मुगलकाल का पुनर्मूल्यांकन

मुगलकाल का पुनर्मूल्यांकन

बनवारी

प्रतापगढ़ में महाराणा प्रताप की प्रतिमा का अनावरण करते हुए गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने हमारे इतिहास लेखन की एक विसंगति की ओर हमारा ध्यान खींचा था कि अगर अकबर को महान कहा जा सकता है तो महाराणा प्रताप को क्यों नहीं? लेकिन हमारे इतिहास लेखन की विसंगति केवल इन दो व्यक्तियों के तुलनात्मक चित्रण में नहीं है। विसंगति मुगल शासन को भारत के राजनैतिक इतिहास की निरंतरता में देखने में है। हमारे इतिहासकारों के लिए मुस्लिम काल के किसी और शासक को गौरवमंडित करना आसान नहीं था। इसलिए उन्हांेने अकबर को महानता से मंडित करते हुए विदेशी मुगल शासन को अपवाद समझने की बजाए उसे भारत के राजनैतिक इतिहास की निरंतरता में दिखाने का प्रयत्न किया है।

यह सब जानते हैं कि भारत के इतिहास लेखन की पीठिका अंग्रेजों ने तैयार की थी। मुगल शासन भी उन्हीं की तरह का विदेशी शासन था। अंग्रेज इतिहासकार चाहते थे कि भारत के लोग मुगल काल को सकारात्मक दृष्टि से देखें। क्योंकि तभी वे ब्रिटिश शासन को भी सकारात्मक दृष्टि से देख सकंेगे। इससे उन्हें भारत के बौद्धिक वर्गों में अपने प्रभाव का विस्तार करने में सहायता मिलेगी। उनका यह उद्देश्य अधिकांशत: पूरा हुआ है। क्योंकि यह मान लिया गया है कि विदेशी होने के बावजूद मुगल और अंग्रेज भारत को प्रगति की दिशा में आगे बढ़ाने में सहायक हुए थे। यह कितनी विचित्र बात है कि मुस्लिम और ब्रिटिश शासन को सकारात्मक रूप से दिखाने का यह अभियान केवल एक शासक अकबर के महिमामंडन पर टिका हुआ है।

मुगलकाल और अकबर के शासन की समीक्षा करने से पहले यह देख लेना चाहिए कि इतिहास लेखन को इस दिशा में मोड़ने से हमारी क्या क्षति हुई है। मुस्लिम काल हमारे इतिहास का एक ऐसा मोड़ है जहां से हमारी अपनी राजनीतिक व्यवस्थाएं क्षीण होती गईं, और मुगलकाल ने उन पर दृढ़तापूर्वक इरानी और उस्मानी राज्य व्यवस्थाओं को थोप दिया। इस प्रतिरोपण ने ही अंग्रेजों को भारत पर अपनी व्यवस्थाएं लादने में सहायता पहुंचाई। मुसलमानों और अंग्रेजों के शासन का यह पूरा काल इस अर्थ में विदेशी नहीं है कि उस काल के शासक विदेशी थे। बल्कि वह इस गहरे अर्थ में विदेशी है कि उसने भारतीय राज-तंत्र को विदेशी राज-तंत्र में बदल दिया और समाज को अपनी नैतिक व्यवस्थाएं चलाने के लिए जिस कवच की आवश्यकता होती है, वह नष्ट हो गया। यह मामूली भूल नहीं है कि हमारे इतिहासकारों ने यह समझने का ठीक से प्रयत्न ही नहीं किया कि मुस्लिम काल में राजनैतिक ढांचे को किस तरह बदला गया और उसने समाज की व्यवस्थाओं को किस तरह क्षत-विक्षत किया।

