गणेश और आधुनिक बुद्धिजीवी

क्लाड अल्वारेस

मुझे लगता है कि यदि मैं ‘बौद्ध धर्म और आधुनिक बौद्धिकता’ पर कुछ कहता तो अधिकांश लोग गौर नहीं करते। लेकिन गणेश? मुझे हमेशा ही या तो गहरी निराशा या उत्सुकसता हाथ लगती है, जब हम भारत की विविध बौद्धिक परंपराओं के किसी पहलू पर चर्चा का प्रयास करते हैं और उन्हें या तो तार्किकता या विज्ञान के साथ जोड़ने का प्रयास करते हैं।

हम नहीं जानते कि क्या करना है, उदाहरण के लिए जब हम गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजम की खुली घोषणा पर गौर करते हैं कि देवी नामागिरी उनके पूरे कार्य की प्रेरणा हैं। उन्होंने कहा कि उनके गणितीय समाधान सीधे उन्हीं से आते हैं। गणितज्ञ और देवी के बीच जुड़ाव पर अक्सर उनके प्रशंसक ध्यान नहीं देते हैं, क्योंकि उनके विचार में गणितीय प्रतिभा को देखते हुए यह विलक्षण है। वे उनकी गणितीय प्रतिभा को खारिज नहीं कर सकते, इसलिए वे उनका खंडन नहीं कर सकते।

मेरे संदर्भ देवता गणेश कई सदियों से खबरों में रहे हैं। वेद व्यास ने महाभारत लिखा। महाभारत के लेखन में उनकी स्टेनों की भूमिका थी। इसके साथ ही लोकमान्य तिलक के दौर में और हाल में नरेंद्र मोदी ने उनका उल्लेख किया। गणेश कुछ और नहीं बल्कि मैत्री रूप में, एक चेहरे के तौर पर, उस हर वस्तु के लिए हैं, जिनको मैं भारतीय कह सकता हूं। जिसे उन लोगों ने बनाया हो जो ‘हिंद’ कहे जाने वाले क्षेत्र में रहते हैं। जिसे अब भारत के नाम से जाना जाता है। ‘हिंद’ का मतलब स्पष्ट तौर पर समझा गया है, जैसे भारत के बाहर की दुनिया, जिसे समान पंख वाली चिड़ियाओं के तौर पर ‘हिंद’, हिंदू, भारतीय के तौर पर देखा जाता है। यह सिर्फ पश्चिम के ईसाई और उनके मानव विज्ञानी हैं, जो ‘हिंदू’ को ‘हिंदू धर्म’ में बदलने के लिए जिम्मेदार हैं, जिन्होंने अपने ईसाई संस्करण की तुलना में इसे एक धर्म का चरित्र दे दिया। इसका मतलब हिंदू पर एक पहचान, एक आस्था और एक वाद लादने से है। एक धर्म के तौर पर व्याख्या करने और समझने की खोज में विशेषकर ईसाई और इस्लाम धर्म की तुलना में हिंदू होने के भौगोलिक और व्यावहारिक पहलुओं को नजरंदाज कर दिया गया।

दिल्ली में जामा मस्जिद के इमाम बुखारी के हज पर जाने के दौरान मिलने, और उनके अनुभव से संबंधित एक कहानी है। उन्होंने बताया कि कैसे मक्का के गेट पर उन्हें हिंदू मुस्लिम के तौर पर दर्ज किया गया। उन्होंने विरोध नहीं किया, क्योंकि न तो सऊदी अधिकारी, न ही बुखारी ने इस विवरण को एक भौगोलिक संकेतक से ज्यादा कुछ नहीं समझा। हाल में गोवा की भाजपा सरकार में एक ईसाई मंत्री ने खुद का एक ‘हिंदू ईसाई’ के तौर पर उल्लेख किया।

