला जज कलाम पाशा जिनका घर पास ही हैं, इसे अपने लिए ‘परेशानी भरा’ बताया और पुलिस को आदेश देकर कार्यक्रम को रुकवा दिया. साथ नीना प्रसाद और उनकी टीम को अपमानित भी किया. मनसिया वीपी ने स्वयं को नृत्य करने से रोके जाने पर कहा था कि कला का कोई धर्म नहीं होता. किंतु उन्हीं के सहधर्मी कलाम पाशा को सनातन कला परेशान कर रहीं थी. यह सैद्धांतिक-वैचारिक दोगलापन वामपंथी बौद्धिक जगत एवं जिहादी विचारधारा का यथार्थ है.
 यथार्थ में इस देश में सार्वजनिक जीवन में बौद्धिक-सामाजिक पाखंड बड़ी ही उच्च कोटि का है. सनातन धर्म को छोड़कर अन्य शामी पंथीय समाज की आस्थाएं बड़ी संवेदनशील प्रकृति की मानी जातीं हैं. उनके प्रति गहन विमर्श क्या सामान्य तर्क करना भी कठिन है. अमला पॉल के मामले को देखें तो असल में ऐसे मामले सनातन धर्म के विरुद्ध परंपरागत वामपंथी-जिहादी बौद्धिक षड्यंत्र है. वे जिस ईसाई पंथ से आतीं हैं, वहां कई धार्मिक संस्थाओं में महिलाओं के प्रवेश को प्रतिबंधित करने का इतिहास रहा है. जो भी गैर-सनातनी लोग मंदिर प्रबंधन पर भेदभाव का आरोप लगातें हैं, उन्हें प्रत्येक धर्मों-पंथों के उपासना स्थलों के अपने स्वनिर्धारित नियमों एवं मर्यादाओं को समझने की जरुरत है.यदि फिर भी उन्हें दिक्कत हो रही हो और वे गैर-मुस्लिम हैं. तब तो उनके लिए इसे समझना बड़ा आसान होगा. उनको एकबार मक्का-मदीना में ऐसे ही नवाचार करने की जरुरत है बाकी सत्य का ज्ञान हमारे ‘रिलीजन ऑफ़ पीस’ के सदस्य यानि शांतिप्रिय मुसलमान बंधु समझा देंगें. मक्का-मदीना में गैर-मुस्लिमों का प्रवेश वर्जित है बल्कि दुनिया के किसी भी मस्जिद में महिलाओं का आमद बाधित है, चाहें वह मुस्लिम ही हो, तो अमला पॉल को दूर जाने की जरूरत नहीं है. उन्हें भारत के ही किसी मस्जिद में घुसने का प्रयास करना चाहिए.
 रही बात शामी पंथिकों की, तो यदि उन्हें सनातन धर्म के पवित्र स्थलों एवं धार्मिक संस्कारों, उत्सवों से इतना ही लगाव है तो वे अपनी आस्था बदलक़र हिंदू हो जाएं, इससे भेदभाव का आधार ही नहीं रहेगा. असल में यह भेदभाव या असहिष्णुता का नहीं बल्कि मानसिक रूप अस्वस्थ पंचमांगी मक्कारों के लिए सनातन समाज के विरुद्ध विवाद हेतु सुरक्षित मुद्दे की तलाश का मसला है. ऐसे लोगों का ध्येय सिर्फ और सिर्फ सनातन समाज को अपमानित करने का एक मौका बनाना है. ताकि उन्हें ब्राह्मणवाद-मनुवाद के नाम पर सनातन धर्म, परंपरा, मर्यादाओं और इसके धर्मगुरुओं को गाली देने व लांक्षीत करने का अवसर प्राप्त हो सके. जैसे अभी बागेश्वर धाम के धीरेन्द्र शास्त्री का मामला है. उनपर अंधविश्वास के प्रसार का आरोप लगाकर एक वर्ग जिसमें मिडिया भी शामिल है, सक्रिय हो गया है. शास्त्री जो भी करते हों, अगर उससे कानूनी या सामाजिक व्यवस्था में खलल अथवा किसी नागरिक के जीवन पर कुप्रभाव पड़ता है तो यह जाँच का विषय है. लेकिन अकारण उन्हें लक्षित करते हुए दुष्प्रचार का क्या औचित्य है.
हालांकि यह समझना कठिन है कि मिशनरियों द्वारा संचालित ‘चंगाई सभाओं’ एवं ‘आसमानी इलाज’ करने वाले दरगाहों पर अब तक ये क्रांतिकारी वर्ग मौन क्यों रहा है. वेटिकन में बैठे जिनके पोप व्हिल चेयर पर चल रहें है उनके भारत स्थित मात्र छूकर लकवे,ट्यूमर से लेकर कैंसर तक का इलाज करने वाले मसीही पादरियों एवं पागलपन से लेकर जिन्न भगाने का मजहबी उपचार करने वाले सूफियों एवं इमामों की अद्भुत दैवीय शक्तियों की पड़ताल करने में भी मिडिया जगत और तर्कशील सामाजिक क्रांतिकारियों को रूचि लेनी चाहिए अन्यथा उनपर ढोंगी, सनातन विरोधी और तुष्टिकरणवादी होने के आरोप सत्य माने जाते रहेंगे.
  यथार्थ में इस बौद्धिक जमात को पता है कि निस्पृह-निरीह हिंदू समाज अपने ऊपर लगने वाले आक्षेपों का प्रतिकार नहीं करेगा. अतः उसे अपमानित करना आसान है लेकिन शामी पंथों के मामले में इसकी प्रतिक्रिया से वे अच्छी तरह परिचित हैं. हकीकत ये है कि ज़बसे धीरेन्द्र शास्त्री ने मिशनरी षड़यंत्रों का प्रतिवाद और वनवासी बंधुओं के घरवापसी अभियान में सहयोग देना आरंभ किया है तभी से वे मिशनरी धन से पोषित वामपंथी सामाजिक-राजनीतिक वर्ग, और मिडिया समुदाय के सांप्रदायिक दुराग्रह के निशाने पर हैं.
 मुंशी प्रेमचंद (हंस, जनवरी 1934) लिखते हैं, ‘अगर सांप्रदायिकता अच्छी हो सकती है तो पराधीनता भी अच्छी हो सकती है. मक्कारी भी अच्छी हो सकती है, झूठ भी अच्छा हो सकता है, क्योंकि पराधीनता में जिम्मेदारी से बचत होती है, मक्कारी से अपना उल्लू सीधा किया जाता है और झूठ से दुनिया को ठगा जाता है.’ सनातन धर्म के विरुद्ध दुष्प्रचार में लिप्त वर्ग को अपनी असभ्य-अनैतिक सांप्रदायिकता एवं षड़यंत्री दुष्प्रचार की विकृत मानसिकता से बाहर आने की जरुरत है, क्योंकि इससे नवजागरण के दौर से गुजर रहे सनातन समाज में प्रतिकार की भावना उभरेगी जो अंततः धार्मिक-पंथीय टकराव को जन्म देगी जिससे बचने की आवश्यकता है.

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