मुस्लिम शासन ने कैसे हमें अपने राजनैतिक इतिहास से विच्छिन्न कर दिया, यह समझने के लिए यह याद करना आवश्यक है कि हमारी राज्य-व्यवस्था क्या थी। सबसे पहली बात यह कि भारत में समाज के सभी साधनों पर समाज का ही अधिकार था, राज्य का नहीं। लोग जो भी उत्पादित-अर्जित करते थे उसका एक भाग समाज की सभी व्यवस्थाओं को चलाने के लिए अलग कर लिया जाता था। यह विभाजन परंपरा से होता आ रहा था और समयानुसार उसमें कोई परिवर्तन सबकी सहमति से होता था। राज्य भी समाज की व्यवस्थाओं का एक हिस्सा था। उसका भाग उसे मिले यह दायित्व भी स्थानीय संस्थाओं का ही था, जिनकी प्रतिबद्धता जितनी राज्य से थी, उतनी ही समाज से भी थी। राज्य सैनिक अभियानों में लगे रहते थे, जिनका उद्देश्य गांधीजी के शब्दों में ‘शौर्य की परंपरा को बनाए रखना था।’ लेकिन उनका प्राथमिक दायित्व समाज के शील, समृद्धि और न्यायशीलता की रक्षा करना था। इस तरह राज्य समाज की व्यवस्थाओं का रक्षक था।

इस्लाम के उदय के कुछ समय बाद आठवीं शताब्दी में भारत पर भी मुस्लिम आक्रमण आरंभ हो गए थे। लेकिन अरब आक्रमणकारियों का उद्देश्य राजधानियों और मंदिरों के धन को लूट कर ले जाने से अधिक नहीं था। लगभग तीन शताब्दी तक भारतीय राजा छिटपुट पराजयों के बाद उन्हें खदेड़ते रहने में सफल रहे। मोहम्मद बिन कासिम को सिंध में पैर जमाने का मौका मिला, पर भारतीय राजाओं के प्रभाव का विस्तार भी बीच-बीच में सुदूर गांधार तक होता रहा। इस बीच तुर्क आए और उन्होंने अरबों से उनकी सत्ता छीन ली। उन्हीं ने भारत पर आक्रमण किए और 1192 में पृथ्वीराज चौहान की एक युद्ध में पराजय के बाद दिल्ली में मुस्लिम शासन की नींव पड़ गई। मुगलों के आने से पहले दिल्ली सल्तनत पर पांच राज्यवंशों का अधिकार रहा। 320 वर्ष की इस अवधि में 35 सुल्तान गद्दी पर बैठे जिनमें से19 की उत्तराधिकार की लड़ाई में हत्या हो गई। इन राजवंशों में सबसे कम खिलजी और सबसे अधिक तुगलक राजवंश का शासन रहा और ये दोनों राजवंश अपनी क्रूरता और उत्पीड़न के लिए अधिक प्रसिद्ध हुए। तुगलक वंश की नींव जिस गाजी मलिक ने रखी थी, उसका पिता तुर्क था और मां हिंदू। सत्ता में पहुंचकर उसने अपना नाम गियाजुद्दीन तुगलक रख लिया और गद्दी पर बैठते ही मुस्लिम किसानों का कर घटा दिया और हिंदू किसानों का कर बढ़ा दिया।

यह वह काल था जब मध्य एशिया से अफगानिस्तान तक का सारा क्षेत्र, सैनिक अभियानों के लिए पेशेवर योद्धा प्रदान करने वाले क्षेत्र में बदल गया था। इन पेशेवर योद्धाओं का उद्देश्य लूटमार से समृद्ध होना तो था ही, इस्लाम

ने उसे एक नया उद्देश्य भी दे दिया था – जेहाद। मुस्लिम शासन ही नहीं हर सैनिक अपने आप को गाजी समझता था और इस्लाम न मानने वालों का कत्लेआम उनके जीवन का दूसरा उद्देश्य हो गया था। इन दोनों उद्देश्यों ने मुस्लिम आक्रांताओं को कभी अपने अभियान के लिए सैनिकों की कमी नहीं होने दी। एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि इस्लाम की शक्ति के उदय ने यूरोप को भी झकझोर दिया था और दोनों के संघर्ष में युद्ध की नई सामग्री विकसित हो रही थी। तोपखाना और तोड़ीदार बंदूकें इस दौर के नये हथियार थे। जिन्हें पाकर मुस्लिम आक्रांताओं की शक्ति बढ़ गई थी। इन्हीं सब कारणों ने तुर्कों-मुगलों को अजेय बना दिया था और भारत इस काल चक्र में फंस गया था।

