भारत में धर्म उसे माना गया जिसे सम्पूर्ण समाज ने समाज के सुचारू चलते रहने के लिए मान्यता दे दी? कितना गहरा फर्क है पश्चिम के धर्म यानी रिलीजन और भारत के धर्म यानी सामाजिक मर्यादा में? इस संदर्भ में आंकेंगे, तो हमें फत्रधर्म, पतिधर्म, पत्नीधर्म, देशधर्म, मनुष्यधर्म, पड़ोसीधर्म और इस तरह के हर धर्म का अर्थ समझ में आने लगेगा। इसी दृष्टि से देखेंगे, तो धर्म मर्यादा और सदाचरण के तमाम मानदण्डों को तोड़ने में मजा लेने वाले महाभारतकाल के उस तनावभरे और मर्यादाहीन समाज में महाराज युधिष्ठिर को धर्मराज कहलाया जाना, सटीक और अर्थपूर्ण नजर आएगा।
एक लाख से भी अधिक श्लोकों वाले प्रबंधकाव्य महाभारत में वेदव्यास केे दिल से एक बार ही ऐसी टिप्पणी निकली है, जो टिप्पणी क्या है, उनके हृदय का विलाप है और वह एकाकी विलाप स्वर्गारोहण पर्व के अध्याय में लिपिबद्ध कर दिया गया है। हम वह श्लोक फिर से लिख देते हैं। ‘ऊध्र्वबाहुर्विरौम्येष न च कश्चित श्रृणोति माम, धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थ न सेव्यते?’ (स्वर्गारोहण पर्व 5.62)। अर्थात ‘मैं अपनी बांहें उठाकर लोगों को समझा रहा हूं कि धर्म से ही अर्थ और काम की भी प्राप्ति होती है, इसलिए क्यों नहीं धर्म के मार्ग पर चलते? पर मेरी कोई सुनता ही नहीं।’ सवाल उठता है कि महाभारत-कालीन समाज अपने आर्थिक वैभव और टेक्नोलाजी की किलता के रथ पर सवार होकर जिस धर्म का नुकसान कर रहा था, वह धर्म है क्या? सवाल पर, बहस इसलिए जरूरी हो गई है, क्योंकि पश्चिम के, मार्क्सवाद के और इस्लाम के प्रभाव के परिणामस्वरूप हमने धर्म की अपनी भारतीय अवधारणा को ही बिसार दिया है।
पश्चिम, मार्क्सवाद और इस्लाम, एक अजीब सा वर्गीकरण है यह। अजीब इसलिए कि इस्लाम भी भारत के पश्चिम से ही भारत में आया, मार्क्सवाद का जन्म भी पश्चिम में हुआ और पश्चिम, यानी यूरोप और अमेरिका इत्यादि तो हमारे लिए पश्चिम हैं ही। इस पूरे पश्चिम में धर्म की अवधारणा ऐसी है जो भारत की धर्म की अवधारणा से कतई मेल नहीं खाती, पर पश्चिम और पश्चिम प्रभावित हमारे देश के पढ़े-लिखे लोगों द्वारा, हम पर इस कदर थोप दी गई है कि हम धर्म शब्द की अपनी अवधारणा को ही भुला बैठे हैं। इसलिए महाभारतकालीन अपने पूर्वजों के समाज में हुए धर्म के अवमूल्यन पर बात करनी है, उस अवमूल्यन का तार्किक आकलन करना है तो धर्म की अपनी परिभाषा को, धर्म के अपने स्वरूप को, यानी धर्म की भारतीय अवधारणा को तो समझना ही होगा।
पश्चिम ने हमें समझा दिया कि धर्म का अर्थ है रिलीजन। ईसाइयत एक रिलीजन है, यानी पश्चिम के हिसाब से एक धर्म है। इस्लाम एक रिलीजन है, यानी पश्चिम के हिसाब से एक धर्म है। अगर धर्म की परिभाषा, उसका स्वरूप निर्धारण इस आधार पर होना है तो यकीनन भारत में कोई रिलीजन है ही नहीं, क्योंकि वैसा कोई धर्म भारत में है ही नहीं।
पश्चिम को इस बात का ही अभ्यास है, और है तो हमें इस पर कोई ऐतराज भला क्यों होना चाहिए, कि धर्म की स्थापना कोई एक ऐसा व्यक्ति करता है, जो ईश्वर का कोई रूप है, कि धर्म एक किसी धर्मग्रन्थ के आधार पर परिभाषित रहता है और उसी के आधार पर पनपता है, फलता-फूलता है, कि उस धर्म को मानने वाले सभी एक ही प्रकार से ईश्वर की आराधना करते हैं। इसके ठीक विपरीत, आम हिन्दुस्तानी धर्म का स्वरूप रामायण, महाभारत, उपनिषद, फराण और भारत की पूरी की पूरी अध्यात्म और ज्ञान की परम्परा के तहत ही जानता और समझता है और उसी को मानता भी है।
