चुनाव सुधार का ही दूसरा नाम है -राजनीतिक सुधार

 

रामबहादुर राय

बीते दो दशक से चुनाव सुधार के लिए कई मोर्चों पर जंग छिड़ी हुई है। जंग इसलिए क्योंकि यह विषय युद्ध से कम की मांग नहीं करता। इसमें ही एक नया एजेंडा जोड़ा है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने। जो मांग विपक्ष को करनी चाहिए थी, उसे प्रधानमंत्री ने उठाया। चुनाव सुधार में एक नया पहलू उन्होंने जोड़ दिया है।

एक नया मोर्चा खुल गया है। चुनाव सुधार का ही दूसरा नाम है-राजनीतिक सुधार। यहां यह बताना जरूरी है कि पहले से ही जो विषय जनमन में चिंता के कारण हैं वे क्या-क्या हैं?

चुनाव में कालेधन का प्रयोग दशकों से चिंता का विषय है। वह घटने की बजाए बढ़ा है। राजनीति का अपराधीकरण उसी अनुपात में बढ़ता जा रहा है। इसी का एक दूसरा पहलू है।

उसका संबंध अपराधियों के राजनीति करण से है। ये परस्पर गुंथे हुए हैं। लोकतंत्र की प्रवाहमान नदी में एक-दो जगह कुछ गंदे नाले हों तो ज्यादा चिंता की बात नहीं होती।

लेकिन काला धन और अपराध ने जिस तरह हमारी राजनीति को अपने-अपने गड्ढ़े में लील लिया है, उससे नागरिक समाज का प्रबुद्धवर्ग बेहद चिंता में है।

केवल वह चिंतित ही नहीं है बल्कि सुधार के लिए उसने कमर कस ली है। सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिकाएं, सेवानिवृत्त मुख्य चुनाव आयुक्तों की सक्रियता और पूर्व ब्यूरोक्रेट के चुनाव संबंधी प्रयास को इसका प्रमाण मान सकते हैं। वे समाज को आवाज दे रहे हैं। रिटायर होकर आराम नहीं कर रहे हैं। इससे थोड़ी उम्मीद बनती है, ज्यादा नहीं। क्योंकि वे बुनियादी बदलाव की बात नहीं कर रहे हैं। सुधार उनका लक्ष्य है।

उनकी सक्रियता से सुप्रीम कोर्ट ने अनेक फैसले किए। उससे कुछ सुधार हुआ भी है। नहीं तो सजा हो जाने के बावजूद लालू प्रसाद जैसे नेता लोकसभा में होते और फिजूल का शोर भी मचाते।

इस सफलता से अपराधियों का राजनीति में आना रुका नहीं है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट में बहस चल रही है और निर्णय होना है कि अपराधी किस्म के लोगों को चुनाव लड़ने से रोका जाना चाहिए।

यहां राजनीतिक दलों की परीक्षा हो जाती है। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि जो अपराध के आरोप में जेल में हैं वे चुनाव नहीं लड़ सकते तो उसे संसद ने पलट दिया।

इस पर किसी राजनीतिक दल ने एतराज नहीं किया। न विरोध में आवाज उठाई। सुप्रीम कोर्ट में अभी अनेक याचिकाएं पड़ी हुई हैं। कमाल की बात यह है कि पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों ने उसे सुप्रीम कोर्ट में पहुंचाया है।

संसद मौन हो तो यही होगा। लोग सुप्रीम कोर्ट ही पहुंचेंगे। सुधार एक खिड़की जो वहां खुली हुई है। इस तरह चुनाव सुधार एक रणक्षेत्र बन गया है। दो सेनाएं लड़ रही हैं।

एक तरफ चुनाव आयुक्त रहे लोग हैं तो दूसरी तरफ राजनीतिक दल हैं। सुधार न हो, इसमें राजनीतिक दलों की विस्मयकारी एकता देखने लायक है। क्या इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि अपराधियों को बचाने में सभी दल एक हैं?