50 साल पहले मेरे स्कूल फॉर्म में जब मेरी पहचान पूछी गई तो उसमें ‘रोमन कैथोलिक’ उल्लेख किया गया। कुछ दशक बाद मेरे बच्चों ने इस प्रविष्टि को ‘भारतीय ईसाई’ में तब्दील कर दिया। यदि भारतीय और हिंदू एक-दूसरे का रूप हैं तो इसे ध्यान में रखते हुए जैसा मैंने ऊपर कहा, तो हम प्रवेश प्रपत्रों में जो लिख रहे हैं हकीकत में हम ‘हिंदू ईसाई’ हैं।

वास्तव में यदि हम हिंदू और उनके कार्यों के लिए ‘धर्म’ का उल्लेख करना बंद करते हैं, तो हम उस तर्कसंगत, तार्किक, भौतिकवादी, व्यावहारिक, नैतिक परंपरा से बच जाते हैं, जहां बुनकर से लेकर संत तक हर कोई इस उप महाद्वीप में रहता है। किसी न किसी रूप में योगदान करता है। ये परंपरा या तो कभी कभार आध्यात्मिक होती है, या अक्सर नास्तिक होती है। इसी वजह से हमारे द्वारा उल्लिखित भारत की बौद्धिक परंपराएं किसी समूह के लोगों के लिए उपयुक्त या अनुपयुक्त नहीं हो सकती हैं, जो उनके खास मालिक या संरक्षक होने का दावा कर सकें। इस बातचीत में मैं इसका कुछ विस्तार में विविध बौद्धिक परंपरा के रूप में उल्लेख करना पसंद करूंगा। वास्तव में आधुनिक बौद्धिकता के सिद्धांत के बजाय भगवान गणेश के परिप्रेक्ष्य पर बात हो।

गणेश ही क्यों? महज इसलिए, क्योंकि मैं गोवा से हूं, जहां गणेश देवता का प्रचलन ज्यादा है। गणेश उत्सव के दौरान उनके सम्मान में सभी कुछ बंद हो जाता है। जिसमें मछली खाना बंद करना भी शामिल है। इस छोटे से राज्य में मछली खाना बंद करना सबसे बड़ा त्याग है। गोवा के सबसे बड़े मेहमान के आगमन और विदाई के उत्सव को मनाने के लिए आर्थिक से लेकर स्कूल तक आधुनिक दौर के सभी संस्थानों की दैनिक गतिविधियां बंद हो जाती हैं। शराब, मांस या मछली की न तो इच्छा की जाती है, न ही परोसा जाता है। इस मामले में सख्त अनुशासन का पालन किया जाता है। ऐसा लगता है कि लोगों की अपनी प्राथमिकताएं होती है।

पांच या सात दिन के लिए और कभी कभार 11 दिन के लिए हम अपने ईसाई घरों में कोई भोजन नहीं पकाते हैं। यह सभी पड़ोसियों के यहां से आता है। बीते कुछ दशकों से मेरे वैश्विक नजरिए ने ‘गणेश’ शब्द में चीजों (विज्ञान सहित) को देखने को स्वीकार कर लिया है।

बीते साल यदि आपको याद है तो प्रधानमंत्री ने एक रैली में माना था, ‘हम भगवान गणेश की पूजा करते हैं। उस दौर में जरूर कोई प्लास्टिक सर्जन होगा, जिन्होंने मानव शरीर में हाथी को सिर को जोड़ दिया होगा, जरूर तभी से प्लास्टिक सर्जरी की शुरुआत हो गई।’ किसी और के लिए इसे उच्छृंखल, उन्मादी और खारिज करने लायक प्रतिक्रिया माना जाता। हकीकत में यह सनसनी के तौर पर सामने आई थी।

नरेंद्र मोदी के कट्टर समर्थकों ने इस विचार की खासी सराहना की। वाह पीएम क्या बात कह रहे हैं! यह काफी आगे तक जाएगी! हैरत की बात है कि इस पर कोई सफाई नहीं दी गई। न तो आरएसएस या बजरंग दल की तरफ से। यह मेरे जैसे गणेश भक्त को खासा निराश और परेशान करने वाला था!