इस पृष्ठभूमि में मुगल शासन की नींव पड़ी। बाबर उज्बेक था और उसके पिता फरगाना के शासक थे। उनकी मृत्यु के समय बाबर अवयस्क था। इसलिए फरगाना की सत्ता पाते ही उसका विरोध शुरू हुआ और उसे वहां से खदेड़ दिया गया। बाबर उलुगबेग के शिशु उत्तराधिकारी की फौजों को हराकर काबुल का शासक बन बैठा। दिल्ली सल्तनत के निरंतर चलने वाले अंतसंघर्ष के कारण इब्राहिम लोदी से असंतुष्ट दौलत खां लोदी के निमंत्रण पर उसने दिल्ली पर आक्रमण किया। उसे वास्तविक सफलता तब मिली जब उसने अपने तोप खाने के बल पर उस समय के सबसे शक्तिशाली राजा संग्राम सिंह को हरा दिया।

बाबर के पिता तैमूर के वंशज थे और मां चंगेज। केवल वह ही नहीं बल्कि सभी मुगल सम्राट अपने को मुगल के बजाय तैमूरी कहलाना ही पसंद करते थे। तैमूर और चंगेज उस दौर के सबसे क्रूर योद्धा थे। तैमूर ने 1398 में दिल्ली विजय के बाद उसके एक लाख निर्दोष नागरिकों को मौत के घाट उतरवा दिया था। इतिहासकारों का आकलन है कि तैमूर के आक्रमणों में 1.7 करोड़ लोगों की जानें गईं थी जो उस समय विश्व की जनसंख्या का 5 प्रतिशत था। तैमूर का वंशज होने के कारण मुगल शासकों को इरानी शासकों का सहयोग प्राप्त होता रहा। 47 वर्ष की आयु में बाबर की मृत्यु हो गई और हुमायूं गद्दी पर बैठा। लेकिन कुछ समय बाद अफगान शेरशाह सूरी से पराजित होकर उसे इरान में सफाविद शासकों की शरण लेनी पड़ी। 1545 में शेरशाह और 1554 में उसके बेटे की मृत्यु के बाद हुमायंू को फिर दिल्ली पर आक्रमण की हिम्मत हुई। 1555 में मिली इस सफलता के अगले ही वर्ष उसकी मृत्यु हो गई। उस समय अकबर केवल 13 वर्ष का था। अकबर की आरंभिक सफलता शिया बैरम खां के कारण हुई। उसे पानीपत की लड़ाई में राजा हेमचंद्र के अचानक घायल हो जाने के कारण हारते-हारते सफलता हासिल हो गई थी।

वास्तव में अकबर से ही भारत में मुगल शासन का आरंभ माना जाना चाहिए। उसके बाद 1707 तक लगभग डेढ़ शताब्दी तक मुगल शासन में स्थिरता रही। अकबर को अन्य सब मुस्लिम शासकों से अलग दिखाने के लिए यह कहा जाता है कि वह उदार था, दूसरे धर्मों के प्रति सहिष्णु था और उसने अपने विजय अभियान से भारत के अधिकांश क्षेत्रों को एक शासन में बांध दिया। हालांकि अचेत हेमचंद्र के साथ और चितौड़ विजय के बाद किले के 30 हजार निशस्त्र लोगों के साथ उसने जो किया उससे उसकी वही छवि उभरती है जो सभी मुस्लिम शासकों की छवि थी- गाजी की छवि। लेकिन बाद में उसके व्यक्तित्व में उदारता और सहिष्णुता के लक्षण भी मिलते हैं। राजपूतों से हाथ मिलाना उसके राजनैतिक कौशल का परिचायक था, क्योंकि वे उस समय की एक बड़ी शक्ति थे। वह स्वभाव से कट्टर नहीं था और उसकी बहादुरी और उदारता के बहुत से किस्से उसे अन्य मुस्लिम शासकों से अलग सिद्ध करते हैं। लेकिन उसके नेतृत्व में जिस शासन की नींव पड़ी वह एक विदेशी शासन ही था, भारतीय शासन नहीं।