यहां एक गैप है और यकीनन बहुत बड़ा गैप है। उस बहुत बड़े और अर्थ का अनर्थ कर देने की सम्भावना से भरपूर गैप का कारण, अगर एक ही धारणा में कहा जाए तो वह यह है कि जहां भारत के बुद्धिजीवी का धर्म-ज्ञान पश्चिम और सिर्फ पश्चिम से प्रभावित है, वहीं आम हिन्दुस्तानी का धर्म-ज्ञान भारत और सिर्फ भारत की परम्परा और विरासत से प्रभावित है।
यह जरूरी नहीं कि विश्व के किसी एक भूभाग में वहां की परम्परा और विरासत के आधार पर जिस तरह की मानसिकता बनी हो, सिर्फ उस तरह की मानसिकता विश्व के दूसरे भूभागों में भी बनी हो। इसलिए किसी एक शब्द के खास अर्थ को विश्व के सभी भूभागों पर समान रूप से लागू करने का आग्रह जितना मनुष्य-विरोधी और बेमानी है, उतना ही बेमानी यह भी है कि किसी एक ही खास शब्द के समानार्थक पर्यायवाची को विश्व के दूसरे भूभागों में भी ढूंढने या होने का आग्रह किया जाए। इसलिए यह आग्रह बेमानी है कि पश्चिम को अपनी परम्परा और विश्वास की वजह से समझ में आने वाले रिलीजन या मजहब शब्द का समानार्थक पर्यायवाची भारत में भी होने या ढूंढने का आग्रह पाला ही जाए।
अगर हमारी जिज्ञासा वास्तव में ईमानदार और वास्तव में गम्भीर है कि हम भारत के सन्दर्भों में रिलीजन या मजहब शब्द का पर्यावाची ढूंढें, तो इसका निकटतम कोई शब्द अगर है तो वह शब्द है, ‘सम्प्रदाय’। जिन्हें अब हम पश्चिम के असर की वजह से बौद्ध धर्म, जैन धर्म, शैव धर्म, वैष्णव धर्म, शाक्त धर्म, सिख धर्म, वगैरह कहने के अभ्यस्त होते जा रहे हैं और यह राजनीतिक घोषणा करते फूले नहीं समाते कि भारत अनेक धर्मों का देश है, वे सभी भारत की ज्ञान, अध्यात्म और पौराणिक परंपरा के हिसाब से बौद्ध सम्प्रदाय, जैन सम्प्रदाय, शैव सम्प्रदाय, वैष्णव सम्प्रदाय, शाक्त सम्प्रदाय, सिख सम्प्रदाय, उसी प्रकार हैं जिस प्रकार हमारा परिचय वेदान्त सम्प्रदाय, मीमांसा सम्प्रदाय, रामानुज सम्प्रदाय, निम्बार्क सम्प्रदाय, सांख्य सम्प्रदाय, वैशेषिक सम्प्रदाय आदि से है। इसलिए भारत के सन्दर्भ में, उसके आध्यात्मिक व्यक्तित्व की सही परिभाषा के सन्दर्भ में, यही वक्तव्य देना उचित है कि भारत विभिन्न सम्प्रदायों का देश है, बजाए यह कहने के कि भारत विभिन्न धर्मों का देश है।
पर यहां भी एक समस्या पैदा कर दी गई है। किसी भी राष्ट्र जीवन में राजनीति कितनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है, बल्कि उसकी भूमिका कितनी अधिक निर्णायक होती है, यह इसी से जाहिर है कि पश्चिम प्रेरित बुद्धिजीवियों द्वारा स्वीकार कर ली गई, धर्म की गलत परिभाषा, भारत की राजनीति के हाथों अपनाई जाकर भारत के व्यक्तित्व की अवधारणा से कैसे खिलवाड़ कर चुकी है। ठीक वैसे ही भारत की राजनीतिक स्वीकृति के परिणामस्वरूप ‘सम्प्रदाय’ शब्द भी, जो भारत की ज्ञान परम्परा, आध्यात्मिक परम्परा और पौराणिक परम्परा में बहुत ही सम्मानित और खास विशेषताओं का प्रतिपादक शब्द रहा है, आज एक भद्दी गाली का पर्यायवाची बन गया है। इसी भारत में जहां ‘वेदान्त-साम्प्रदायिकाः इमे’ (ये वेदान्त साम्प्रदायिक हैं, ‘बौद्ध-साम्प्रदायिकाः इमे’ (ये बौद्ध साम्प्रदायिक हैं जैसी अभिव्यक्तियां पाने के लिए लोग आजीवन ज्ञान-साधना में लीन रह जाते थे, उसी भारत में साम्प्रदायिक शब्द कहते ही, कैसे चेहरों पर शिकन आना शुरू हो जाती है, इस बारे में बताना जरूरी है क्या? खुद को भूल जाने, अपने व्यक्तित्व को, खुद की बनाई पहचान को खो देने पर कैसे अपने वरदान भी अभिशाप लगने लगते हैं!