अब गुबार खत्म हो चुका है और गुस्सा ठंडा हो चुका है, हम निराशा के साथ इस पर विचार कर सकते हैं कि ऐसे बयान क्यों दिए जाते हैं जो विवाद का विषय बनते हैं और किस श्रेणी के लोग ऐसा करते हैं। मैं बेबाकी से अपनी बात रखूं तो यदि गणेश का विज्ञान में उल्लेख किया जाता है तो बुद्धिजीवी अपना मुंह क्यों बिगाड़ते हैं? क्या ऐसा माना जाता है या क्या कहीं पर किसी का उल्लेख करने पर वह दूसरी जगह से बाहर हो जाती है? क्या इस उपमहाद्वीप की सभी परंपराएं दुनिया के बारे में वैज्ञानिक विचार सामने रखती हैं?

आज हर कोई चाहे वह शिक्षित हो या नहीं, जानता है कि आप किसी मानव शरीर पर हाथी के सिर को नहीं रख सकते। हालांकि जलपरियों, ग्रीक देव जैसे इस तरह के हाइब्रिड्स कई सांस्कृतिक परंपराओं में पाए जाते हैं। उदाहरण के लिए-लोग उसी की कल्पना करते हैं जो उन्हें पश्चिमी शिक्षा में बताया जाता है। हालांकि इस तरह के सभी मामलों को पौराणिक माना जाता है। विज्ञान, तर्क या वस्तुनिष्ठता के साथ इसे वास्तविक दुनिया से नहीं जोड़ा जाता। इसलिए मुझे लगता है कि नरेंद्र मोदी के लिए ऐसा कहना मुश्किल है, जो एक चतुर व्यक्ति हैं। संभवतः वह जानते थे कि गणेश और प्लास्टिक सर्जरी के बारे में टिप्पणी करते समय वह क्या कह रहे हैं।

जाहिर तौर पर पीएम प्लास्टिक सर्जरी में भारत के कौशल और इसके मूल लिखित इतिहास व भारतीय उपमहाद्वीप में इसके लंबे समय से हो रहे इस्तेमाल की ओर संकेत कर रहे थे। हालांकि मुझे इस बात पर संदेह है कि क्या वह वास्तव में जानते थे कि वह जो कह रहे हैं और इसके स्रोत पर भरोसा किया जा सकता है। अगर आप देखते हैं कि हमें स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों में क्या पढ़ाया गया, तो आप भारत के बारे में अधिकांश चीजों, उसके इतिहास, उसके तकनीक कौशल, उसके गणित के इतिहास, विज्ञान या तकनीक के बारे में नहीं जान पाएंगे। इनका उल्लेख, चर्चा और पढ़ाई कम ही होती है। इसकी वजह यह है कि हमारे शैक्षणिक संस्थानों और किताबों पर थॉमस बाबिंगटन मैकाले का भूत अभी तक हावी है, वे आज भी उसी पर निर्भर हैं।

मैकाले की धारणाओं को आज भी चुनौती नहीं दी जाती है। ऐसे मामलों में वह सामान्य गाइड है। इसलिए मुझे इस बात पर हैरत नहीं होती है कि भारत में सदियों पहले प्लास्टिक सर्जरी का कौशल होने की बात पर देश और विदेश के सभी शिक्षित भारतीयों ने मजाक बनाया होगा। जब भी ऐसा विषय उठता है तो मजाक का विषय बनता है।

भारत के बारे में अन्य बातों की तरह यह भी ‘ब्रेकिंग न्यूज’ की तरह सामने आएगी कि भारत के तौर पर हम इसके बारे में कम ही जानते हैं कि प्लास्टिक सर्जरी का विचार मूल रूप से भारत से आया था। भारत से यह पूरी दुनिया में फैल गया। संदेह करने वालों और अशिक्षित लोगों के लिए एक मामूली सा सरल इतिहास इसके बारे में उपयोगी होगा।

