कहा जाता है कि ‘स्वतंत्रता’ का प्रस्ताव लॉर्ड बर्कनहेड का माकूल जवाब है। अगर यह बात संजीदगी से कही गई है, तो यह स्पष्ट है कि हमें इसका कोई अनुमान तक नहीं कि शाही आयोग नियुक्त करने और उसकी नियुक्ति की घोषणा से उत्पन्न परिथिति का ठीक-ठीक क्या उपयुक्त उत्तर हो सकता है। इस नियुक्ति के जवाब में यह जरूरी नहीं कि बड़े जोशीले भाषण दिए जाएं। बड़ी-बड़ी बातें बनाने से भी कुछ होना जाना नहीं है; इसके लिए तो कुछ वैसा ही मामूल और भरपूर काम कर दिखाना होगा जो ब्रिटिश मंत्री, उनके साथी ओैर पिछलगुओं की करनी के लायक हो।
फर्ज कीजिए कि अगर कांग्रेस किसी किस्म का कोई प्रस्ताव पास न करती, मगर अपने पास के सारे-के-सारे विवेशी कपड़ों की होली जला डालती और राष्ट्र से ऐसा भी उस नियुक्ति के अपमान का भरपूर जवाब तो नहीं ही होता। अगर कांग्रेस हर एक सरकारी कर्मचारी से हड़ताल करा देती, ऊंचे-से-ऊंचे न्यायाधीशों से लेकर, नीचे मामूली चपरासी या सिपाही और फौजी सेना तक से, उनका काम बंद करा देती, तो वह यथेष्ट समुचित उत्तर होता। इतना तो इससे जरूर ही होता कि जिस बेफिक्री और लापरवहा से आज तक ब्रिटिश मंत्रीगण और दूसरे अधिकारी, हमारे गर्जन-तकर्जन को सुन रहे हैं, उनका वैसा अविचलित भाव न बना रह पाता।
कहा जा सकता है कि यह परामर्श है तो सर्वथा दोषरहित, मगर मुझे इतना समझना चाहिए कि इसे अमल में किसी तरह नहीं लाया जा सकता, मैं ऐसा नहीं मानता। आज कितने ही भारतीय हैं जो इस समय चुप तो हैं, पर अपने-अपने ढंग से उस शुभ दिन की तैयार कर रहे हैं, जब कि हमें गुलाम बनाए रखने वाली इस सरकार को चलाने पाला हर हिन्दुस्तानी इस अराष्ट्रीय नौकरी को लात मार देगा।
कहा जाता है कि जुब कुछ कर दिखाने की ताकत न हो तो जबान पर ताला लगाए रखने में ही साहस है; अक्लमंदी तो जरूर ही है। बिना कुछ किए तहज बहादुरी भरे भाषण झाड़ना, शक्ति का अपव्यय ही होगा। फिर सन् 1920 में जब देशभक्तों ने भाषण के बदले जेलखाने भरना सीख लिया, तबसे जोशीले भाषणों की तड़क-भड़क जाती रही। वाणी तो उनके लिए जरूरी है, जिनकी जबान को काठ मार गया हो। गर्जन-तर्जन करने वालों के लिए तो संयम ही चाहिए। अंग्रेज शासक हमारे भाषणों पर हमारा मखौल बनाते हैं, और उनके कामों से अक्सर प्रकट होता है कि वे हमारे भाषणों में रत्तीभर भी परवाह नहीं करते और इस प्रकार बिना कुछ कहे ही, वे कहीं अधिक प्रभावशाली ढंग से हमें ताना देते हैंः ‘हिम्मत हो तो कुछ करो।’
जब तक हम इस चुनौती का जवाब नहीं दे सकते, मेरी सम्मति में, हमारी धमकाने वाली एक एक बात, एक-एक इशारा हमारी ही अपनी जिल्लत है, अपनी नामर्दी का आप डंका पीटना है। मैंने देखा है कि जंजीरों में कसे हुए कैदी जेलरों को गालियां देते हैं और कोसते हैं, जिससे जेलरों का महज मन बहलाव ही होता है।
और फिर, क्या किसी अंग्रेज द्वारा की गई ज्यादती का बदला लेने के लिए ही हमने स्वतंत्रता का एकाएक अपना लक्ष्य बना लिया है? क्या कोई, किसी को खुश करने के लिए या उसकी करतूतों का विरोध करने के लिए ही अपना ध्येय निश्चित करता है? मेरा कहना है कि ध्येय तो एक ऐसी चीज है, जिसकी घोषणा की जानी चाहिए और जिसकी प्राप्ति के लिए काम करते ही जाना चाहिए, बिना इसका ख्याल किए कि दूसरे क्या कहते हैं या क्या धमकी देते हैं।