अपने समय के भारतीय समाज पर वेदव्यास की हताशा से भरे इस एकाकी विलाप का मर्म समझने के लिए हमें कितना द्रविड़ प्राणायाम करना पड़ रहा है, इस पर क्या कहा जाए? परिस्थितियां जैसी भी हैं, हमारे सामने हैं, फिर भी जानना तो होगा ही कि धर्म की जिस दुरवस्था पर वेदव्यास सरीखा क्रांतदर्शी कवि रो रहा है (‘विरौमि’), वह धर्म क्या है?
आइए, इस धर्म को समझने के लिए खुद महाभारत से ही मदद ली जाए। प्रबंधकाव्य महाभारत में धर्म शब्द का प्रयोग अनेक बार हुआ है, इतनी बार कि गिनने की जरूरत ही नहीं। धर्म शब्द से क्या-क्या अभिप्रेत है, इसका खुलासा करने की कोशिश भी वेदव्यास ने कई बार की है। क्यों न उन्हीं कुछ खुलासों में कुछ से मदद ली जाए? अनुशासनपर्व (5.24) में व्यासदेव कहते हैं- ‘अनुक्रोशो हि साधूनां महद् धर्मस्य लक्षणम’। यानी दूसरों पर दया करना ही सबसे बड़ा धर्म है। कर्णपर्व (69.57) में कहा है कि अहिंसा ही धर्म है- ‘अहिंसार्थाय भूताना धर्मप्रवचनं कृतम’। फिर अनुशासनपर्व (104.9ष् में अच्छे आचरण को धर्म माना है। वनपर्व (313.76) और अनुशासनपर्व (47.20) में ‘आनृशंस्यं परोधर्मः’ कहकर करुणा को बड़ा धर्म कह दिया है। फिर वनपर्व (2.75) में दशलक्षण धर्म की परवर्ती शैली में अष्टविध, आठ तरह के धर्म का विवरण है- ‘इज्याध्ययनदाननि तपः सत्यं क्षमा दमः, अलोभ इति मार्गोयं धर्मस्याष्टविधः स्मृतः’ अर्थात धर्म आठ तरह का बताया गया है- यज्ञ, अध्ययन, दान, तपस्या, सत्य, क्षमा, दम और अलोभ। यही धर्म है।
ये तो कुछ नमूने हैं। ऐसे वाक्य पूरी महाभारत में जहां-तहां खूब बिखरे पड़े हैं। जाहिर है कि इन तमाम वाक्यों के आधार पर हम धर्म की वैसी कोई परिभाषा बना ही नहीं सकते, जैसी कोई परिभाषा से प्रेरित हमारे देश के बुद्धिजीवी हमें कुछ उल्टा-सीधा समझा देना चाहते हैं। व्यासजी की धर्म की परिभाषाएं कुछ-कुछ उस तरह की हैं जिस तरह की धर्म की परिभाषा अत्याधुनिक काल में महात्मा गांधी ने यह कहकर दी हैं कि ‘सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं है’। यानी वेदव्यास से लेकर महात्मा गांधी तक, अर्थात् भारत के सम्पूर्ण इतिहास में, धर्म की हमारी अपनी एक समझ रही है जिसे हमने घुट्टी की तरह पी रखा है, पर जिसे हमारे देश के पश्चिम प्रेरित महाब्राह्मण चाहते हैं कि हम भूल जाएं। भला कैसे भूल जाएं? क्या वेदव्यास को भूल जाएं? या फिर भूल जाएं, महात्मा गांधी को? क्या हम इतने दयनीय हो गए हैं कि अपना खजाना भूलकर भीख मांगने के लिए कटोरा हाथ में लेकर निकल पड़ें?