प्लास्टिक सर्जरी की कला भारत में प्रचलित अजीब परंपराओं की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप सामने आई। जैसे अपराध के लिए नाक को काट देना या युद्ध में हार के बाद अपमानित करना। (अक्सर किसी के साथ या किसी अन्य शख्स की पत्नी के साथ अंतरंग पकड़े जाने पर।) वहीं बदसूरत होने (और शर्मिंदगी होने पर) अक्सर सर्जन के पास जाते हैं, जो नाक के पुनर्निर्माण (नासिकासंधाना, नोज शेपिंग या आधुनिक दौर में राइनोप्लास्टी) के व्यवसाय से जुड़ा होता है।

पहले ये राइनोप्लास्टीज (और अन्य कॉस्मेटिक सर्जरीज) 1600 बीसी में भारत में हुआ करती थीं। इस ऑपरेशन की व्याख्या जाने-माने भारतीय सर्जन सुश्रुत द्वारा 600 बीसी में लिखी गईं सुश्रुत संहिता में की गई है, जिसमें गाल से लोग को हटाने का तरीका और नाक के पुनर्निर्माण के बारे में बताया गया था। बाद में माथे से लोलक को हटाने का एक बेहतर तरीका इस्तेमाल किया गया। यहां सुश्रुत संहिता से नासिकासंधाना प्रक्रिया की विस्तृत व्याख्या दी गई हैः‘कवर किए जाने वाले नाक के हिस्से को एक पत्ती से मापा जाता है। फिर उस आकार के त्वचा के एक टुकड़े की जरूरत होती है, जो चीक से निकाली जाती है। इससे नाक को कवर किया जाता है। चीक को जोड़ने के लिए छोटे पेडिकल रखे जाते हैं। नाक के जिस हिस्से को त्वचा से जोड़ना है उसे चाकू से नासल स्टंप काटकर रॉ का रूप देना चाहिए। तब फिजीशियन को त्वचा नाक पर रखनी चाहिए और इरांडा (कैस्टर ऑयल प्लांट) लगाकर दोनों हिस्सों को टांके लगाने चाहिए, जिससे नाक को सही आकार मिलता है। इससे त्वचा सही से सामंजस्य बिठाती है। इस पर मुलेठी, लाल चंदन की लकड़ी, दारुहल्दी का पाउडर छिड़का जाना चाहिए। अंत में इसे रुई से ढका जाना चाहिए और लगातार सीसेम तेल से साफ करना चाहिए। जब त्वचा जुड़ जाए और इस पर दाने पड़ने लगें, ऐसे में यदि नाक काफी छोटी या काफी बड़ी हो तो फ्लैप को बीच से दो भागों में बांट देना चाहिए और इसे बड़ा या छोटा करने के प्रयास करने चाहिए।’ एक अन्य भारतीय सर्जन वागभट की पुस्तक अष्टांग हृदयांश में भी इसकी विस्तृत प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है, जिसे चौथी सदी एडी में लिखा गया था।

एस सी अलमस्त के मुताबिक, ‘भारत से राइनोप्लास्टिक ऑपरेशन का रहस्य अरब और पर्सिया के माध्यम से इजिप्ट तक पहुंचा और वहां से यह इटली तक पहुंचा। 15वीं सदी में सिसिली में प्रांका ने नाक के पुनर्निर्माण में भारतीय विधि चीक फ्लैप्स का इस्तेमाल किया। उसके बेटे एंटानियो ने 16वीं सदी के आखिर में बाहों से फ्लैप्स की कोशिश की, जिसके बाद तागलिया कोजी ने आर्म फ्लैप राइनोप्लास्टी की इटली के तरीके से संबंधित अपने कार्य का प्रकाशन किया।’

इटली द्वारा भारतीयों से इसे अपनाने के लगभग 2 सदी के बाद 19वीं सदी में इसे जर्मनी, फ्रांस और अंग्रेज सर्जनों ने पहली बार इस पूरी विधि का अध्ययन किया। उन्होंने संस्कृत साहित्य के अनुवाद और भारत में यात्रा के बाद अपनी टिप्पणियों के माध्यम से ऐसा किया।

