भावी पीढ़ी की सांसों को विराम दे रहा अनैतिक विकास

दीपक सिंह

 

बुनियादी तौर पर विकास दो आयामों में अभिव्यक्त होता है, एक तो भौतिक दूसरे चेतनागत। जब विकास की इन दोनों परिभाषाओं में अनुलोम सम्बन्ध होता है तो मानव सभ्यता कल्याण की क़्रोड़ में फलती फूलती है लेकिन इनमें प्रतिलोम सम्बन्ध होने पर परिणाम भयावह होता है। ज़हरीली होती दिल्ली की आबो.हवा ये सोचने पर विवश करती है की आज हमारी प्रगति कितनी एकांगी एदिशाहीन वह अनर्थकारी है।

गिनाने को अनगिनत उपलब्धियाँ हैं आज हमारे पास, जिन्हें लेकर हम अपने पूर्वजों के सामने फ़ख़्र महसूस कर सकते हैं। शारीरिक मेहनत, मस्तिष्क और विज्ञान की तिकड़ी ने आज की मानव सभ्यता को जो स्वरूप दे दिया है: वो बमुश्किल 3 .4 दशक पीछे की मनुष्य को कल्पनालोक लगेगा। साइकिल से चलने वाला इंसान आज कार, ट्रेन और प्लेन में बैठकर निरंतर समय को पछाड़ने की कोशिश करता दिख रहा है। दाल.रोटी और एकाध सब्ज़ी से सजी मध्यम वर्गीय परिवार की भी थाली आज इतनी संपन्न हो गयी है कि व्यंजनों को बखानती 56 की संख्या अप्रासंगिक सी हो गयी है। मुस्किल से दिखते दो.तीन तले मकानों की जगह आकाश को छूने की होड़ करती दिखती अट्टालिकाएं, टीबी, मोबाइल, कंप्यूटर जैसी जाने कितनी विज्ञान की संतानों ने समूची मानव सभ्यता का स्वरूप बदल कर रख दिया है। लेकिन मनुष्य समाज को सजाने और सँवारने की कोशिश में लगे विज्ञान के इस चेहरे में कितना दोहरापन है, विध्वंस के कैसे भयावह संकेत हैं, इसे आज दूषित होता अन्न,फल, जल, ज़मीन, जंगल, नदियां और घुटती हमारी साँसे बयाँ कर रही है।

उससे भी ज्यादे स्तब्ध कर देने वाली बात ये है कि इन भौतिक खिलौनों से खेलते खेलते हमारी चेतना इतनी जड़ होती जा रही है कि मकड़ी के जाले की तरह स्वयं से निर्मित इस मौत के दल दल को देखते हुए भी हममे इससे बचने की कोशिश नहीं, इसे समझने.सुनने का वक़्त नहीं। हम पर, हमारे बुजुर्गों और बच्चों पर, नवजात और गर्भ में पल रहे शिशुवों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है विज्ञान के विकास से रिस्ते इस ज़हर का, यदि इसे ठीक से समझने की कोशिश करें तो लगता है कि आज जब चिंतन बाज़ार में बिक रहा है, समाज के नायकों की कोशिशें ज़्यादाकर मुद्राओं और सत्ता लोभ से विनिमय की जा रही है और मध्यम वर्गीय व्यक्ति अपने श्रम व समय को सुविधा और भौतिक चकाचौंध में व्यर्थ कर रहा है, सीमान्त वर्गीय मनुष्य तन ढकने व दाल रोटी जुटाने की जुगत मैं जीवन खपा रहा है तो ऐसे में कहना मुश्किल है कि यह विकास यात्रा है या विध्वंस यात्रा।

यदि ज्यादे अन्न व फल को उपजाने की कोशिश में उर्वरकों व कीटनाशकों के अन्धाधुँध प्रयोग से, बेहिसाब फैलीं फैक्ट्रियों द्वारा उगले जाने वाले रासायनिक तत्वों से दूषित होते जल ज़मीन और बीमार होती हमारी भूख के हिसाब को थोड़ी देर के लिए छोड़ भी दें तो भी हर पल साँसों में समाती राजधानी की इस ज़हरीली हवा के प्रति हमारी ये बर्फ़ीली संवेदना इतनी महँगी पड़ेगी जिसका हिसाब लगाना कठिन है। पिछले कुछ वर्षों से सर्दियों में दिल्ली की हवा में प्रदूषण का स्तर बद से बदतर होता जा रहा है और जब ये हवा दमघोंटू हो जाती है तो मीडिया में इस मुद्दे पर शोरगुल बढ़ जाता है और इस पर होने वाली कुल कवायद का एक बड़ा हिस्सा ये समझ बनाने में जुट जाता है कि हरियाणा और पंजाब के किसानों द्वारा जलाये जाने वाले पराली की धुएँ ने हमारी हवा में ज़हर घोला है लेकिन यह ठीक समझ नहीं है वस्तुतः पराली के धूएँ  ने तो जलवायु की गणित के साथ मिलकर बस इतना किया है कि दिल्ली वालों के दुर्व्यवहार से ऊपजी गंदगी के हवाई निर्यात को पूरी तरह से रोक दिया है

