आशा से भरी तीन शामें

आशा बड़ी नायाब शक्ति है- आज से बेहतर करने कहने, सोचने, बनाने और बरतने की आशा ! आशा है तो लड़ते हैं, आशा है तो जीतते हैं, आशा है तो जीते हैं. आशा वह खाद है जिसे पाकर जीवन की फसल लहलहाती है.जॉर्ज फ्रेडरिक वाट्स की अमरकृति ‘आशा’ से सज्जित यह अंक उन दो महान आशावादियों की कथा समेटता है जिन्होंने आजादी से पहले और आजादी के बाद आशा की मशाल थामे रखी ताकि निराशा के अंधेरे में हम डूब न जाएं !बड़े जहर बुझे दिन थे – दिन मौत से भरी रात आंसुओं में तरी! ऐसे में गांधी थे कि आशा की जोत जलाते जाते थे- न मौत का डर, न आंसुओं की परवाह ! राजधानी दिल्ली की प्रार्थना सभाओं में, जो उनके जीवन की अंतिम प्रार्थना सभाएं थीं, वे दिल खोल कर रख देते थे ताकि बात दिलों तक पहुंचे |
भाइयो और बहनो,
जब मैं यह भजन और धुन सुन रहा था तब नोआखाली – यात्रा के समय का सारा दृश्य मेरी आंखों के सामने ताजा हो आया. वहां पर यही मंडली और यही भाई-बहन थे जो प्रातः काल यात्रा शुरू होने पर पहले आध मील तक चलते थे.
मुझे जो कहना है वह तो एक ही बात है कि हमें अपनी भलाई नहीं छोड़नी चाहिए. अगर सब-के-सब मुसलमान मिलकर हमें कह दें कि हम हिंदुओं के साथ किसी किस्म का वास्ता नहीं रखना चाहते, उनसे अलग रहना चाहते हैं तो क्या हमें गुस्से में भरकर मारकाट शुरु कर देनी चाहिए? अगर हमने ऐसा किया तो चारो ओर ऐसी आग फैली जाएगी कि हम सब उसमें भस्म हो जाएंगे. कोई भी नहीं बचेगा ! अंधाधुंध लूट-खसोट और आग जलाने से देश भर में बरबादी ही फैलेगी. मैं तो कहूंगा कि बाकायदा जो योद्धा लोग लड़ते हैं उससे भी विनाश ही होता है, हाथ कुछ भी नहीं आता.अगर सब-के-सब मुसलमान मिलकर हमें कह दें कि हम हिंदुओं के साथ किसी किस्म का वास्ता नहीं रखना चाहते, उनसे अलग रहना चाहते हैं तो क्या हमें गुस्से में भरकर मारकाट शुरू कर देनी चाहिए?
हमारे महाभारत में जो बात कही गई वह सिर्फ हिंदुओं के काम की ही नहीं है, दुनिया भर के काम की है. यह कथा पांडव- कौरव  की है. पांडव राम के पुजारी यानी भलाई के पूजने वाले रहे और कौरव रावण के पुजारी यानी बुराई को अपनाने वाले रहे, वैसे तो दोनों एक ही खानदान के भाई-भाई थे. आपस में लड़ते हैं और अहिंसा छोड़कर हिंसा का रास्ता लेते हैं. नतीजा यह कि रावण के पुजारी कौरव तो मारे ही गए, पर पांडवों ने भी जीत कर हार ही पाई. युद्ध की कथा सुनने भर को इने-गिने लोग बच पाए और आखिर उनका जीवन भी इतना किरकिरा हो गया कि उन्हें हिमालय में जाकर स्वर्गारोहण करना पड़ा. आज हमारे देश में जो चल रहा है, वह सब ऐसा ही है.आज से राष्ट्रीय सप्ताह का आरंभ हुआ है. मैं मानता हूं कि आप लोगों ने चौबीस घंटे का व्रत रखा होगा और प्रार्थनामय दिन बिताया होगा.
आज तीसरे पहर तीन बजे से चार बजे तक यहां चर्खा – कताई भी की गई, जिसमें राष्ट्रपति, उनकी पत्नी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, आचार्य जुगलकिशोर और दूसरे भी बहुत थे जिनके नाम मैं कहां तक गिनाऊं ! इस तरह कताई – यज्ञ पूरी शक्ति से और खूबसूरती से पूरा हुआ और अब यहां से जाने के बाद आपका उपवास भी खत्म हो जाएगा, परंतु कितना अच्छा हो यदि राम-रहीम के शब्द तथा उक्त भजन का संदेश सदा के लिए सबके दिलों पर अंकित हो जाए ! लेकिन यह सब आज तो हिंदुस्तान के लिए स्वप्नवत् हो गया है. मेरे पास तार और खत बरस रहे हैं जिनमें गालियां भरी रहती हैं. इससे पता चलता है कि कुछ लोग मेरे विचारों को कितना गलत समझते हैं. कुछ यह समझते हैं कि मैं अपने को इतना बड़ा समझता हूं कि लोगों के पत्रों के उत्तर नहीं देता तथा कुछ मुझ पर यह आरोप लगाते हैं कि पंजाब जब जल रहा है तब मैं दिल्ली में मौज उड़ा रहा हूं. ये लोग कैसे समझ सकते हैं कि मैं जहां कहीं पर भी हूं उन्हीं के लिए दिन-रात काम कर रहा हूं. यह ठीक है कि मैं उनके आंसू न पोंछ सका. केवल भगवान ही ऐसा कर सकता है.