इसलिए हम यह भी समझ लें कि स्वतंत्रता से हमारा क्या अभिप्राय है। इंग्लैंड, रूस, स्पेन, इटली, तुर्की, चिली, भूटान सभी को स्वतंत्रता प्राप्त है। हम इनमें से किसके जैसी स्वतंत्रता चाहते हैं? यहां यह न कहा जाए कि मैं वही बात सिद्ध मान रहा हूं, जिसे सिद्ध करना है। क्योंकि अगर यह कहा जाए कि हमें भारतीय ढंग की स्वतंत्रता की चाह है तो यह दिखलाया जा सकता है कि कोई दो भारतीय, इस भारतीय ढंग की स्वतंत्रता की, एक तरह की परिभाषा नहीं बतलांएगे।
बात दरअसल यह है कि हम अपना परम ध्येय जानते ही नहीं। और उस ध्येय का रूप हमारी परिभाषाओं से नहीं, बल्कि स्वेच्छा या अनिच्छापूर्वक किए गए हमारे कामों से ही निश्चित होगा। अगर हम में अबल है तो हम वर्तमान को संभाल लेंगे भविष्य अपनी फिक्र आप कर लेगा। परमात्मा ने हमारे कार्यक्षेत्र और हमारी दृष्टि की मर्यादा बांध दी है। इसलिए अगर हम आज का काम आज ही खत्म कर लें तो यही बहुत होगा।
मेरा यह भी दावा है कि स्वराज के ध्येय से सबको सर्वदा पूरा संतोष मिल सकता है। हम अंग्रेजी पढ़े-लिखे हिन्दुस्तानी अनजाने में यह मान लेने की भयंकर भूल अक्सर किया करते हैं कि अंग्रेजी बोलने वाले मुठ्ठी भर आदमी ही समूचा हिन्दुस्तान हैं। मैं हर किसी को चुनौती देता हूं कि ‘इंडिपेंडेंस- के लिए, वे एक ऐसा सर्व सामान्य भारतीय शब्द बतलाएं, जो जनता भी समझती हो। आखिर हमें अपने ध्येय के लिए कोई ऐसा स्वदेशी शब्द तो चाहिए, जिसे तीस करोड़ लो समझते हों। और ऐसा एक शब्द है स्वराज, जिसका राष्ट्र के नाम पर पहले-पहल प्रयोग श्री दादाभाई नौरोजी ने किया था। यह शब्द स्वतंत्रता से काफी कुछ अधिक का द्योतक है। यह एक जीवंत शब्द है। हजारों भारतीयों के आत्म-त्याग से यह शब्द पवित्र बन गया है। यह एक ऐसा शब्द है जो अगर दूर-दूर तक, हिन्दुस्तान के कौने-कौने में प्रचलित नहीं हो चुका है तो कम से कम इसी प्रकार के सभी दूसरे शब्दों से अधिक प्रचलित तो जरूर है। इसे हटाकर, बदले में कोई ऐसा विदेशी शब्द प्रचलित करना, जिसके अर्थ के बारे में हमें शंका है, एक प्रकार का अनाचार होगा।
यह स्वतंत्रता का प्रस्ताव ही शायद इस बात का सबसे बड़ा और अंतिम कारण बन गया है कि हम कांग्रेस की कार्रवाई हिन्दुस्तानी और सिर्फ हिस्दुस्तानी में ही चलाए। यदि सारी कार्रवाई हिन्दुस्तानी में चलती तो फिर इस प्रस्ताव के साथ जैसी बुरी बीती है, उसकी कोई गुंजाइश ही न रह जाती। तब तो सबसे अधिक जोशीले भाषण देने वाले भी स्वराज शब्द के भारतीय अर्थ को ही सजाने संवारने में और उनसे जैसी भी बन पड़ती, इसकी शानदार या घटिया परिभाषा करने में ही अपनी सार्थकता मानते। क्या इससे ये ‘इंडिपेंडेंस’ लोग कुछ सबक सीखेंगे और जिसको वे आजाद करना चाहते हैं, उस जनता में काम करने का निश्चय करेंगे और जन-सभाओं में, जैसे कि कांग्रेस वगैरह की सभाओं में, अंग्रेजी बोलना बिल्कुल छोड़ देंगे?