1794  में एक अंग्रेज डॉ. एच स्कॉट ने भारत से एक रिपोर्ट ‘उनकी नाक तैयार करो, जो खो चुके हैं’ तैयार की और उसे ‘पशुओं के हिस्से जोड़ने’ में इस्तेमाल होने वाले सीमेंट ‘कॉट’ की कुछ मात्रा लंदन भेजी।

“पुणे के निकट एक स्थान कुमार में ईस्ट इंडिया कंपनी के दो चिकित्सा अधिकारियों जेम्स फिंडले और थॉमस क्रूसो एक महारत्ता सर्जन को देखा, जो सिर पर फ्लैप की राइनोप्लास्टी कर रहा था। इस घटना के बारे में 1793 के मद्रास गैजेट में ‘सिंगुलर ऑपरेशन’ के रूप में दर्ज किया गया। मरीज 1792 के युद्ध में ब्रिटिश सेना में महारत्ता का बैलगाड़ी चलाने वाला यानी कॉउसाजी था। उसे टीपू सुल्तान द्वारा कैदी के रूप में ले जाया गया था और उसकी नाक व एक हाथ काट दिया गया था। वह वापस लौटा और ईस्ट इंडिया कंपनी की बॉम्बे सेना से फिर से जुड़ गया। एक साल बाद पूना के निकट कुमार में उसकी नाक का पुनर्निर्माण किया गया। इस मामले का उल्लेख 1794 में लंदन की जेंटलमैन्स मैगजीन में भारत से आए एक पत्र में भी किया गया था।”

‘सिंगुलर ऑपरेशन’ के कारण यह तकनीक बाद में यूरोपीय देशों और संयुक्त राज्य अमेरिका तक फैल गई। इंग्लैंड में सिर के फ्लैप की पहली सफल राइनोप्लास्टी का प्रकाशन 1814  में किया गया, जो कॉउसाजी मामले के 20 साल बाद की घटना है। कारपस की किताब ‘एन अकाउंट ऑफ टू सक्सेसफुल ऑपरेशंस फॉर रिस्टोरिंग ए लॉस्ट नोज फ्रॉम इंटेजमेंट ऑफ द फोरहेड’ का प्रकाशन वर्ष 1816 में हुआ और इससे इस विषय के प्रति दिलचस्पी जगाने में मदद मिली।

जर्मनी में कार्ल फेर्डिनैंड वॉन ग्रेफ  ने पहली बार 1816 में पूर्ण पुनर्निर्माण किया। दो साल बाद प्रकाशित हुए इसके विवरण में इसे ‘प्लास्टिक सर्जरी’ नाम दिया गया। अमेरिका के जॉनाथन मैसन वारेन 1834 में भारतीय पद्धति से राइनोप्लास्टी की। ठीक उसी साल लॉर्ड मैकाले ने भारत की हर चीज को खारिज कते हुए मानव के लिए व्यर्थ करार दे दिया। कैप्टन स्मिथ ने 1897 में ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में सर्जिकल केसेस-राइनोप्लास्टी पर नोट्स का प्रकाशन किया था। सुधार के सुझाव दिए थे। कीगन (1900) में राइनोप्लास्टिक ऑपरेशंस की समीक्षा में भारतीय पद्धति में हाल में हुए सुधारों के बारे में बताया गया था।

वास्तव में मैंने वर्ष 1976 में भारत में प्लास्टिक सर्जरी के बारे में लिखा, जब मैंने एक यूरोपीय विश्वविद्यालय में पीएचडी के लिए शोध जमा किया। मेरे स्रोतों में स्वर्गीय भारतीय इतिहासकार धर्मपाल थे।  जिनकी 18वीं सदी में भारत में विज्ञान और तकनीक पर एक पुस्तक का प्रकाशन हुआ। इसके बाद मैं धर्मपाल के व्यक्तिगत तौर पर संपर्क में आया। वास्तव में अदर इंडिया प्रेस जहां मैं अभी भी संपादकीय कार्य करता हूं, ने पूरे भरोसे के साथ धर्मपाल की संग्रहित लेखनी को 5 संस्करणों में प्रकाशित किया। (पब्लिकेशन डिवीजन, एमआईबी, भारत सरकार ने हाल में एक संस्करण इसेंशियल राइटिंग्स ऑफ धर्मपाल प्रकाशन किया था, जिसे बिक्री केंद्रः सूचना भवन, सीजीओ कॉम्पलेक्स, लोधी रोड, नई दिल्ली-110003 आईएसबीएन 978-81-230-2040-2, पीबीः रु 135, एचबीः रु 165, में रखा गया)