दूसरा प्रश्न यह कि क्या एक साथ चुनाव करा देने से अपराधियों से राजनीति मुक्त हो जाएगी? इस बारे में अनेक मत हैं। सबसे आश्चर्य या यूं कहें कि अफसोस की बात यह है कि तमाम सुधारों की सिफारिश सरकार के पास पड़ी हुई है।

वह पुराने मुहावरे में धूल फांक रही है। ऐसा क्यों है? जब कोई सुधार न करना होता है तो सरकार टालने के लिए एक आयोग पुन: बना देती है। यही काम पिछली सरकार ने किया और उसने विधि आयोग को पुरानी सिफारिशों की छानबीन का काम सौंप दिया।

माना कि चुनाव सुधार एक सतत प्रक्रिया है। इसमें अनुभव जो आता है, वही सुधार का मार्ग प्रशस्त करता है। चुनाव की प्रक्रिया में सुधार की जरूरत पैदा होती रहती है।

यह विषय है पुराना। लेकिन एक अर्थ में यह कभी पुराना नहीं पड़ता क्योंकि चुनाव हमेशा चलने वाला राजनीतिक कर्म है। इस समय चुनाव सुधार की मांग राजनीतिक दलों से ज्यादा वे लोग कर रहे हैं जो जनजीवन में पारदर्शिता के पक्षधर हैं। कौन जानता था कि जानने का अधिकार इतनी आसानी से मिल जाएगा। उसके प्राप्त हो जाने से सुधार के कई रास्ते अपने आप खुले हैं।

रास्ते अवश्य खुले हैं, लेकिन चुनाव सुधार की मंजिल बहुत दूर है। कह नहीं सकते कि उस तरफ पहला कदम भी उठा है या नहीं? इसकी छानबीन होनी है।

चुनाव सुधार के झंडाबरदार जो-जो हैं, वे संतुष्ट नहीं हैं। साफ है कि वे जो चाहते हैं वह होता दिख नहीं रहा है। इसमें चुनाव आयोग भी शामिल है।

चुनाव आयोग ने इस बारे में गहन शोध किया है। हर चुनाव से उसे कुछ नई दृष्टि प्राप्त होती है जिसे वह सुधार के लिए उपयोग करता है।

मूल मंत्र यह है कि नागरिक अपने विवेक का उपयोग करे और अपना प्रतिनिधि चुने। इस रास्ते में जो-जो रुकावटें हैं, वे दूर होनी चाहिए। यही चुनाव सुधार का एजेंडा होता है। दिखने में यह सरल है। पर इसे हासिल करना बहुत कठिन है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अनेक पात्र हैं।

उदाहरण के लिए राजनीतिक दल हैं, सरकारें हैं, औद्योगिक घराने हैं। इनसे परे अनेक स्वार्थ समूह जो चुनाव को अपने लिए एक अवसर समझते हैं, उसे हड़पने में लग जाते हैं।

इन्हें ही एक नियमन में लाने का जो प्रयास कानून और लोकमत के दो पाटों के बीच होता है, वही चुनाव सुधार की प्रक्रिया का हिस्सा है। इसमें भारत सरकार की भूमिका बहुत निर्णायक है।

चुनाव आयोग भी सुधार के प्रस्ताव सरकार के ही पास भेजता है। चुनाव सुधारों के सक्रिय समूह भी जो-जो मांग करते हैं, वे भारत सरकार से ही करते हैं। इसी तरह राजनीतिक दल भी भारत सरकार से ही सुधार की मांग करते हैं। साफ है कि सुधार अगर होना है तो भारत सरकार को पहल करनी होगी।नहीं तो याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट फैसले सुनाकर चुनाव सुधार की जरूरत को बताता रहेगा। आखिर सुप्रीम कोर्ट तो सिर्फ उसी विषय पर निर्णय कर सकता है जो उसके सामने उपस्थित किया गया हो।

वह संसद और सरकार का पर्याय नहीं हो सकता। एक पहल पिछले दिनों वित्तमंत्री अरुण जेटली ने की है। उन्होंने कारपोरेट फंडिंग की वह सीमा घटा दी है जो गोपनीय बनी रहेगी।

पहले वह सीमा बीस हजार रुपये थी। उसे घटाकर दो हजार रुपये किया गया है। इस पर विवाद छिड़ा हुआ है। एक तर्क यह है कि इससे चुनाव फंडिंग में पारदर्शिता आएगी।

क्योंकि दो हजार से ऊपर के सभी दान जाने जा सकेंगे। दूसरा तर्क यह है कि इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। कारपोरेट घराने इसका अपने लिए नाजायज इस्तेमाल करते रहेंगे।

इसमें दो राय नहीं है कि राजनीतिक दलों को कारपोरेट घराने फंड देते हैं और अपना काम कराते हैं। गोपनीय फंडिंग की सीमा घटा देने मात्र से इसमें कोई कमी नहीं आएगी। इस बारे में अनेक अध्ययन पहले भी हुए हैं।

फंडिंग का संबंध चुनाव के खर्च से है। चुनाव का खर्च महंगाई की रफ्तार से बढ़े तो ज्यादा चिंता की बात नहीं होती। पर ऐसा हुआ नहीं है। ज्यादा दिन नहीं हुए। 14 साल पहले करीब दो दर्जन बड़े नेताओं से मैंने बातचीत की थी।