वेदव्यास कहते हैं कि धर्म की रक्षा करोगे तो वह आपकी रक्षा करेगा-धर्मो रक्षति रक्षितः (वनपर्व 30.8। यह वाक्य देश के करोड़ों भारतीयों को याद है। आश्वमेधिक पर्व (92) में व्यास कहते हैं कि धर्म पर आचरण करने से धर्म में बढ़ोतरी होती है। वे कहते हैं- धर्म से बढ़कर फायदेमन्द चीज जीवन में और क्या है? न धर्मात परमो लाभः (अनुशासन पर्व 106.65)।
धर्म के आचरण पर इतना जोर देने वाले वेदव्यास धर्म के प्रति नासमझ तो हो ही नहीं सकते। धर्म की उनकी समझ खूब होगी और खूब परिपक्व भी रही होगी। पर, इसके बावजूद, व्यास साफ कह देते हैं कि धर्म क्या है, यह ठीक-ठीक बता पाना किसी के बस की बात नहीं है क्योंकि वह अतिसूक्ष्म है और इसलिए उसे जानना आसान नहीं- सूक्ष्मो धर्मो दुर्विदश्च (कर्णपर्व, 70. 28)। पर इस सबके बावजूद व्यासदेव का उसी कर्णपर्व (69.58ष् में भरपूर आग्रह है कि धर्म के कारण ही प्रजा खुद को बचाकर रख पाती है, इसलिए धर्म वही है जो हमें बचे रहने में मदद करे- ‘धारणाद् धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः। यहां यह जानना दिलचस्प होगा कि महाभारतकालीन हमारे पूर्वजों ने ऐसा क्या-क्या आचरण किया जो धर्म की हमारी समझ से मेल नहीं खाता। हम खुद ही खुद से कुछ सवाल महाभारत कथा के आधार पर पूछ लेते हैं। सवाल इस तरह से है –
–क्या पराशर मुनि का सत्यवती से बिना विवाह सहवास करना धर्मविरुद्ध था।
-क्या वयोवृद्ध शान्तनु का कन्या सत्यवती से विवाह करना धर्मविरुद्ध था?
-क्या स्वयं वेदव्यास का घृताची से बिना विवाह किए सहवास धर्मविरुद्ध था?
-क्या कुन्ती का विवाह पूर्व संतान प्राप्त कर लेना धर्मविरुद्ध था?
-क्या मां सत्यवती के आग्रह पर व्यास द्वारा नियोग से अम्बिका और अम्बालिका से कुरुवंश के लिए सन्तान प्राप्त करना धर्मविरुद्ध था?
-क्या भीष्म का विचित्रवीर्य के लिए काशिराज की कन्याओं का अपहरण करना धर्मविरुद्ध था?
-क्या सर्वगुणसम्पन्न गान्धारी का अन्धे धृतराष्ट्र से विवाह करवा दिया जाना, धर्मविरुद्ध था?
-क्या वारणावत का लाक्षागृह बनवाकर उसमें कुन्ती और उसके पांचों फत्रों को जलवा देने का प्रयास धर्मविरुद्ध था?
-क्या द्रौपदी को पांच पतियों की पत्नी बनाने की परिस्थितियां पैदा करना और उसको उनकी पत्नी बनने देना धर्मविरुद्ध था?
-क्या हस्तिनाफर के राजमहल में जुआ ख्ेाला जाना धर्मविरुद्ध था?
-क्या युधिष्ठिर द्वारा जुए में भाइयों और पत्नी द्रौपदी को दांव पर लगाना धर्मविरुद्ध था?
-क्या युद्ध में निहत्थे अभिमन्यु को घेरकर क्रूरतापूर्वक मारना धर्मविरुद्ध था?
-क्या द्रोण को झूठ बोलकर निहत्था कर मारना धर्मविरुद्ध था?
-क्या कर्ण को संकट में पड़ा होने के बावजूद मार देना धर्मविरुद्ध था?
-क्या दुर्योधन की जांघ पर गदा मारकर उसे मार देना धर्मविरुद्ध था?