यह याद करना अहम है कि भारत की सांस्कृतिक परंपराओं में ऐसा कम ही है, जिससे सर्जरी का विकास बाधित हुआ हो। सदियों से पश्चिमी देशों में शरीर की पवित्रता का विचार प्रचलन में रहा है, जो मृत से पुनर्जीवन के लिए शरीर को अक्षुण्ण रखने की जरूरत से संबंधित है। जिसने सर्जिकल कौशल के विकास को बाधित किया। इस प्रकार सर्जरी पर पहली बार किसी बड़े विवरण (सुश्रुत संहिता) को सामने रखने का श्रेय निर्विवाद रूप से भारतीय को जाता है। अब कहें कि यह विचार कहां से आया ? मार्क्सवादी, वामपंथी, दक्षिणपंथी, उदारवादी, हिंदुत्व, हिंदू या मुस्लिम। सुश्रुत ने अपनी किताब में कई सर्जिकल खोजों का उल्लेख किया है, जिसमें नाक का पुनर्निर्माण शामिल है। जहां तक अंतिम तकनीक की बात है तो यूरोपीय लोगों ने राइनोप्लास्टिक प्रक्रिया को सूचित करने के सिद्धांत को आगे बढ़ाया, जो सजा के तौर पर काटी जाने वाली नाक से ही संबंधित नहीं था बल्कि वे शरीर के दूसरे हिस्सों में इस तकनीक का इस्तेमाल करते थे।

आज राइनोप्लास्टी का ईरान जैसे देशों में कॉस्मेटिक उद्देश्यों से व्यापक तौर पर हो रहा है।  जबकि भारत में नाक काटने की परंपरा लंबे समय से बंद हो चुकी है। इसलिए राइनोप्लास्टी भारतीयों में बोलचाल में चलन में नहीं है।  इसके बावजूद प्लास्टिक सर्जन ज्यादा चलन में है। यहां भी सामान्य तौर पर पश्चिम की चिकित्सा संबंधी किताबों से पढ़ाई का चलन है, जिनका चिकित्सा शिक्षा में वर्चस्व है। इस प्रकार इस देश के लोगों को शिक्षित करने के विचार को लागू करने के लिए तकनीक मूल रूप से पश्चिम की है। (और इस प्रकार नरेंद्र मोदी फिजूल की बात कर रहे थे।)

मेरी राय में प्रधानमंत्री ज्यादा चलन वाले शब्द ‘प्लास्टिक सर्जरी’ (भगवान गणेश) का इस्तेमाल करने में सही हों, लेकिन भारत में जीवित टिश्यू के एक टुकड़े को दूसरी जगह लगाने की विधि काफी पहले से चलन में थी। इस प्रकार जब उन्होंने ऐसा कहा तो मुझे कुछ गलत नहीं लगा। आप एक बार जब विचार को स्वीकार करते हैं कि भारत ऐसा पहला देश था कि जिसने सबसे पहले प्लास्टिक सर्जरी की क्षमता हासिल की और इसके बारे में दुनिया को पढ़ाया, तो मुझे इसमें संदेह है कि मोदी के धुर विरोधी मणिशंकर अय्यर को भी इस बात से समस्या हुई होगी, जो मोदी ने कहा। न तो इन श्रोताओं में से किसी को होगी।

वास्तव में मैंने मार्च 2015 में विशाखापट्टनम में आंध्र विश्वविद्यालय में शिक्षाविदों और विद्वानों के एक सम्मेलन में प्लास्टिक सर्जरी के इतिहास पर अपने विचार रखे। मैंने उनसे पूछा कि आपमें से कितने निर्विवाद तथ्यों के बारे में जानते हैं। हॉल में मौजूद 200 से ज्यादा लोगों में से महज 4 लोगों ने अपने हाथ उठाए।