निश्चित तौर पर इन परिणामों से वाक़िफ़  होने और पराली को खेतों में जलाने से प्रशासन द्वारा मना किए जाने के बावजूद उन किसानों का ये व्यवहार ना केवल मानवीय सहयोग व संवेदना की परिभाषा से बहुत परे है वरन दंडनीय है। लेकिन इस बहस में हम उन तमाम पहलुओं को दरकिनार कर देते हैं जो समस्या की जड़ में हैं। इस हवा को दूषित करने वाले कौन से तत्व कितने घातक है, कहाँ से पैदा होते हैं, यदि सम्यक् तौर पर इन पहलुओं पर विचार करें तो भौतिक तरक़्क़ी की गोद में अपंग होती मानवीय चेतना का चौंकाने वाला चेहरा सामने आता है ।

शुद्ध हवा मुख्य तौर पर  नाइट्रोजन 78.084% आक्सीजन 20.946% एवं गौण मात्रा मे कार्बन डाई आक्साइड (.33%) आरगन; (.934%) हिलियम नीआन,जिनान,हाइड्रोजनए मीथेन इत्यादि गैसों का मिश्रण है।इन गैसों की पर्यावरण संतुलन व शरीर की क्रिया संचालन में सुनिश्चित एवं उपयोगी भूमिका है, लेकिन रसायन के राक्षस से भी विमुक्त घातक तत्वों ने 90 के दशक से हमारे शहर में जिस अनर्थ की पटकथा लिखनी प्रारंभ की उससे ठीक से निपटने के लिए आज आन्दोलन जैसे सक्रियता की आवश्यकता है। इस दशक में शुद्ध वायु को कार्बन डाई आक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक़्साइड व कुछ अन्य गैसों ने प्रदूषित करना शुरू किया ।सीमित क्षेत्रफल एवम् तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या, दिन दूना रात चौगुना बढ़ते वाहनों एवं दिल्ली एनसीआर के रिहायशी इलाकों से गुथी अनगिनत औद्योगिक इकाइयों के उत्सर्जन ने सन 2000 से इस हवा को बुरी तरह विषाक्त करना शुरू कर दिया जो आज विस्फोटक समस्या बन गई है ।

डब्लूयचओ की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया के १६०० शहरों में दिल्ली सर्वाधिक प्रदूषित शहर है। नवम्बर 2017 की सात तारीख़ को यहाँ प्रदूषण का स्तर PM-10 एवं PM2.5  के पैमाने पर 999 था जबकि इसे क्रमशः 100 व 60 के अंदर रहना चाहिए ।Pm यानी पार्टी कूलर मैटर .इसमें कार्बन मोनो आक्साइड,अमोनिया, लैड, आर्सेनिक, निकल, बेंजीन, बेंजोपायरीन जैसे अतिघातक तत्वों को लिया जाता है ।ये कारक कितने मारक है, इसका कुल बयान तो दुष्कर है लेकिन उदाहरण के तौर पर आर्सेनिक को लें तो यह विशुद्ध ज़हर है जिसका घातक प्रभावों के अतिरिक्त शरीर को कोई उपयोगिता नहीं ।लेड को लें तो ये वो ब्रह्मराक्षस है जो समाज की चमक दमक बढ़ाने में पैदा तो हो जाता है लेकिन मरता नहीं है ।शरीर इसे किसी भी तरह से समायोजित नहीं कर पाती है। फेफड़े अद्भुत क्षमता की छननी हैं जो ठोस व तरल नहीं वरन हवा छानने का काम करते हैं लेकिन लेड फेफड़े के फुफ़्फ़सो को क्षतिग्रस्त करता हुआ सीधे रक्त में प्रवेश कर जाता है।इसे आगे हृदय की रक्त संशोधन प्रक्रिया बाहर नहीं फेंक पाती, ना ही यकृत इसे छान पाते हैं।नतीजा जो भी अंग नाज़ुक होता है शरीर का वह घातक रोग की चपेट में आ जाता है।बीपी की असामान्यता,  किडनी, पंक्रियाज, सेंट्रल नर्वस सिस्टम, ब्रेन डैमेज, प्रजनन क्षमता में कमी, हड्डियों की कमज़ोरी, बच्चों के दिमाग़ का मंद  विकास या उनमें अति आक्रामकता, अवसाद, अनिद्रा जैसे दुष्प्रभाव देखे जा रहे हैं इस लेड के बहुत कुछ काले अध्याय इन तत्वों के तो भविष्य के गर्भ में हैं।

