प्लास्टिक का इस्तेमाल बंद करने के लिए कोई रॉकेट साइंस की जरूरत नहीं….

 

विजया लक्ष्मी

सावन के सोमवार का वैसे तो पर्यावरण से कोई सीधा नाता तो नहीं लेकिन मेरे लिए तो है। मैं चारों सोमवार को शिव लिंग पर दूध और जल अर्पन करने जाती रही हूं। हर बार की तरह इस बार भी गई लेकिन इस बार कुछ ऐसा किया जिससे मुझे ज्यादा सकून मिला। दरअसल, मंदिर के बाहर फूल, बेल-पत्र बेचने वाली महिलाएं दस रूपये में यह सारी सामाग्री बेच रही थी। लेकिन इन सबके के साथ मुफ्त में प्लास्टिक की थैली भी दे रही थी। जो कुछ ही समय बाद कचरे के डिब्बे में ही जाना था। मैंने फूल बेचने वाली महिला से कहा तुम यह फूल और सारी सामाग्री मेरी पूजा की थाली में ही रख दो। बल्कि सभी की पूजा की थाली में ही रख दिया करों।  तो वो बोली कमाल है मैडम आप पहली ऐसी महिला हैं जिन्होंने प्लास्टिक की थैली लेने से मना किया हो। इतना सुना ही था तो सोचा क्यों न पूजा करके घंटे दो घंटे लोगों को इस बारे में जागरूक करूं। किया भी तकरीबन 12 महिला ने बात मानी भी और इस दिन मुझे अच्छा महसूस भी हुआ कि मैंने 12 प्लास्टिक एक दिन में इस्तेमाल करने से बचा लिया।

दिल्ली में वैसे तो प्लाटिस्क के इस्तेमाल पर बैन है लेकिन लोग हैं कि मानते ही नहीं और सरकार के पास भी इतने हाथ नहीं कि वे अपने ही इस आदेश का पालन ही करवा पाएं। पर इस वाक्ये से एक बात तो साफ हुई कि इस्तेमाल करने वाले और इसे बेचने वाले दोनों ही जानते हैं कि प्लास्टिक पर्यावरण के लिए खतरनाक है। लेकिन फिर भी न जाने क्यों लोग इसका इस्तेमाल करते हैं। इसी सवाल का जवाब शायद मैं, आप और सरकार जानने की कोशिश कर रही है। पर सच बताऊ…प्लास्टिक का इस्तेमाल बंद करने के लिए किसी रॉकेट साइंस की आवश्यकता नहीं है।

समस्या का समाधान भी हमारे हाथ में है लेकिन हम समाधान की तरफ देखना नहीं चाहते। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक देश मेंहर रोज 25,940 टन प्लास्टिक कचरा निकलता है जिसमें से 40 फीसदी प्लास्टिक तो इक्कठा ही नहीं हो पाता। सोचिए रोजाना करीब 10 हजार टन से अधिक प्लास्टिक कचरा जमींन और पानी में यूं ही जमा होता जा रहा है और यह सिलसिला शायद यहां पिछले 30 साल से भी ज्यादा से चलता आ रहा है। इन सभी का जोड़, गुणा करें तो, शायद अब तक देश में इतना प्लास्टिक जमा हो चुका है कि इसका एक समुद्र बन ही चुका होगा।

हमने अपना पानी, हवा और जमीं सब कुछ प्रदूषित कर लिया है। साथ में सभी बेजुबान जानवरों और पेड़ पौधों के लिए भी मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। कैसा विकास है ये? किसको लाभ मिल रहा है? कहां लेकर जाएगा यह सब? इस तरह के कई सवाल उमड़ते हैं लेकिन शायद एक ही जवाब मिलता है कि हम आदि हो चुके हैं प्लास्टिक के इस्तेमाल के। सहूलियत तो पहले भी थी न..जब प्लास्टिक नहीं था। लोग कपड़े का झोला लिए घर से निकलते थे। मुझे अपने बचपन की याद है जब पापा जूट का बैग लेकर घर से बाहर निकलते थे। पापा की साइकिल की डिकी में तो मम्मी का बनाया कपड़े का झोला हमेशा रहा करता था। दूध शीशे की बोतल में दूधिया दे जाता था। चार बोतलें रोज मां खाली कर बाहर छोड़ देती थी।

समोसे, कचौरी और जलेबी कागज के थोंगे या फिर पत्तों से बनी दोने में लाया करते थे। पत्तों से बंधी जलेबी, केले के पत्तो से लिपटे कद्दू सब तो कितना आसान था। फिर लोग एक बार फिर उसी राह पर क्यों नहीं चलते? । और शायद मेरे जैसे लोग जो लैंडलाइन, अंतरदेशी- पोस्ट कार्ड के जमाने में पैदा हुए तो कमसे कम ऐसी पहल कर ही सकते हैं। साथ में सरकार को प्लास्टिक इतना मंहगा कर देना चाहिए ताकि लोग खुद ही झोला उठाने पर मजबूर हो जाएं। अगर घर में 300-400 रूपए सिर्फ प्लास्टिक पर ही खर्च होंगे तो मेरे ख्याल से वो वर्ग जिसकी दिन भर की कमाई इससे भी कम है जरूर पहल करेंगे। क्योंकि बैन लगाने से होता जाता कुछ नहीं है बल्कि इसका इस्तेमाल कई गुणा और बढ़ जाता है।

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