तब मैंने उनके भारत में बौद्धिक परंपराओं और वैज्ञानिक जानकारियों के बीच करीबी संबंधों पर बात की।  जिससे संकेत मिले कि प्लास्टिक सर्जरी कराने की क्षमता कोई अपवाद नहीं थी, लेकिन हर चीज से जुड़ी क्षमताओं में से महज एक उदाहरण है। उदाहरण के लिए, हजारों शिक्षित भारतीयों ने दिल्ली की कुतुब मीनार में अशोक स्तंभ को देखा है। इस तथ्य पर हैरत होती है कि बिना जंक (क्षरण) लगे यह सदियों से कैसे खड़ा हुआ है। जबकि अधिकांश लोग मानते हैं कि आयरन और स्टील की मूल रूप से उत्पत्ति आधुनिक यूरोप में हुई थी। स्वर्गीय धर्मपाल ने भारतीय स्टील या वुट्ज के विनिर्माण के बारे में काफी अहम जानकारियां संग्रहित की थीं।  जिसे पहले वुट्ज नाम से ही जाना जाता था। भारतीय स्टील को दमास्कस (क्योंकि इसे प्रसिद्ध दमास्कस तलवार बनाने में इस्तेमाल किया जाता था) स्टील के नाम से जाना जाता है।  सदियों से दुनिया की सबसे अच्छी स्टील माना जाता रहा और इसकी गुणवत्ता पहले स्टील निर्माता शेफील्ड की स्टील से भी बेहतर थी।

अतिरिक्त शोध के साथ वुट्ज स्टील से जुड़ी सभी जानकारियां नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडी (एनआईएएस), बेंगलुरू के शारदा श्रीनिवासन और एस रंगनाथन द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘इंडियाज लीजेंडरी वुट्जः एन एडवांस्ड मैटेरियल ऑफ द एनसेंट वर्ल्ड’ से हासिल की जा सकती हैं। धर्मपाल और एनआईएएस की स्टडी को पढ़ने के बाद कोई भी स्टील को बनाने की उत्कृष्ट प्रक्रिया के बारे में समझ सकता है।  भारत में विकास की प्रक्रिया को समझे बिना इसका स्थान दूसरी प्रक्रिया ले चुकी हैं। जहां भारतीय प्रक्रिया छोटे स्तर पर थीं, कोई प्रदूषण नहीं होता था, जबकि आधुनिक आयरन और स्टील उद्योग और उसकी प्रक्रियाएं पर्यावरण, जलवायु और सार्वजनिक स्वास्थ्य के लए गंभीर चुनौती बन गईं। जैसे हम गोवा में रहते हैं तो हम आयरन ओर के खनन से प्राकृतिक पर्यावरण को हुए नुकसान को समझते हैं।

प्लास्टिक सर्जरी और वुट्ज का इतिहास और उनका दूसरे देशों में प्रसार या इस्तेमाल को मानव गतिविधि के कई दूसरे क्षेत्रों में देखा जा सकता है, जिसमें गणित से लेकर टेक्सटाइल्स विनिर्माड़ की पूरी प्रक्रिया, आइस, दवाओं और छोटा चेचक प्रतिरोधी, कृषि, जैव विविधता आदि शामिल हैं। इन सभी को समाज के संदर्भ में देखा जाना चाहिए, जो अधिकांश मामलों में क्षमता से संबंधित था। अंग्रेजों (मुगल नहीं) की जीत के बाद के हालात में समस्याओं के तकनीक समाधान की प्रक्रिया बाधित हो गई। ऐसा कुछ भी नहीं होता, यदि हम प्राकृतिक दुनिया के कामकाज से जुड़ी गैर वास्तविक और काम के लिहाज से बेकार धारणाओं पर भरोसा करते होते। यह दोहराना उचित ही है कि ये सभी विकास उन धारणाओं पर भरोसा किए बिना संभव हुआ था, जो कथित तौर पर पश्चिमी विज्ञान के साथ ही फ्रांसिस बैकन के नुस्खों से संबंधित थीं। जिनमें बेबाकी से प्रकृति के रहस्यों के दोहन के क्रम में उसके शोषण की जरूरत पर जोर दिया गया था। यह ऐसी बात है, जिससे आज हम लोग नफरत करते हैं। यह कभी हमारा रास्ता नहीं रहा।

