उत्सव है या हिंदी का ‘श्राद्ध-पक्ष’!

उमेश सिंह

हिंदी को हिंद के माथे की बिंदी होनी चाहिए थी। क्या माथे की बिंदी बन पाई? सवाल का जवाब नैराश्य भरा है। बिंदी नहीं बन पाई। जिसे मालकिन बनना था, वह दासी जैसी जैसी बनी हुई। आखिर ऐसा क्यो हुआ? हिंदी के साथ छल-प्रपंच किसने किया? लार्ड मैकाले आंग्ल संस्कृति का दूत थे। उन्होंने अपनी संस्कृति की व्यापकता-विराटता के लिए जो कुछ किया, वह हर साम्राज्यावादी शक्तियां करती रही है। अंग्रेजी राज गया तो सुराज आया। सुराज में भी ‘शरीर से काले लेकिन मन से गोरे’ बनाने-बनने की गति ठिठकने-थमने के बजाय और तेज हो गई। लार्ड मैकाले का ‘साम्राज्यावादी सांस्कृतिक भाषिक षडयंत्र’ छंट तो नहीं पाया। हा, यह जरूर हुआ कि अपनी सरकार आई तो यह षडयंत्र और अधिक गहरा जरूर हो गया।  हिंदी दिवस यानि १४ सितंबर आ गया है। हर बार की तरह एक और हिंदी दिवस। हिंदी पखवारा की धूम है। हिंदी के नाम पर वाग्विलास, रुदन और वाक पाखंड। हिंदी की आड़ में अनेकानेक सराकारी कर्मकांड और पाखंड चल रहे हैं।