अब इस वायु प्रदूषण के स्रोतों पर नज़र डालते हैं ।परिवहन मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार 25 मई 218 तक दिल्ली में पंजीकृत कुल वाहनों की संख्या 1करोड़5लाख, 67हज़ार,712 थी, जिनमें 31लाख72हज़ार842 कारें थीं। इन वाहनों में 3.3 लाख वाहन तो दस वर्ष पुराने डीज़ल संचालित व 36.7 लाख वाहन पन्द्रह वर्ष पुराने पेट्रोल संचालित हैं। इस पर भी विज्ञान प्रदत्त सुविधा के हाथों ग़ुलाम होते एक आम नागरिक का व्यवहार देखिए कि इतनी हाय तौबा मचने के बावजूद यदि घर से एक.आधा किलोमीटर पर भी मार्केट या बच्चों को छोड़ने स्कूल या ऑफ़िस जाना हो तो कार हो तो कार या बाइक से जाएंगे। पैरों का प्रयोग तो मानो घर और ऑफ़िस की दीवारों में सीमित होता जा रहा है ।सुबह 9.11 शाम को 5.8 ऑफ़िस टाइम, दोपहर 12 से2 बजे तक बच्चों का स्कूल, रात में नो इंट्री हटने के बाद भारी वाहनों का प्रवेश, नतीजन न केवल दिल्ली की सड़कें पटी रहतीं हैं वाहनों से, वरन चींटी की तरह रेंगती हैं सड़कों पर। बेतरतीब फैली और बेहिसाब बढ़ी औद्योगिक इकाइयों के कारनामों को समझना हो तो मायापुरी चले जाइए ।पुरानी गाड़ियों के कटिंग की ध्वनियाँ,  चतुर्दिक फैले कबाड़, ज़्यादा समय जाम गलियां, दिन भर उड़ती धूल, यदि आप अनभ्यस्त हैं तो ज्यादे देर नहीं टिक पाएंगे वहाँ ।पूरी दिल्ली में कहाँ और कितना क्षेत्रफल आवासीय है और कितना औद्योगिक, यदि इस पर विचार करें तो शासन की सोचहीनता और ज़हरीले प्रदूषण की पटकथा का बहुत ही आत्मघातक अध्याय सामने आता है।

वाहनों और कल कारखानों द्वारा उगले धुएं को बेहिसाब निर्माण कार्यों से उठती धूल का भारीपन, बहती बयारों का अभाव और सर्दी की आर्द्रता मिलकर एक गैसीय चैम्बर में तब्दील कर देते हैं । रही सही कसर को पराली के धूएँ से बनी बादल जैसी परत पूरा कर देती है ।दिनों दिन ज्यादे जानलेवा होते विकृत विज्ञान से पोषित अंधी भौतिक दौड़ के इस दानवी हिटलर द्वारा निर्मित प्रदूषण के इस गैसीय चेम्बर के ध्वंसक प्रभावों के बारे में विचार करता हूँ और दिल्ली वासियों को पटाखे ख़रीदने के लिए लालायित देखता हूँ तो विषाद से भर जाता है मेरा मन।

माननीय न्यायालय व एनजीटी ने सक्रियता  व सख़्ती दिखाई है लेकिन आवश्यकता है युद्ध स्तर पर इस समस्या से निपटने की।इस महा अभियान में एक.एक लोगों को भाग लेना पड़ेगा। कितना भी सख़्त क़दम उठाना पड़े, उठाओ। आड.ईवन से काम नहीं चलेगा, जीवन जीने की आवश्यकताओं के अतिरिक्त सारे बाहरी क्रियाकलापों को बंद कर दो पर इस अनर्थ को मत जन्म दो, जिसमें आम आदमी तो क्या समर्थतम राजनेता, अधिकारी, न्यायाधीश, व्यवसायी भी अपनी तो अपनी,अपने जिगर के टुकड़ों की सांसों में समाते इस ज़हर के आगे बेबसी महसूस कर रहे हैं, जो दिल्ली वालों के लिए मौत का सबसे बड़ा दलदल साबित हो सकता है।

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