खुद तो मुझे उस स्वतंत्रता की कोई चाह नहीं, जिसे मैं समझता ही नहीं। मगर हां, मैं अंग्रेजों के जुए से छूटना चाहते हूं। इसके लिए मैं कोई भी कीमत चुका सकता हूं। इसके बदले में मुझे अव्यवस्था भी मंजूर है। क्योंकि अंग्रेजों की शांति तो श्मशान की शांति है। एक सारे राष्ट्र के लिए जीवित होकर भी मुर्दे के समान जिंदा रहने की इस स्थिति से तो कोई भी दूसरी स्थिति अच्छी रहेगी। शैतान के इस शासन ने इस सुंदर देश का आर्थिक, नैतिक और आध्यात्किम, सभी दृष्टियों से प्रायः सत्यनश ही कर दिया है। मैं रोज देखता हूं कि इसकी कचहरियां न्याय के बदले अन्याय करती हैं, और सत्य के गले पर छुरी फेरती हैं। मैं भयाकं्रात उड़ीसा को अभी देखकर आ रहा हूं यह सरकार अपना पापूर्ण अस्तित्व बनाए रखने के लिए मेरे ही देश बंधुओं को इस्तेमाल कर रही है।
मेरे पास कई शपथ पत्र अभी रखे हुए हैं कि खुर्दा जिले में प्रायः तलवार की नोक के बल पर, लोगों से लगान वृद्धि की स्वीकृति के कागजों पर दस्तखत कराए जा रहे हैं। इस सरकार की बेमिसाल फिजूल खर्ची ने हमारे राजा महाराजाओं का सिर फेर दिया है जो इसकी बंदर के समान नकल उतारने में, नतीजों की ओर से लापरवाह होकर, अपनी प्रजा को धूल में मिला रहे हैं। यह सरकार अपना अनैतिक व्यापार कायम रखने के लिए नीच-से-नीच काम करने से बाज आने वाली नहीं है। 30 करोड़ आदमियों को एक लाख आदमियां के पैरों तले दबाए रखने के लिए, यह सरकार इतने बड़े सैनिक खर्च का भार लादे हुए है, जिसके कारण आज करोड़ों आदमी आधे पेट रहते हैं, शराब से हजारों के मुंह अपवित्र हो रहे हैं।
मगर मेराधर्म तो हर हालत में अहिंसापूर्ण आचरण करना है। मेरा तरीका तो बल प्रयोग का नहीं, मत-परिवर्तन का है। यह तो है स्वयं कष्ट सहन करने का, न कि अत्याचारी को कष्ट देने का। मैं जानता हूं कि सारा का सारा देश इसे सिद्धांत के रूप में स्वीकार किए बिना, इसकी गहराई को समझे बिना भी, इसे अपना सकते हैं। सामान्यतया लोग अपने हर काम के दार्शनिक पक्ष को नहीं समझते।
मेरी महत्वकांक्षा तो स्वतंत्रता से कहीं ऊंची है। भारतवर्ष के उद्धार के जरिए ही मैं पश्चिम के उत्पीड़न से पीड़ित संसार के सभी निर्बल देशों का उद्धार करना चाहता हूं। इस उत्पीड़न में इंग्लैंड सबसे आगे है। हिन्दुस्तान जिस तरह अंग्रेजों का मत परिवर्तन कर सकता है, अगर वह करे तो एक विश्वव्यापी राष्ट्र-मंडल का, स्वयं एक मुख्य भागीदार हो सकता है, जिसमें इंग्लैंड अगर चाहे तो हिस्सेदार होने का आदर पा सकेगा। काश हिन्दुस्तान इस बात को समझ ले कि विश्वव्यापी राष्ट्र-मंडल का एक मुख्य सदस्य बनने का उसे हक है, इसलिए कि उसकी जन संख्या अत्यंत विशाल, उसकी भौगोलिक परिस्थिति इसके उपयुक्त और युग-युग की विरासत में मिली, उसकी संस्कृति अत्यंत उच्च है।
मैं जानता हूं मैं एक बहुत बड़ी बात कह रहा हूं। स्वयं हीनावस्था में पड़े भारतवर्ष के लिए यह आशा करना कि वह संसार को हिला देगा, निर्बल जातियों की रक्षा करेगा, धृष्टतापूर्ण लग सकता है। मगर स्वतंत्रता की इस पुकार के प्रति अपने घोर विरोध को स्पष्ट करते हुए मुझे अपना आदर्श आपके सामने अब रखना ही पड़ेगा। मेरी यह महत्वकांक्षा ऐसी है, जिसे पूरी करने के लिए जीना और प्राणों की बलि देना भी उचित होगा।
मैं नतीजों के डर से, कभी सर्वोंत्तम से जरा भी निचले स्तर की, किसी स्थिति को स्वीकार नहीं कर सकता। मैं स्वतंत्रता को अपना ध्येय बनाने का विरोध इसलिए ही नहीं कर रहा हूं कि समय इसके अनुकूल नहीं है। मैं चाहता हूं कि भारतवर्ष पूरी गरिमा के साथ अपने पैरों पर खड़ा हो, और उस स्थिति का निरूपण ‘स्वराज’ शब्द से अधिक अच्छी तरह अन्य किसी भी एक शब्द से नहीं हो सकता। ‘स्वराज- में कैसा और कितना सार-तत्व होगा, यह इस बात से निर्धारित होगा कि राष्ट्र किसी अवसर विशेष पर कितना क्या कर पाता है। भारत के अपने पैरों खड़े होने का अर्थ होगा कि प्रत्येक राष्ट्र अपने पैरों खड़ा होने लगेगा।
(अंग्रेजी से)
यंग इंडिया, 12.1.11928