हिंदी की दुर्दशा पर घडियाली आंसू जार जार बहाए जा रहे है। हिंदी में ही काम करने की झूठी शपथे भी खूब ली जा रही है। अगले ही दिन शपथ लेने वाले और कार्यक्रम में शरीक होने वाले ज्यादातर लोग स्मृति ध्वंस के शिकार हो जाते है। यदि इन रस्मी आयोजनों और सरकारी कर्मकांडों क ा असर होता तो हिंदी अपने गरिमापूर्ण स्थान पर स्थापित हो गई होती। हिंदुस्तान के माथे की बिंदी हिंदी सिसकती, झुठलाई व ठुकराई हुई न रह जाती। जिसे अपने घर में मालकिन होनी चाहिए, वह दासी बन गई है। हिंदी दिवस के नाम पर जो कुछ दशकों से चल रहा है, वह हिंदी का ‘श्राद्ध-पक्ष’ नहीं है तो फिर क्या है? यदि सरकारी आयोजक हिंदी के प्रति इतने ही संवेदनशील होते तो उसकी यह दुर्दशा न होती, वह अपनी हालत पर रुदन न करती। उसके स्वर में सिसकन न होती। क्या देश के भविष्य की भाषा हिंदी है? देश विदेश में हिंदी का विस्तार तो हुआ है लेकिन वह पेट की भाषा नहीं बन पा रही है। रोजी-रोजगार की भाषा नहीं बन पा रही है। उस आसन पर तो अंग्रेजी ही विराजमान है। जब तक भाषा का संबंध रोजी-रोटी से नहीं होगा, तब तक वह उपेक्षित ही रहेगी। हिंदी दिवस के कर्मकांड को लेकर ऐसे अनेक सवाल जेहन में पैदा हो रहे है।
हिंदी दिवस मनाने का यह सिलसिला आजादी के बाद से लगतार चलता चला आ रहा है। भविष्य में ऐसे ही सरकारी कर्मकांडों के जोर शोर से चलने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। सूरत-ए-हाल तो यह है कि हिंदी प्रेमियों को सिरफिरा, पिछडा और बेवकूफ तक कह दिया जाता है। सच तो यह है कि ज्यादातार भारतीय अंग्रेजी के मोहपाश में बुरी तहर जकड़े हुए है। आर्थिकी नजरिए से देखा जाए तो अंग्रेजी के मोहपाश में घिर जाना स्वाभाविक ही है, क्योकि वर्तमान व्यावसायिक युग आर्थिक उपयोगिता के नजरिए से संचालित हो रहा है। संस्कृत देवों की वाणी है लेकिन जब वह पेट को पालने-पोसने में कमजोर पडऩे लगी तो उसकी क्या दशा हुई, किसी से छिपा नहीं है। भाषा को जीवित रखना है और उसकी विराटता और व्यापकता को बढ़ाना है तो उसे ‘पेट के व्याकरण’ से जोडऩा पड़ेगा। जो दुर्घटना अतीत में देववाणी संस्कृत से हुई, एक्सीडेंड  के उसी खतरनाक मुहाने पर हिंदी भी पहुंच गई है। यदि हिंदी जानने, बोलने से रोजगार की संभावनाए कम है, हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने की आशंका है तो आखिर कोई हिंदी क्यो सीखेगा? हिंदी भाषा का पेट के साथ भी रिश्ता स्थापित करना होगा। लेकिन दुर्भाग्य है कि ऐसा नहीं हो पा रहा है। अंग्रेजी में ही सब कुछ हो रहा है। आश्चर्य तो यह है कि हिंदी दिवस मनाने को लेकर अतीत में कभी-कभी ऐसा भी हुआ है कि अंग्रेजी में उच्चाधिकारियों की तरफ से पत्र जारी हो जाया करता था। पता नहीं कि इस बार किसी सरकारी विभाग में ऐसा कारनाम हुआ या नहीं।
एक सदी पहले ‘साबरमती के संत’ ने उठाई थी आवाज
– हिंदी दिवस का इतिहास और इसे दिवस के रूप में मनाने का कारण एक सदी पुराना है। वर्ष १९१८ में महात्मा गांधी ने हिंदी को जन मानस की भाषा कहा था और इसे देश की राष्ट्रभाषा बनाने को भी कहा था। लेकिन आजादी के बाद ऐसा कुछ नहीं हो पाया है। हम यदि अपनी अतीत की यात्रा को और अधिक पीछे ले जाए तो इसका इतिहास बड़ा रोचक मिलेगा।
 ‘छाप तिलक सब छीनी रे/
 मोसे नयना लड़ाइ के’।
 १२ वी सदी के हिंदी के साधक अमीर खुसरों जब अपनी चेतना के शिखर पर पहुंचे तो गुरुतत्व के प्रति उनकी उक्त अभिव्यक्ति हुई थी।  सूफियाना मस्ती से लबरेज हो उनकी यह सृजनात्मकता तो अपने गुरू निजामुद्दीन औलिया के लिए ही थीं, लेकिन हिंदी पर भी बलिहारी होने की इसे शानदार निशानी भी कही जा सकती है। उत्तराचंल के ख्यातिलब्ध साहित्यकार शैलेश मटियानी ने ढाई दशक पहले सवाल उठाया था कि १४ सितंबर को हिंदी दिवस क्यो मनाया जाता है?  मटियानी के  प्रश्न का जवाब देते हुए डा. प्रेम नारायण शुक्ला ने  कहा कि ‘१४ सितंबर १९४९ को संविधान समिति ने हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा और राजभाषा के रूप प्रतिष्ठित किया। इसलिए यह दिन एक राष्ट्रीय पर्व है।’ तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए मटियानी ने १४ सिंतबर को हिंदी दिवस के रूप में मनाने को शर्मनाक पाखंड कहा था। मटियानी इस बात से चिंतित थे कि बिना राष्ट्रभाषा के राष्ट्र कैसे सशक्त होगा? उन्होंने अपने एक लेख में अमीर खुसरो के जन्म या मृत्यु  के दिन को हिंदी के साथ जोड़ देने की मांग की थी।

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