उनसे यह समझा कि उनका पहला चुनाव कितने रुपये में संपन्न हो गया था। तब मुझे भी यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि 1962 तक लोकसभा का चुनाव भी कुछ हजार रुपये में निपट जाता था।

उस समय राष्ट्रीय पार्टियां अपने उम्मीदवारों को कुछ हजार रुपये ही मदद में देती थी। तब चुनाव आयोग के खर्च की सीमा भी बहुत कम थी। उसको आधार मानें तो आज जमीन-आसमान का फर्क है।

एक अनुमान है कि इस समय छोटे या बड़े हर चुनाव का खर्च करोड़ों रुपये में आंका जा रहा है। टिकट पाने के लिए दावेदार उतना ही खर्च कर दे रहे हैं जितना वे चुनाव लड़ने के लिए करते हैं।

                               “चुनाव सुधार एक रणक्षेत्र बन गया है। दो सेनाएं लड़ रही हैं।
                            एक तरफ चुनाव आयुक्त रहे लोग हैं तो दूसरी तरफ राजनीतिक
                                दल हैं। सुधार न हो, इसमें राजनीतिक दलों की विस्मयकारी
                                              एकता देखने लायक है।

चुनाव का बहुत खर्चीला हो जाना इस बात का खतरा पैदा करता है कि वे ही चुनाव लड़ सकेंगे जो करोड़ों रुपये खर्च कर सकते हैं। ऐसा लोकतंत्र क्या सही मायने में प्रातिनिधिक होगा? चुनाव सुधार का एक पक्ष यह भी है। इसका दूसरा पक्ष राजनीतिक दलों की आंतरिक संरचना से संबंधित है। हर दल शिखर के नेतृत्व से संचालित हो रहा है। इसका सीधा सा मतलब है कि हर निर्णय शिखर पर होता है।

चुनाव में उम्मीदवार का चयन हो या दूसरी बातें, वे सब वहीं से निर्धारित होती हैं। चुनाव को कितना खर्चीला बनाना है, इसका फैसला भी शिखर नेतृत्व करता है।

भारत के चुनावी इतिहास में 1971 एक निर्णायक वर्ष था। उसमें इंदिरा गांधी ने चुनावों को खर्चीला बनाने का फैसला किया। इसके लिए उन्होंने दो तरीके अपनाए।

कारपोरेट फंडिंग के अलावा सरकारी सौदों के कमीशन को कांग्रेस के लिए इस्तेमाल किया। विपक्ष साधनहीन था। वही तरीका अब ज्यादातर राजनीतिक दल अपना रहे हैं।

यह निर्णय नेतृत्व के स्तर पर ही होता है। इस निर्णय प्रक्रिया को कानून से नहीं रोका जा सकता। पर कानून इसमें सहायक हो सकता है। अगर ऐसी व्यवस्था हो कि संविधान संशोधन कर राजनीतिक दलों की पूरी प्रक्रिया को विधि सम्मत बना दें तो सुधार संभव है।

इसी तरह उम्मीदवारों के चयन को राजनीतिक दलों की आंतरिक प्रक्रिया में इस तरह शामिल करें कि सदस्य अपने उम्मीदवार तय करें तो उससे अपराधियों और पैसे वालों को बाहर किया जा सकता है।

इसके लिए दलों की संरचना बदलनी होगी। मनोनयन के बजाए चुनाव प्रक्रिया अपनानी होगी। इसमें सबसे निचली इकाई की भूमिका को अधिक पारदर्शी और सहभागिता का बनाना जरूरी होगा।

हर स्तर पर चुनाव हो और उसी प्रक्रिया से हर निकाय के लिए उम्मीदवार अगर तय किए जाते हैं तो अधिक पारदर्शिता संभव है। इस समय इसके विपरीत का ही चलन है।

यह कार्य कोई भी दल अपनी स्वेच्छा से नहीं करेगा। उसे कानून का दंड और भय जब तक नहीं सताता तब तक वह यह कदम नहीं उठाएगा। इसके लिए चुनाव आयोग को अधिकार देने होंगे।

वह यह करा सके, इतना समर्थ उसे बनाना पड़ेगा। उदाहरण के लिए कांग्रेस का नाम लिया जा सकता है। कांग्रेस में दो दशक से चुनाव नहीं हो रहे हैं। मनोनयन हो रहा है।

चुनाव आयोग के नियमों में यह तय है कि हर राजनीतिक दल को अपना चुनाव कर उसे सूचित करना है। यह नियम जब से आया है, तब से कुछ बातें सुधरी हैं लेकिन कांग्रेस अभी भी अपने आंतरिक चुनाव को टाल रही है। इस देश की सबसे पुरानी पार्टी का यह हाल है तो दूसरों का क्या होगा?