ख्वाजा अब्दुल मजीद आज मुझसे मीठा झगड़ा करने के लिए आए थे. वह अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के ट्रस्टी हैं. उनके पास काफी बड़ी जायदाद है, फिर भी उनका मन तो फकीर है. मैं जब वहां जाता था उन्हीं के यहां खाना खाता था. उस जमाने में स्वामी सत्यदेव परिव्राजक मेरे साथ रहते थे. उन्होंने हिमालय की यात्रा की थी. ईश्वर ने आज उनकी आंखें छीन ली हैं. उस समय वह बहुत काम करने वाले थे. उन्होंने मुझसे कहा, “मैं तेरे साथ भ्रमण करूंगा पर तू मुसलमान के साथ खाता है तो मैं तो नहीं खाऊंगा.”यह सुनकर ख्वाजा साहब ने कहा, “अगर उनका धर्म ऐसा कहता है तो मैं उनके लिए अलग इंतजाम करूंगा.” ख्वाजा साहब के दिल में यह नहीं आया यह स्वामी गांधी के साथ आया है तो क्यों नहीं मेरे यहां खाया ? पुराने दिन फिर वापस आएंगे जब हिंदू-मुसलमान के दिलों में एकता थी. ख्वाजा साहब अब भी राष्ट्रीय मुसलमानों के प्रेसीडेंट हैं. दूसरे भी जो राष्ट्रीय भावना वाले मुसलमान लड़के उन दिनों में अलीगढ़ से निकले थे, वे आज जामिया के अच्छे-अच्छे विद्यार्थी और काम करने वाले बने हुए हैं. ये सब सहारा के रेगिस्तान में द्वीप समान हैं. ख्वाजा साहब ऐसे हैं कि उनको कोई मार डालेगा तो भी उनके मुंह से बद्दुआ न निकलेगी. ऐसे लोग भले थोड़े ही हों, पर हमें तो अपनापन कायम रखना ही चाहिए. बदमाश को देखकर हमें भी बुराई पर नहीं उतर आना चाहिए. लेकिन बिहार में हमने यह भूल की. वहां हिंदुओं ने राष्ट्रवादी मुसलमानों की हत्या की और मुसलमानों के हिंदू मित्रों की हत्या दूसरे मुसलमानों ने की.
हमें शांतिपूर्वक यह विचारना चाहिए कि हम कहां बहे जा रहे हैं? हिंदुओं को मुसलमानों के विरुद्ध क्रोध नहीं करना चाहिए, चाहे मुसलमान उन्हें मिटाने का विचार ही क्यों न रखते हों. अगर मुसलमान सभी को मार डालें तो हम बहादुरी से मर जाएं. इस दुनिया में भले उन्हीं का राज हो जाए. हम नयी दुनिया के बसने वाले हो जाएंगे. कम-से-कम मरने से हमें बिलकुल नहीं डरना चाहिए. जन्म और मरण तो हमारे नसीब में लिखा हुआ है. फिर उसमें हर्ष – शोक क्यों करें ! अगर हम हंसते-हंसते मरेंगे तो सचमुच एक नये जीवन में प्रवेश करेंगे – एक नये हिंदुस्तान का निर्माण करेंगे. गीता के दूसरे अध्याय के अंतिम श्लोकों में बताया गया है कि भगवान से डरने वाले व्यक्ति को कैसे रहना चाहिए. मैं आपसे उन श्लोकों को पढ़ने, उनका अर्थ समझने तथा मनन करने की प्रार्थना करता हूं, तभीआप समझेंगे कि उनके क्या सिद्धांत थे और आज उनमें कितनी कमी आ गई है. आजादी हमारे करीब आ गई है तब हमारा यह कर्तव्य है कि हम अपने से पूछें कि क्या हम उसे पाने तथा रखने के योग्य हैं भी? इस सप्ताह में जब
तक मैं यहां रहूंगा तब तक चाहता हूं कि आप लोगों को वह खुराक दे दूं जिससे हम उस लायक बनें. अगर झगड़ते ही रहे तो आजादी आकर भी हाथ में नहीं रहेगी.
रविवार 6 अप्रैल 1947

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Name *