निरंकुशता पर लोकतंत्र का मुखौटा

कुलदीप नैयर

संजय उत्तर भारत के लोगों को पसंद किया करते थे, विशेष रूप से पंजाबियों को। उन्हें लगता था कि वे उनके लिए करने या मरने के लिए तैयार रहेंगे या फिर कम-से-कम दूसरों को मरने देंगे। जैसे-जैसे दिन बीते, कश्मीरी ग्रुप की जगह पंजाबी ग्रुप ने ले ली।

श्रीमती इंदिरा गांधी को अपने बेटे और उसके लोगों पर पूरा भरोसा था। वे उन्हें कुछ ज्यादा ही फैसले लेने का मौका देती थीं और ऐसा केवल बड़े मामलों में ही नहीं होता था। यहां तक कि अफसरों की नियुक्ति और तबादले, स्वामिभक्तों को प्रमोशन, और जो नहीं थे उन्हें सजा, यह सब संजय ही तय किया करते थे। कभी-कभी किसी महत्त्वपूर्ण पद पर तैनाती से पहले वे उस अफसर का इंटरव्यू लिया करते थे। उनके अंदर उन लोगों को लेकर एक अविश्वास था, जो लंबे समय से उनकी मां की सेवा करते आ रहे थे, खास तौर पर दक्षिण और पूर्व कश्मीर के लोगों को लेकर। संजय उत्तर भारत के लोगों को पसंद किया करते थे, विशेष रूप से पंजाबियों को। उन्हें लगता था कि वे उनके लिए करने या मरने के लिए तैयार रहेंगे या फिर कम-से-कम दूसरों को मरने देंगे। जैसे-जैसे दिन बीते, वह कश्मीरी ग्रुप, जो उनकी मां के समय प्रभावशाली था, की जगह एक पंजाबी ग्रुप ने ले ली।

लेकिन, वह अब एक ग्रुप भर नहीं रह गया था। वह माफिया बन चुका था। उनकी योजना को उनके भरोसेमंद लोग अमल में ला रहे थे और अब वे आपरेशन इमरजेंसी के अन्य हिस्सों को लागू करना चाहते थे। राष्ट्रपति के दस्तखत से जारी विधिवत आदेश द्वारा पेचों को कसा जा रहा था। भारतीय तथा विदेशी नागरिकों द्वारा अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए अपील के अधिकार को निरस्त कर दिया गया। एक और आदेश के अंतर्गत मीसा को और सख्त कर दिया गया था। अब उसके तहत पकड़े गए व्यक्ति को या कोर्ट को उसकी गिरफ्तारी का कारण बताए बिना ही जेल में रखा जा सकता था। अपील की कोई गुंजाइश ही नहीं थी।

श्रीमती गांधी ने दावा किया कि वे संविधान के दायरे में काम कर रही हैं और अपने कदमों को सही ठहराने के लिए लोकतंत्र की रक्षा की दलील दी। हालांकि, शासन कितना ही निरंकुश क्यों न हो, लोकतंत्र का मुखौटा लगाए रहना जरूरी था। जैसा कि जॉर्ज आॅरवेल ने कहा था, ‘यह बात आम तौर पर महसूस की जाती है कि जब हम किसी देश को लोकतांत्रिक कहते हैं, तब हम उसकी प्रशंसा करते हैं। इसी प्रकार सभी प्रकार के शासन वाले तानाशाह दावा करते हैं कि वे एक लोकतंत्र हैं।’ प्रेस सेंसरशिप लागू करने, मौलिक अधिकारों को निरस्त करने और सैकड़ों लोगों को बिना मुकदमा चलाए बंदी बना लेने के बाद श्रीमती गांधी कह सकती थीं कि भारत केवल आॅरवेल की ‘न्यूजस्पीक’ के शब्दों में एक लोकतंत्र था, जिसमें युद्ध के मंत्रालय को शांति का मंत्रालय कहा जाता है। अंतरराष्ट्रीय प्रेस इंस्टीट्यूट ने श्रीमती गांधी से सेंसरशिप हटा लेने की अपील की, जो दुनिया की नजर में सिर्फ भारत की छवि को कलंकित कर सकता था।

सोशलिस्ट इंटरनेशनल ने 15 जुलाई को एक प्रतिनिधिमंडल भेजने का निर्णय लिया, जिसमें पश्चिमी जर्मनी के पूर्व चांसलर विली ब्रांट तथा आयरिश पोस्ट और टेलीग्राफ मंत्री कॉनर क्रूज ओ ब्रायन शामिल थे। यह प्रतिनिधिमंडल जे. पी. से वहां जाकर मिलने वाला था, जहां उन्हें रखा गया था। लेकिन नई दिल्ली ने इस आधार पर अनुमति देने से इनकार कर दिया कि यह भारत के आंतरिक मामलों में घोर हस्तक्षेप होगा। जवाब में सोशलिस्ट इंटरनेशनल ने कहा, ‘भारत में जो कुछ हो रहा है, उससे सारे समाजवादियों को एक व्यक्तिगत त्रासदी का अनुभव करना चाहिए।’

पश्चिम में आधिकारिक राय यह थी कि भारत ने हमेशा के लिए लोकतंत्र को खो दिया है और यह चाहे कितना ही दु:खद क्यों न हो, उन्हें इस तथ्य को स्वीकार कर लेना चाहिए और श्रीमती गांधी को नाराज नहीं करना चाहिए। अमेरिकी विदेश मंत्री हेनरी किसिंगर ने विदेश मंत्रालय में इस विषय पर चर्चा की और इस नतीजे पर पहुंचे कि अब नई दिल्ली से बात करना ज्यादा आसान होगा। बैठक में उनके एक सहायक ने कहा कि श्रीमती गांधी की नीति व्यावहारिक होगी। किसिंगर ने कहा, ‘तुम्हारा मतलब है, खरीदे जाने योग्य। किसी ने कहा, ‘तानाशाह’।

शायद तब तक भी वे अपने आपको एक तानाशाह के रूप में नहीं देख रही थीं और ऐसा कहे जाने पर अपमानित महसूस करती थीं। और, देश में ऐसे कई लोग थे, जिन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि नेहरू की बेटी तानाशाह बन सकती है। वे जानते थे कि उन्होंने एक असाधारण परिस्थिति से निपटने के लिए असाधारण शक्तियां हासिल कर ली हैं। फिर भी कहते थे कि यह केवल एक अस्थायी दौर होगा। लेकिन कम-से-कम एक शख्स ऐसा था, जिसने साफ तौर पर कहा कि वे किस दिशा में जा रही थीं। वह जानता था कि श्रीमती गांधी लोकतांत्रिक नहीं हैं और ऐसा कहा भी था। और ऐसा कहने की वजह से ही वह जेल में था।

(कुलदीप नैयर की किताब ‘इमरजेंसी की इनसाइड स्टोरी’ से।)

 

 

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