जनसत्ता जो दुबारा जन्मा -इतिहास जनसत्ता का

रामबहादुर राय

एक्सप्रेस की नई बिल्डिंग के विवाद को सुप्रीम कोर्ट में चले मुकदमें की नजर से जो लोग देखेंगे वे इस नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि जनसत्ता को निकालने की जरुरत उसके कारण पड़ी होगी। सरकार का अदालत से कहना था कि नई बिल्डिंग के लिए एक्सप्रेस ने जनता शासन में जगह हिंदी अख़बार यानि जनसत्ता के लिए ली थी। बिल्डिंग का इस्तेमाल इसके लिए नहीं हो रहा था। मंजूर नक़्शे से अधिक जमीन हथिया ली है और जिस काम के लिए बिल्डिंग बनी थी वह नहीं हो रहा है । उसका गलत इस्तेमाल हो रहा है। ये तर्क सरकार दे रही थी।

मुकदमा छह साल चला और आखिरकार फैंसला एक्सप्रेस के पक्ष में आया। मुकदमें के दौरान महर्षि महेश योगी ने दलबल के साथ एक्सप्रेस की नई बिल्डिंग में आकर डेरा डाला। उनके साथ करीब चार हजार विदेशी शिष्य थे। रामनाथ गोयनका की यह चाल कामयाब रही। इंदिरा गांधी की सरकार चाह कर भी बिल्डिंग को गिराने का साहस नहीं कर पाई। बिल्डिंग बचाने के लिए उन्होंने होलैंड पहुंचकर महेशयोगी को आने का न्यौता दिया था।

जिन दिनों रामनाथ गोयनका एक्सप्रेस की नई बिल्डिंग का मुकदमा लड़ रहे थे उस दौरान की कुछ घटनाओं का सीधा संबंध जनसत्ता के दुबारा निकलने से है। जनता शासन में पी. के. गोस्वामी की अध्यक्षता में दूसरा प्रेस आयोग बैठा था। पहला प्रेस आयोग 1954 में बना था जिसे जवाहरलाल नेहरु ने बनवाया था। दूसरा प्रेस आयोग अपनी रिपोर्ट देता कि जनता शासन ख़त्म हो गया . इंदिरा गांधी सत्ता में लौट आई। इस कारण आयोग ने इस्तीफ़ा दे दिया। उसी आयोग की अध्यक्षता के.के. मैथ्यू ने संभाली। उसकी रिपोर्ट पर विवाद खड़ा हो गया .सरकार के इशारे पर आयोग के चार सदस्यों ने विरोध किया। गिरिलाल जैन, राजेन्द्र माथुर, प्रो. एच. के. परांजपे और न्यायमूर्ति शिशिर मुखर्जी विरोध करने वालों में थे।

यह घटना उससे अहम् थी। मई 1982 में राजेन्द्र माथुर ने हिंदी पत्रकारिता के नज़ारे पर तीन लेख लिखे। जो टाइम्स ऑफ़ इंडिया में छपे। वे तब नई दुनिया इंदौर के सम्पादक थे। उन्होंने लिखा कि दक्षिण भारत में भाषाई पत्रकारिता जिस ऊंचाई पर दो दशक पहले ही पहुंच गई उसकी सुगबुगाहट उत्तर भारत में 1975 के बाद शुरू हुई है। क्षेत्रीय अख़बार पनप रहे हैं .लेकिन पूरी ईमानदारी से यह कहा जा सकता है कि सही मायने में हिंदी का कोई राष्ट्रीय अख़बार अभी भी नहीं है। उन्होंने उसी लेख में यह भी बताया कि राष्ट्रीय अख़बार किसे कहा जाएगा। उसे जिसकी देशभर में प्रतिष्ठा हो। अगर हर जगह पहुँचता हो और पूरे देश में उसका सरकुलेशन हो तो बहुत ही बढ़िया। न हो तो देशभर में उसकी इज्जत होनी चाहिए। उसमें इतना बल और बुद्धि हो कि जनमत बना सके।

