कुछ अफसाना अपना भी

कभी राजाजी के पैरोकार और कभी विरोधी रहे गोयनका मेरे पिता के दोस्त भी थे। दोनों ने भारत के लिए अखबारी कागज प्राप्त करने में उस वक्त एक-दूसरे का सहयोग किया था, जब द्वितीय विश्व युद्ध के चलते इसकी आपूर्ति कम हो गई थी।

26 जून 1975 की सुबह जब मेरी पत्नी उषा और मैं मद्रास सेंट्रल स्टेशन पर पहुंचे (पुणे से अचानक हुई यात्रा के चलते एक अनारक्षित डिब्बे के फर्श पर अखबारों पर सोने के बाद), मैंने लोगों से सुना कि देश में ‘आपातकाल’ घोषित कर दिया गया है। उसके बाद के इक्कीस महीनों में उषा और मैं उन लोगों में से थे, जिन्होंने तमिलनाडु, कर्नाटक, दिल्ली, महाराष्ट्र और गुजरात में आपातकाल का विरोध किया।

हिम्मत’ और वे अद्भुत महिलाएं और पुरुष, जिन्होंने इसे बम्बई में प्रकाशित किया (मुझ जैसे लगातार यात्रा करने वाले मुख्य संपादक के सहयोग से), आपातकाल की कहानी का एक हिस्सा हैं। हमारी पत्रिका से लोगों का उत्साह बढ़ा और विभिन्न विचारधारा के लोगों ने इसकी तलाश की। यहां तक कि कुछ लोगों ने उन जेलों में भी ‘हिम्मत’ पढ़ने का प्रबंध किया, जहां उन्हें कैद किया गया था। हालांकि, नवंबर 1981 तक यानी आपातकाल समाप्त होने के लगभग पांच साल बाद और पहला अंक प्रकाशित होने के लगभग सत्रह साल बाद ‘हिम्मत’ ने अपनी व्यवहार्यता खो दी और इसका प्रकाशन निलंबित कर दिया गया।

आपातकाल के महान नायकों में से एक थे, ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के मालिक रामनाथ गोयनका। मैं उन्हें कुछ समय से जानता था और 1973 में अपनी किताब ‘राजाजी की जीवनी’ के लिए उनका साक्षात्कार लिया था। कभी राजाजी के पैरोकार और कभी विरोधी रहे गोयनका मेरे पिता के दोस्त भी थे। दोनों ने भारत के लिए अखबारी कागज प्राप्त करने में उस वक्त एक-दूसरे का सहयोग किया था, जब द्वितीय विश्व युद्ध के चलते इसकी आपूर्ति कम हो गई थी। अधिक दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने उससे तीन साल पहले भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान एक साथ काम किया था।

जो बात मैं अपने पिता से पहले ही जानता था, उसकी पुष्टि गोयनका ने 1973 में की कि उन्होंने मद्रास में गुप्त रूप से एक किताब छापी थी, जिसे मेरे पिता ने 1942 में ‘इंडिया रैवेज्ड’ नाम से लिखी थी, जिसमें उस वर्ष राज के दमन के विस्तृत उदाहरण थे। इंडिया रैवेज्ड, इंडिया अनरिकनसाइल्ड का अधिक स्पष्ट संस्करण थी, जिसे मेरे पिता ने 1942 में खुले तौर पर प्रकाशित की थी।

आपातकाल के दौरान जब अधिकांश अखबारों ने भीरुतापूर्वक सेंसरशिप और सरकार के आगे समर्पण कर दिया था, तब इंडियन एक्सप्रेस और गोयनका द्वारा नियंत्रित अन्य अखबारों ने एक दुर्लभ साहस दिखाया, जिसे पूरी दुनिया ने सराहा था। मुझे गर्व था कि ‘हिम्मत’ भी मुखर रहा, जैसा कि कुछ अन्य निडर पत्रिकाओं ने किया, जिनमें अधिकतर छोटी पत्रिकाएं थीं।

(राजमोहन गांधी की पुस्तक ‘1947 के बाद का भारत: कुछ अफसाना अपना भी’ से)

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