प्रो. सी के राजू दुनिया के प्रसिद्ध गणितज्ञ रहे हैं। उन्हें आइंस्टीन की फंक्शनल डिफिरेंशियल इक्वेशंस से संबंधित त्रुटियों को दूर करने के लिए 2010 में हंगरी में टेलेसियो गैलेली पुरस्कार भी मिला था। उन्होंने दिखाया कि 4 बुनियादी एल्गोरिदम-जोड़, घटाना, गुणा और भाग देना, समझा जाता है कि इनकी शुरुआत 16वीं सदी में यूरोप में हुई थी। भारतीयों के लिए 10 सदी पहले गणित के रूप में सामान्य थी। प्रो. राजू ने संकेत दिए कि शब्द ‘एल्गोरिदम’ एआई ख्वारिज्मी नाम से लिया गया है।  जिसे भारत में बुनियादी गणितीय ज्ञान से ‘हिजाब ए हिंद’ के नाम वाले संस्करण से अरबी में अनुवाद किया गया।  जहां से इसे लैटिन और ग्रीक में अनुवाद किया गया।

जो लोग दावा करना चाहते हैं कि हिंदू धर्म ने दुनिया को शून्य उपहार में दिया। उनके लिए बताना जरूरी है कि शून्य या शून्यता का विचार बौद्ध धर्म से आया था। इसलिए, भले ही यह हिंदू परंपरा से आया लेकिन इसमें धर्म को कोई श्रेय नहीं है। क्योंकि बौद्ध भी लोकायत और जैनियों की तरह भगवान में विश्वास नहीं करते। मैंने प्रो. राजू से यह भी जाना कि यूरोपीय पूरी तरह इसको लेकर असमंजस में हैं कि उनकी जिंदगी में शून्य सबसे पहले कहां से आया? यह क्या तत्व है? जो एक संख्या से कैसे जुड़ा? कैसे उसने मूल्य कई गुना बढ़ा दिया? इस प्रकार चेक पर अंकों और शब्दों में लिखने की परंपरा की खोज पश्चिमी बैंकिंग से मिली, लेकिन इसका डिजाइन कैसे किया गया? यह हिंदुओं के लिए सिरदर्दी की वजह बना।

इस प्रकार कैलकुलस के साथ हुआ। प्लास्टिक सर्जरी की तरह बाद में समाज के इतिहास में विकास की क्रोनोलॉजी के बिना 16वीं सदी में यूरोप में अचानक कैलकुलस सामने आया।  जिसे न्यूटन की क्रांति बताया गया। लेकिन जैसा प्रो. राजू ने एक बार फिर दिखाया कि यह पहले ही 5वीं से 15वीं सदी के बीच भारत में पूर्ण रूप ले चुका था।  ऐसा आर्यभट्ट (जो वास्तव में ब्राह्मण नहीं थे) और उनके दो अनुयायियों की क्षमता के माध्यम से संभव हुआ। इस प्रकार प्रयोगात्मक उद्देश्यों से कैलकुलस के माध्यम से त्रिकोणमिति के महत्व को बताया गया। इससे कृषि और जल परिवहन की जरूरतों के अनुसार मानसून का सटीक अनुमान लगाना संभव हुआ। भारत से पश्चिम के लिए कैलकुलस का प्रसार हुआ। जिसके बारे में केरल स्कूल ऑफ मैथमेटिक्स ने बताया। जिसने आर्यभट्ट जैसे गैर ब्राह्मण के कार्य को आगे ले जाने में कोई परेशानी नहीं हुई।

 

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