सरकार की नीतियों को प्रभावित कर सके हिंदी की प्रतिभाएं उससे जुड़ने को आतुर हों और जुड़कर गौरवान्वित महसूस करें। उस लेख की उन दिनों चर्चा रही। उसे रामनाथ गोयनका ने भी पढ़ा होगा। प्रभाष जोशी ऐसे ही अख़बार का सपना पाल रहे थे। उस समय की राजनीतिक परिस्थितियां सरल नहीं थी। विपक्ष हतबल था। जनता प्रयोग के विफल हो जाने से निराशा छाई हुई थी। उससे निकलने के लिए विपक्ष के नेता शिखर वार्ताओं की ओट ले रहे थे। यह सिलसिला श्रीनगर से पुणे तक चला। उन्ही दिनों चंद्रशेखर ने भारत यात्रा का मन बनाया।

बिखरे विपक्ष से तब यह उम्मीद नहीं थी कि वह जनता की आवाज़ बन सके। दिल्ली में हिंदी के जो अख़बार थे, वे जनता की आवाज़ बनने का माद्दा नहीं रखते थे। हिंदी भाषी इलाके में उनकी पहुंच थी। दूर-दूर तक फैलाव था लेकिन जहां से छपते थे यानि दिल्ली में उनका कोई असर नहीं था। असरदार लोगों की जमात में जगह अंग्रेजी अख़बारों की थी। चाहे अफसर हो या राजनीतिक नेता या संपन्न लोग वे सब हिंदी अख़बार वाले नहीं थे।  एक राष्ट्रीय दैनिक की जगह खाली थी। उसे भरने के लिए ही 1983 की शुरुआत में नवभारत टाइम्स में एक विज्ञापन छपवाया गया। जिससे अर्जियां मंगवाई गई।

उन दिनों दिल्ली महानगर परिषद् और कर्नाटक विधानसभा के चुनाव हो रहे थे। दिल्ली में कांग्रेस जीती और कर्नाटक में जनता पार्टी।  नए अख़बार का नाम विज्ञापन में नहीं था। लगता है कि जनसत्ता और प्रजानीति में से कोई नाम तय होना था। पहली बार एक अख़बार की टीम बनाने के लिए जो चयन प्रक्रिया अपनाई गई उसमें इम्तहान भी शामिल था। इसी साल अपने कागद कारें में प्रभाष जी ने लिखा है कि ‘जनसत्ता हिंदी का पहला अख़बार है जिसका पूरा स्टाफ संघ लोक सेवा आयोग से भी ज्यादा सख्त परीक्षा के बाद लिया गया। सिवाय बनवारी के मैं किसी को पहले से जानता नहीं था। बहुत सी अर्जियां आई थी। उनमें सैकड़ों छांटी गई। कई दिनों तक लिखित परीक्षाएं चली-घंटो लंबी। वे बाहर के जानकारों से जंचवाई गई।  उनके अनुसार बनी मेरिट लिस्ट के प्रत्याशियों को इंटरव्यू के लिए बुलाया गया।

इंटरव्यू के लिए भारतीय संचार संस्थान के संस्थापक निदेशक महेंद्र देसाई, प्रेस इंस्टिट्यूट पूर्व निदेशक चंचल सरकार, गांधीवादी अर्थशास्त्री एल. सी. जैन, इंडियन एक्सप्रेस के संपादक जॉर्ज वर्गीस, मैं और एक विशेषज्ञ। कई दिन इंटरव्यू चले .लिखित और इंटरव्यू की मेरिट लिस्ट के मुताबिक लोगों को काम करने बुलाया। वेतन, पद उसी से तय हुए। कोई भी किसी की सिफारिश या किसी के रखे नहीं रखा गया। इससे ज्यादा वस्तुपरक और तटस्थ कोई प्रक्रिया हो ही नहीं सकती थी। केवल चयन प्रक्रिया ही ऐसी नहीं थी जो पहली बार किसी अख़बार के लिए अपनाई गई। ऐसा उदाहरण भी नहीं मिलेगा जब अपने सोच और सपने का अख़बार निकालने के लिए किसी पत्रकार ने 10 साल इंतजार किया हो।