राजनीतिक दल चुनाव को सरकार बनाने का एक मात्र साधन समझकर अपनी संरचना कर रहे हैं। इससे ही समस्या बढ़ी है। अगर चुनाव को राजनीतिक सफाई का भी जरिया बनाया जा सके तो लोकतंत्र अधिक उपयोगी हो सकेगा।

रामराज तब कल्पना की बात नहीं होगी। वह यथार्थ में घटित होता दिखेगा। इसके लिए दलों को अपने दृष्टिकोण और समझ में पूरा बदलाव लाना होगा।

आज राजनीति में मूल प्रेरणा जो है उसे भी बदलना होगा। कभी राजनीति सेवा का साधन थी। इसी अर्थ में महात्मा गांधी ने अपना व्यवसाय राजनीति लिखवाया था। अब राजनीति दो बातों से चल रही है। सत्ता और पैसा। पैसे से चुनाव जीता जाता है। जीतने वाला सत्ता का उपयोग पैसे को बढ़ाने में करता है।

इस दुश्चक्र को तोड़े बगैर न राजनीतिक सुधार होगा और न जनहित के काम होंगे। इसीलिए चुनाव सुधार की चुनौती सामने है।राजनीतिक दल उम्मीदवार तय करते समय एक ही बात देखते हैं कि कौन चुनाव जीत सकता है।

प्रतिस्पर्द्धा में आगे रहने के लिए यह सरलतम उपाय है। इसका सहारा ज्यादातर राजनीतिक दल ले रहे हैं।राजनीतिक दलों में सुधार की जरूरत सबसे ज्यादा है।

इसके लिए पहल हुई है। सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में समिति बनी। उसने एक प्रारूप बनाया। इस पर राजनीतिक दलों को विचार कर फैसला करना है।

वह प्रारूप दलों के विचाराधीन है। अगर राजनीतिक दल उसे मान लें और संसद में एक विधेयक पारित हो जाए तो राजनीतिक दलों को सुधारने का कार्य कानूनी रूप ले सकता है। सवाल यह है कि क्या ऐसा कानून बन सकेगा?

चुनाव सुधार में रामबाण क्या है? इसे खोजने में हर धुरंधर जुटा है। कोई व्यक्ति है तो कोई संस्था। अनेक सुझाव आए हैं। कुछ बहुत पुराने हैं। उन्हें भुला दिया गया था।

उसे भी खोजकर निकाला गया है। जैसे मुख्य चुनाव आयुक्त रहे एस.वाई. कुरैशी ने पिछले दिनों एक लेख में सुझाया कि आनुपातिक प्रणाली अपनाने की जरूरत है।

संभवत: उन्हें यह पता ही न हो कि लालकृष्ण आडवाणी ने सबसे पहले इसे सातवें दशक में उठाया था। तब जनसंघ को ऐसा लगता था कि वोट के अनुपात से उसे सीटें नहीं मिल रही हैं।

लेकिन इसे भाजपा ने भुला दिया। समय का चक्र देखिए कि उसे अब कुरैशी रामबाण मान रहे हैं। वर्तमान चुनाव को ‘फर्स्ट-पास्ट-द पोस्ट’ कहा जाता है। मतलब जो ज्यादा वोट पाए, वह जीतता है।

इसे बदलकर क्या-क्या हो, इस बारे में अनेक सुझाव हैं। जैसे यह कि संसदीय प्रणाली को राष्ट्रपति प्रणाली में रूपांतरित कर दिया जाए। चुनाव सुधार के जो-जो सुझाव आ रहे हैं, उन्हें ध्यान से देखें और समझें तो एक बात बहुत साफ है।

वह यह कि हम अपने अनुभवों से सीखने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। यूरोप और अमेरिका के नुस्खे से अपना इलाज करना चाहते हैं। स्वतंत्र भारत का क्या यह सम्मान है? क्या स्वराज का यही अर्थ है कि हम आज भी राजनीतिक सुधार के लिए अंतरखोज की बजाए नजर विदेशों में टिकाए हुए हैं।

चुनाव सुधारों को राजनीतिक सुधार का हमें हिस्सा बनाना चाहिए। इसलिए जरूरी है कि राज्य व्यवस्था में बदलाव हो। पंचायत प्रणाली को अधिक समर्थ और पारदर्शी बनाए।

कहना यह है कि चुनाव सुधार की शुरुआत पंचायत से हो न कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव से। यह मौलिक परिवर्तन से संभव हो सकता है। चुनाव सुधारक जरा इस बारे में भी सोचें।

 

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