अकबर को 49 वर्ष शासन करने का अवसर मिला। औरंगजेब को छोड़कर किसी और शासक को इतना लंबा समय नहीं मिला। लेकिन अन्य सब शासकों की तरह इन दोनों का समूचा शासन काल भी युद्ध करते ही बीता। इतिहासकार शेरशाह सूरी को उसके पांच वर्ष के शासन में ही राजस्व व्यवस्था सुदृढ़ करने और अकबर को मनसबदारी स्थापित करने का श्रेय देते हैं। लेकिन यह दोनों व्यवस्थाएं भारत में एक औपनिवेशिक सत्ता स्थापित करने वाली व्यवस्थाएं ही थीं। इतिहासकारों ने यह तथ्य भुला दिया है कि मुस्लिम काल सैनिक शासन का काल है। अकबर की मनसबदारी उसी सैनिक शासन को औपचारिक स्वरूप देकर और मजबूत बनाने वाली थी। इसके साथ ही सारे राजस्व पर केंद्रीय सत्ता का नियंत्रण हो गया था और सुल्तान राजस्व की अधिकांश वसूली सीधे करने लगे थे। इस तरह स्थानीय व्यवस्थाओं को चलाने के लिए राजस्व का जो भाग अलग कर लिया जाता था उसे भी हड़प लिया गया। राज सत्ता का उपयोग सैनिक अभियान के अलावा धर्मांतरण और मस्जिदें, मकबरें बनवाने में हुआ, राजधर्म निभाने में नहीं।

अकबर की मनसबदारी में इरानी और तूरानी लोगों की भरमार थी। मंत्रिमंडल में जहां इरानी अधिक थे, वहीं मनसबदारी में उज्बेकों का दबदबा था। गिनती के राजपूतों को छोड़कर सभी मनसबदार मुस्लिम थे जिनमें 87 प्रतिशत विदेशी थे। पैदल सेना में कुछ स्थानीय भर्ती के अलावा सेना में सब जगह विदेशी लोगों की ही भर्ती होती थी। इस रूप में मुस्लिम काल ने भारत को निशस्त्र कर दिया था। राजस्व के केंद्रीकरण से मुस्लिम शासकों को बड़ी सेनाएं रखने की सुविधा मिल गई थी। बाहर से निरंतर आने वाले प्रशासकों और योद्धाओं ने भारतीयों में से नया नेतृत्व उभरने के रास्ते बंद कर दिए थे।

इस तरह स्पष्ट है कि मुस्लिम शासन के आरंभ में स्वशासन की भारतीय व्यवस्था को सैनिक शासन की केंद्रीय व्यवस्था में बदल दिया गया था। ऐसे शासन से साधारण लोगों को कोई अपेक्षा नहीं हो सकती थी। किसानों की आधी उपज सुल्तान की घोषित की गई। लेकिन राजस्व की वसूली की सारी मशीनरी बाहरी और विदेशी थी, इसलिए जबरन कहीं अधिक वसूली होती थी। न्याय की पंचायती व्यवस्था निर्जीव हो गई थी और बहुसंख्यक हिंदुओं के उत्पीड़न को रोकने की किसी से आशा नहीं की जा सकती थी। यह अराजकता की स्थिति थी जिससे केवल वे क्षेत्र बचे रहे जहां स्थानीय हिंदू शासक थे। राजपूतों, मराठों, बुंदेलों, दक्षिण के हिंदू राजाओं या मुगल निंयत्रण से बचे रहे पहाड़ी राजाओं के क्षेत्र ही इस अराजकता से बचे थे। यह अराजकता अंग्रेजी राज तक तो चली ही, कलेक्टर राज के रूप में आज भी कायम है। आज भी देश की अधिकांश आबादी के लिए शासन का अर्थ पुलिस के बल पर चलने वाला कलेक्टर राज ही है। इसकी नींव अंग्रेजों से भी पहले अकबर के शासन काल में पड़ गई थी, क्योंकि मनसबदारी के द्वारा सारा शासन बाहरी हाथों में चला गया था। जब तक हम अपने इतिहास को इस रूप में नहीं समझते, हम यह नहीं देख पाएंगे कि 13वीं शताब्दी से जो विदेशी शासन आरंभ हुआ उसने हमको अपने इतिहास से विच्छिन्न कर दिया और इस तरह के विदेशी शासकों में महानता नहीं देखी जाती।

 

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