ये कुछ सवाल हैं जो हम हिन्दुस्तानियों को इस कदर याद है कि हम उन्हें भूल ही नहीं पा रहे। एक लाख श्लोकों वाला महाभारत प्रबंधकाव्य पढ़ेंगे तो ऐसे कई, कई सवाल आपको हर पर्व और हर अध्याय से मिल जाएंगे। महाभारत काल था ही ऐसा तनावों से भरा समय, कि तबके हमारे पूर्वज इस तरह का व्यवहार कर रहे थे कि जिस पर सवाल-दर सवाल खड़े हो सकते हैं।
तो क्या है जवाब हम भारतवासियों का? उन भारतवासियों का जो आज तक धर्म की कोई दो टूक परिभाषा नहीं बना पाए, पर जिनकी धर्म की समझ पर शक करना सूरज को दिया दिखाना जैसा होगा? तो क्या है जवाब उन भारतवासियों का जो अपने देश के पश्चिम प्रेरित बुद्धिजीवियों द्वारा दी गई धर्म और सम्प्रदाय की मान्यताओं को आज तक अपने गले नहीं उतार पाए? तो क्या है जवाब?
जाहिर है कि हम हिन्दुस्तानियों का जवाब आज भी वहीं है, जो पांच हजार साल पहले वेदव्यास का था और इन पूरे पांच हजार सालों में वैसा ही बना रहा है। जवाब है, कि हां, ये सारे काम धर्मविरुद्ध थे। ये सारे काम किस धर्मपरिभाषा के आधार पर धर्मविरुद्ध थे, यह सफाई दे पाना, हम सभी के लिए न कभी सम्भव था, न सम्भव है और शायद आगे भी सम्भव न रहे, बशर्ते कि भारत के बौद्धिक पश्चिमीकरण की बेतहाशा कोशिशें असफल रहीं (और भारत के व्यक्तित्व की गहराई को देखकर लगता यही है कि वे असफल ही रहने वाली हैंष्। परिभाषा की बात छोड़ दें, हमारे लिए तो फिलहाल यह बता पाना भी आसान नहीं कि हम करोड़ों-करोड़ों भारतवासी अपनी किस धर्म-समझ के आधार पर इन सभी कामों को धर्मविरुद्ध करार देते रहे हैं और आज भी करार दे रहे हैं? अर्थात् क्या है हमारी धर्म की समझ?उत्तर देने के पहले हम उन कुछ स्थितियों पर विचार कर लेते हैं, जो धर्म की महाभारतकालीन समझ के संदर्भ में जान लेनी चाहिए।
दुनिया में, किसी भी युग में और किसी भी देश में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा, जो यह मानता हो कि जुआ खेलना धर्मसम्मत गतिविधि है। पर महाभारत युग इसका एक छोटा सा अपवाद पेश करता है। जब महाराज धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को जुआ खेलने का निमंत्रण दिया और युधिष्ठिर ने उसे धर्म मानकर स्वीकार किया और जुआ खेला। बोले जाने पर जुआ खेलना धर्म है, और जुआ खेलने वाले युधिष्ठिर थे, जिन्हें वेदव्यास ने धर्मराज माना है। कितना कठिन रहे होंगे महाभारत-कालीन हमारे पूर्वजों के मूल्य-मानक?
यही कठिनाई हमारे द्वारा उठाए गए उन पहले पांच-सात प्रश्नों के संदर्भ में भी आती है, जिनमें स्त्री-फरुष संबंधों को लेकर कुछ कहा गया है। उन तमाम प्रश्नों का उत्तर है कि हां, ये सभी काम धर्मविरुद्ध हैं, पर उसके बावजूद, सत्यवती और कुन्ती को महाभारतकालीन समाज में राजमहिषी का सम्मान मिला और वे दुराचारिणी कतई, कतई नहीं मानी गईं, न आज तक भी मानी जाती हैं। धर्म के विलोप पर विलाप करने वाले वेदव्यास ने स्वयं घृताची नामक अप्सरा से बिना विवाह के शुकदेव जैसे परम आध्यात्मिक फत्र को प्राप्त किया। महाराज पाण्ऊ ने भी स्वयं सन्तान प्राप्ति में असमर्थ होने के कारण अपनी पत्नियों कुन्ती और माद्री को प्राणीत फत्रों को पाने की प्रेरणा दी। इससे पहले व्यासदेव अपनी मां सत्यवती की आज्ञा से अम्बिका और अम्बालिका के साथ नियोग विधि से पाण्ऊ और धृतराष्ट्र (तथा विदुरष् को जन्म देने में सहायता कर चुके थे। आज के हिसाब से यह सब अधर्म माना जाएगा, पर तब इसे धर्मसम्मत मानकर ही इस पर आचरण किया गया था।