अगर उसे 1968 से देखें तो वह 25 साल बैठता है। ऐसा उदाहरण भी खोजें नहीं मिलेगा जब किसी अंग्रेजी समूह के हिंदी अख़बार का संपादक सीधे मालिक से जुड़ा हो और जब चाहे बात कर सकता हो। प्रभाष जोशी ही अकेले उदाहरण हैं। आम तौर पर अंग्रेजी समूह के हिंदी अख़बार के मालिक से उनकी बात-चीत वैसे ही हो पाती है जैसे हस साल कोई त्यौहार आता है। जाहिर है ऐसी भेंट रस्मी ही रहती है। उसमें काम-काज की कोई बात नहीं हो पाती। इस मायने में जनसत्ता दूसरे हिंदी अख़बारों से पहले दिन से ही बेहतर स्थिति में था। इसका कारण एक यह भी था कि प्रभाष जोशी को इंडियन एक्सप्रेस के तीन संस्करणों को संभालने और बेहतर बनाने का श्रेय हासिल था। इंडियन एक्सप्रेस के लोग तब याद करते थे कि हर हफ्ते नियमपूर्वक संपादकीय पेज पर एक लेख प्रभाष जोशी अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद लिखते ही थे। जब उन्होंने जनसत्ता निकाला उस समय इंडियन एक्सप्रेस में वे उसी तरह आदर भाव से देखे जाते थे जैसे उनके अपने प्रधान संपादक हों।

जुलाई 83 में टीम ने कम करना शुरू किया । करीब 5 महीने अख़बार की भाषा, शैली और ख़बरों पर काम होता रहा । भाषा कैसी हो इसपर बहुत सोच विचार संपादक ने कर रखा था । जरुरत उसे समझने और अपनाने की थी। भाषा के बारे में अलग-अलग नजरिया है। एक यह कि भाषा नदी की तरह होती है। नदी में प्रवाह जितना होगा उतनी वह वेगवान होगी। दूसरे अख़बारों में जो हिंदी चलाई जा रही थी वह तटबंधों की थी। जनसत्ता के लिए जो हिंदी अपनाई गई वह बोलियों से बनी आम बोल-चाल की भाषा थी। ऐसी भाषा जिसमें प्रवाह हो। जो पाठक को सहज लगे। यह एक ऐसी अवधारणा है जिसमें नदी पहले बहती है और उसके तट बाद में बनते हैं।

इसी तरह भाषा और व्याकरण के भी संबंध हैं। कोशिश रही कि बोलियों के शब्द ख़बरों में हों। उससे उस क्षेत्र की शब्द सम्पदा से अख़बार स्मृद्ध हो। बोलियों के शब्दों से उस क्षेत्र की अनुभूति आती है। आकांक्षा आती है। चिंतन, लोकमत और अभिव्यक्ति प्रकट होती है। एक इंटरव्यू में प्रभाष जोशी से सवाल था कि हिंदी पत्रकारिता में आप क्या करना चाहते हैं और उसमें आपको कितनी सफलता मिली? जवाब में कहते हैं –तीन बातें करना चाहता था। एक तो हिंदी पत्रकारीय भाषा में एक अजीब तरह की ‘औपचारिकता’ पर मुझे शुरू से एतराज था। मैं अख़बारों की ख़बरों में जनसंचार की एक ऐसी सामान्य हिंदी के प्रयोग का इरादा रखता था जिसे लोग अपने मन की स्वाभाविक अभिव्यक्ति के बतौर लें।

……पत्रकारिता में अगर हम अनौपचारिक संवाद कायम नहीं कर सकते तो फिर हम पत्रकार नहीं हैं, क्योंकि पत्रकारिता में लगे लोगों का काम लाखों-करोड़ों तक सूचनाएं पहुंचाना है। हमने यह काम अपने अख़बार के माध्यम से शुरू किया और आज लगभग सभी अख़बार इसको प्राथमिकता दे रहे हैं। तीसरी बात, 80 से पहले तो यह माना जाता था कि असली चीज अंग्रेजी है, हिंदी पत्रकारिता तो उसकी पिछलग्गू है। इस बात से मुझे बहुत कोफ़्त होती थी। इसको हिंदी ने गलत साबित कर दिखाया । हमने पंजाब पर, कश्मीर पर, साम्प्रदायिक दंगों पर, चुनावों पर या 1984 के सिख विरोधी दंगों पर जितनी अच्छी कवरेज की उतनी अंग्रेजी वाले नहीं कर सके। जनसत्ता ने जिसे अपनाया उस हिंदी की मंजिल लोकभाषा बनना है, जिसमें सबकी समेटने और मिलाने की क्षमता होती है। सरकार और औपचारिक हिंदी के हिमायतियों ने जिस प्रक्रिया को अपनाया था उसे यह पलट देती है। यह प्रक्रिया लोक भाषा से राष्ट्र भाषा और फिर राज भाषा में पूरी होती है….जारी

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