चौथी पंचवर्षीय योजना ने सहकारी समितियों के पुनर्गठन को प्राथमिकता दी। इसका उद्देश्य था अल्पकालीन और मध्यकालीन सहकारी संरचना को व्यवहारिक बनाना। इस पंचवर्षीय योजना का समय साल 1969 से 1974 तक था। सहकारी समितियों को प्रबंधन सहायता और शेयर पूंजी में अंशदान का प्रावधान किया गया। इसके साथ ही केन्द्रीय सहकारी बैंकों के पुनर्वास के लिए भी आवश्यक प्रावधान किए गए। इसने छोटे किसानों के पक्ष में नीतियों को निश्चित करने पर बल दिया।
साल 1965 में मिर्धा समिति की सिफारिश आई। इस समिति ने सहकारी समितियों की प्रामाणिकता निर्धारित करने के लिए कुछ मानक तय किए। साथ ही अप्रामाणिक समितियों को समाप्त करने का सुझाव दिया। इस समिति की सिफारिशों के परिणामस्वरूप अधिकांश राज्यों में सहकारी कानूनों में संशोधन किए गए। इसने सहकारी समितियों के स्वायत्त तथा लोकतांत्रिक चरित्र को खत्म कर दिया।
साल 1974 से 1979 की पांचवीं पंचवर्षीय योजना में देनदारी के उच्च स्तर पर ध्यान दिया गया। क्षेत्रीय असंतुलन को ठीक किया गया। इसके अलावा सहकारी समितियों के गरीब तबके पर विशेष ध्यान दिए जाने पर जोर दिया गया। साल 1972 में योजना आयोग ने विशेषज्ञ दल नियुक्त करने की सिफारिशों की थी। इसी सिफारिश के आधार पर सहकारी व्यवस्था के संरचनात्मक सुधार की कल्पना की गई।
साल 1979 से 1985 की छठी पंचवर्षीय योजना में गांवों के गरीबों की आर्थिक स्थिति सुधारने की दिशा में व्यवस्थित सहकारी प्रयासों की आवश्यकता पर बल दिया। इस योजना के प्राथमिक कृषि ऋण समितियों को मजबूत करने और बहुउद्देश्यीय इकाईयों के रूप में पुनर्गठित करने के लिए उपायों की सिफारिश की। इसमें उपभोक्ता और विपणन सहकारी समितियों के संबंध को मजबूत करने का सुझाव दिया।
साल 1981 में राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण बैंक यानि नाबार्ड अधिनियम पारित हुआ। नाबार्ड का उद्देश्य सहकारी बैंकों को पुनर्वित्त प्रदान करना था। साथ ही कृषि तथा ग्रामीण क्षेत्र को वाणिज्यिक बैंकों तथा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के संसाधनों को बढ़ाकर ऋण क्षमता को बढ़ाना था।
तीन साल बाद 1984 में बहु राज्यीय सहकारी समिति अधिनियम आया। इसका लक्ष्य था वास्तविक बहु राज्यीय सहकारी समितियों के संगठन एवं निष्पादन की सुविधा प्रदान करना। साथ ही प्रशासन तथा प्रबंधन में एकरूपता लाना भी इसका एक उद्देश्य था। इसके लिए 1942 बहु राज्यीय सहकारी समिति अधिनियम खत्म किया गया, उसकी जगह नया अधिनियम आया।
साल 1985 से 1990 के दौरान सातवीं पंचवर्षीय योजना ने काम किया। इस पंचवर्षीय योजना में ऋणों की कम वसूली और ऋणों की काफी देनदारी चिन्ता का विषय था। इसमें पूर्वांचल, शहरी और ग्रामीण इलाकों में उपभोक्ता सहकारी आंदोलन क मजबूत बनाने की सिफारिश की गई। साथ ही व्यावसायिक प्रबंधन को प्रोत्साहित करने की सिफारिश थी।
साल 1989 में प्रो. ए.एम. खुसरो की अध्यक्षता में कृषि ऋण पुनरीक्षण समिति ने कृषि तथा ग्रामीण ऋण की समस्याओं का परीक्षण किया। इसके बाद एक बड़े ढांचागत परिवर्तन का सुझाव दिया। समिति ने सिफारिश की कि आठवीं योजना को कमजोर कृषि ऋण समितियों को पुनर्जीवित करने की योजना बनानी चाहिए।
साल 1990 में चैधरी ब्रह्मप्रकाश की अध्यक्षता में योजना आयोग ने एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया। समिति को सहकारी आन्दोलन के व्यापक आधार का पुनरीक्षण करने के साथ ही आदर्श सहकारी अधिनियम को अंतिम रूप देने का काम सौंपा गया। समिति ने साल 1991 में अपनी रिपोर्ट दी। सहकारिता राज्य का विषय होने के कारण माडल सहकारी समिति अधिनियम के मसौदे को सभी राज्य सरकारों को विचार करने और लागू करने के लिए भेजा गया।
साल 1990 में आर्थिक सुधारों के कारण बदलाव की दरकार होने लगी। यह इसलिए भी जरूरी था, जिससे सहकारी समितियां निजी क्षेत्र के साथ प्रतिस्पर्धा कर सके। इसी दौरान साल 1992 से 1997 तक आठवीं पंचवर्षीय योजना आई। इसने सहकारी आंदोलन को अधिक स्वायत्तता भी दी और उसका लोकतांत्रीकरण भी किया। जिससे स्व-प्रबंधित, स्व-नियंत्रित और आत्म निर्भर व्यवस्था के रूप में विकसित किया जा सके। इसने सहकारी समितयों के पदाधिकारियों को प्रशिक्षण की बात की। इसका उद्देश्य छोटे किसानों, श्रमिकों, दस्तकारों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर पैदा करना था।
साल 2002 में राष्ट्रीय सहकारिता नीति की घोषणा हूई। इस नीति का उद्देश्य देश में सहकारी समितियों का सर्वांगीण विकास करना था। नीति का उद्देश्य सहकारी समितियों को स्वायत्त, आत्मनिर्भर और आत्मनिर्भर बनाने के लिए सहायता प्रदान करना था। जिससे अपने सदस्यों के प्रति जवाबदेह हो सके। साथ ही राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान भी कर सकें।
डा. वाई.के. अलघ की अध्यक्षता वाली समिति ने कम्पनी अधिनियम 1956 में संशोधन करने का सुझाव दिया। समिति की सिफारिश पर संसद में प्रोड्यूसर कम्पनी विधेयक प्रस्तुत किया गया। 06 फरवरी, 2003 को यह कम्पनी अधिनियम 1956 में निर्माता कम्पनियां – खण्ड IXक (पार्ट IXए-प्रोड्यूसर कम्पनीज़ इन द कम्पनी एक्ट 1956) के रूप में कानून बना। परस्पर सहायता के सहकारी सिद्धांत के आधार पर इसने सहकारी उद्यमों के मौजूदा रूप के स्थान पर सांस्थानिक रूप का विकल्प प्रदान किया।
ऋण देने की प्रक्रिया को सुधारने और उनकी निधि व्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए एन.सी.डी.सी. अधिनियम का 2002 में संशोधन किया गया। इसमें अधिसूचित सेवाओं, पशुधन तथा औद्योगिक गतिविधियों को शामिल किया गया। साथ ही उपयुक्त सुरक्षा के आधार पर सहकारी समितियों को वित्त-पोषण प्रदान किया गया।