क्या यही निष्कर्ष सामने नहीं आता कि भारत में धर्म उसे माना गया जिसे सम्पूर्ण समाज ने समाज के सुचारू चलते रहने के लिए मान्यता दे दी? कितना गहरा फर्क है पश्चिम के धर्म यानी रिलीजन और भारत के धर्म यानी सामाजिक मर्यादा में? इस संदर्भ में आंकेंगे, तो हमें फत्रधर्म, पतिधर्म, पत्नीधर्म, देशधर्म, मनुष्यधर्म, पड़ोसीधर्म और इस तरह के हर धर्म का अर्थ समझ में आने लगेगा। इसी दृष्टि से देखेंगे, तो धर्म मर्यादा और सदाचरण के तमाम मानदण्डों को तोड़ने में मजा लेने वाले महाभारतकाल के उस तनावभरे और मर्यादाहीन समाज में महाराज युधिष्ठिर को धर्मराज कहलाया जाना, सटीक और अर्थपूर्ण नजर आएगा। महाभारतकाल के धर्महीन, मर्यादाविमुख, अहंकार से परिपूर्ण, स्वार्थी और तनावग्रस्त पात्रसमूह के बीच में विदुर के अलावा कृष्ण और युधिष्ठिर ही ऐसे पात्र नजर आते हैं, जो विलक्षण हैं और समाज को उस आदर्श की प्राप्ति करवाने में सक्षम नजर आते हैं, जिन आदर्शों के अभाव पर वेदव्यास विलाप करते दिखाए गए हैं। युधिष्ठिर का कर्तव्याकर्तव्य विवेक मर्यादाओं को कभी लांघता नहीं। इसलिए युधिष्ठिर सब कुछ हारने का खतरा उठाकर भी जुआ खेलते हैं, क्योंकि वैसा करना पिता समान धृतराष्ट्र की आज्ञा है और पिता की आज्ञा का पालन करना धर्म है, जबकि कृष्ण साफ कहते हैं कि अगर वे तब हस्तिनाफर में होते, तो जुआ कभी नहीं होने देते (वनपर्व, अध्याय 13ष्। व्यवहार और मर्यादा में फर्क का नमूना इससे बढ़कर और क्या हो सकता है?
इसलिए कृष्ण के जैसा, अपने समय का सर्वप्रिय व्यक्तित्व पाकर भी युधिष्ठिर कृष्ण के नहीं, राम के पाले में खडे़ नजर आते हैं। कृष्ण योगेश्वर हैं, पर राम तो मर्यादा फरुषोत्तम हैं। राम की ही परम्परा में युधिष्ठिर धर्मराज हैं। मर्यादा और धर्म चूंकि एक स्तर पर आकर पर्यायवाची बन जाते हैं, इसलिए राम और युधिष्ठिर भी एक ही वर्ग के दो महाफरुष नजर आते हैं। बस, विडम्बना इतनी भर है कि मर्यादा के बजाए व्यावहारिकता को धर्म मानकर उसी को फैसलों का आधार बनाने वाले कृष्ण सरीखे महानायक प्रखर तेजस्वी बनकर उभरकर सामने आते हैं तो मर्यादा की कसौटी पर सौ टंच खरा उतरने के इच्छुक महाफरुषों को वैसी प्रखरता नहीं मिल पाती। पर चूंकि प्रखरता कोई एकमात्र काम्य वस्तु नहीं है, इसलिए व्यावहारिकता के बजाए मर्यादा के मानदंड कायम करने वालों की भी पूजा इस देश ने कम नहीं की है। युधिष्ठिर का अर्थ यही है कि तनावों के झंझावत में भी, क्यों न धर्म और मर्यादा के सहारे एक संतुलित जीवन जिया जाए। शायद वेदव्यास के धर्मलोप संबंधी एकाकी विलाप का कारण भी यही नजर आता है कि वे हर मनुष्य में युधिष्ठिर की तस्वीर देखना चाहते थे, पर इस पूरे झंझावती युग में उन्हें अकेले युधिष्ठिर ही ऐसे नजर आए, जो उनके मानदण्डांे पर खरा उतर पा रहे थे। इसीलिए वेदव्यास ने उन्हें धर्मराज बनाया, तो सारा भारत आज तक उन्हें वैसा मानता चला आ रहा है।
(यह लेख वरिष्ठ पत्रकार सूर्यकांत बाली ने लिखा है। भारतीय पक्ष से साभार)