तारकोल से ज्यादा काली सुबह

के .विक्रम रावइंदिरा गांधी द्वारा भारत पर थोपी गई फासिस्ट इमरजेंसी की अगले वर्ष (2025) में स्वर्ण जयंती है। स्वर्णिम कदापि नहीं। कालिख भरी, तारकोल से भी ज्यादा काली वह सुबह (बृहस्पतिवार, 26 जून 1975, आषाढ़ मास ) थी। तैमूर लंगड़े से उजबेकी डाकू बाबर तक कइयों ने दिल्ली को गुलाम बनाया था। तबाह किया था। रातों-रात इंदिरा गांधी ने भी कीर्तिमान रचा था। वह आजाद गणतंत्र की एकछत्र मालकिन बन गईं। वह भयावह भोर काली और यादगार है। उस सुबह बड़ौदा में पुत्री विनीता और पुत्र सुदेव को स्कूटर पर स्कूल छोड़कर सीधा मैं दांडिया बाजार आया। यूएनआई आॅफिस। आकाशवाणी से आपातकाल लगने की घोषणा सुन ली थी। यूएनआई आफिस में आपरेटर मनु सोलंकी टेलीप्रिंटर चालू कर ही रहा था। पूरी रपट पढ़ी। मीडिया और प्रेस को क्लीव बनाने की साजिश।

इंदिरा सरकार ने तय कर लिया था कि सेंसर ही हमारी खबर की, रपट की जांच करेगा, तब वह छपेगी। यह सेंसर कौन था? दर्जा बारह पास, जिसे गुजराती भी ठीक से नहीं आती थी। अंग्रेजी तो माशाल्लाह। मुझे एक चतुराई सूझी। मैंने वहीं यूएनआई आफिस में बैठे-बैठे (26 जून 1975) आईएफडब्ल्यूजे के उपाध्यक्ष के नाते एक बयान जारी किया। प्रधानमंत्री के तानाशाह बनने की भर्त्सना की, सेंसरशिप के खात्मे की मांग की। कैदी प्रतिपक्ष नेताओं को रिहा करने की अपील की थी। बयान तो देश भर में जारी हो गया। शायद सेंसर तब तक सो रहा था। कई प्रदेशीय दैनिकों में बयान छपा भी। मगर वह पहला और अंतिम रहा। फिर तो ताले लग गए थे। खुद सत्तर साल के बुड्ढे मियां फरूखद्दीन अली अहमद भी उस आधी रात हरकत में राष्ट्रपति भवन में रहे होंगे। मेरे बयान से हमारे श्रमजीवी पत्रकार संगठन ( आईएफडब्ल्यूजे) की तनिक प्रतिष्ठा बची रही। वर्ना कम्युनिस्ट पार्टी से सम्बद्ध पत्रकारों ने इमरजेंसी को ‘प्रतिक्रियावादी, दक्षिणपंथी अराजक तत्वों के दमन का सम्यक रास्ता’ बताया था।

मेरे सक्रिय विरोध पर आईएफडब्ल्यूजे अध्यक्ष तमिलनाडु के टी. आर रामास्वामी जी ने हैदराबाद में राष्ट्रीय कार्यसमिति की तत्काल बैठक बुलाई। उसमें इंदिरा सरकार के (प्रेस सूचना ब्यूरो) के प्रमुख हैरी डिपेन्हा को विशेष वक्ता बनाकर आमंत्रित किया। मेरे साथियों ने कड़ा विरोध किया। मैंने तो खुलकर सभा में कह दिया, ‘प्रधान सेंसर का हम पत्रकारों की सभा में बोलना जैसे मंदिर में गौ हत्यारे कसाई को बुलाना है।’ मगर चीफ सेंसर समझाने लगे कि केवल ‘अनर्गल’ समाचार पर ही प्रतिबंध है। साफ झूठ था। हैदराबाद सम्मेलन से बड़ौदा लौटकर मैंने देखा कि राजनीतिक माहौल ज्यादा दूषित हो गया। बस दो सप्ताह पूर्व (12 जून 1975) के विधानसभा चुनाव में बुरी तरह हारी इंदिरा-कांग्रेस की सरकार बन रही थी। माधव सिंह फूल सिंह सोलंकी मुख्यमंत्री बने। तभी इंदिरा गांधी के सूचना मंत्री विद्या चरण शुक्ल के आग्रह पर ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ के कथित प्रगतिशील संपादक श्यामलाल ने मेरा कांग्रेस शासित महाराष्ट्र के नागपुर में तबादला कर दिया। वहां मीसा और सारे काले कानून लागू थे।

हालांकि, मेरे बड़ौदा में रहते सितंबर 1975 में ऐतिहासिक घटना हुई। उस एक शाम हमारे प्रताप नगर रेलवे कॉलोनी के आॅफिसर्स क्लब में भजन गायक हरिओम शरण का कार्यक्रम  था। तभी सुधा ने सूचना भेजी कि एक विशिष्ट अतिथि अकस्मात घर (78-बी, प्रताप नगर रेलवे कॉलोनी) आए हैं। मुझे घर आना पड़ेगा। सिख के वेश में जॉर्ज फर्नांडिस थे। इमरजेंसी थोपे जाने के बाद जॉर्ज के आगमन की प्रतीक्षा मैं नित्य कर रहा था। वे उड़ीसा में थे 25 जून 1975 को। अब प्रश्न था कि जॉर्ज को टिकाया कहां जाए? क्योंकि हमारी रेलवे कॉलोनी का हर व्यक्ति अपने इस क्रांतिकारी नेता को पहचानता था। अत: इंडियन एक्सप्रेस के साथी और यूनियन आफ बड़ौदा जर्नलिस्ट के अध्यक्ष किरीट भट्ट की मदद से अलकापुरी में उद्योगपति भरत पटेल के गेस्ट हाउस ले गए। दूसरे दिन पता चला कि जॉर्ज ने स्वयं भरत पटेल से डायनामाइट के बारे में पूरी जानकारी पा ली। वे खदान में इसका इस्तेमाल करते थे। आगे का सब पुलिस रिकॉर्ड में है, क्योंकि ये उद्योगपति सरकारी गवाह बन गया था।

इस बीच ‘टाइम्स’ मालिकों पर लगातार बढ़ते दबाव के कारण मुझे जनता मोर्चा – शासित गुजरात से कांग्रेस शासित नागपुर में तबादला कर दिया था। इतने अत्याचार से संतुष्ट न होकर, सीबीआई के दबाव में रेल मंत्री पंडित कमलापति त्रिपाठी द्वारा एक अदना रेल डॉक्टर सुधा राव को राजस्थान में कामली घाट रेल डिस्पेंसरी भेज दिया गया। इस रेगिस्तानी क्षेत्र में चीते और तेंदुआ पानी पीने आते हैं। अर्थात अकेली महिला (दो संतानों, चार और पांच वर्ष, के साथ) की पोस्टिंग कर दी। ईश्वर भला करे, पश्चिम रेल (चर्चगेट, मुंबई) के चीफ मेडिकल अफसर डॉ. अमर चंद का। दया करके उन्होंने सुधा को गांधीधाम भेज दिया, जो रेगिस्तानी कच्छ जिले में है, पाकिस्तानी सीमा पर। यहीं मेरी भेंट हुई थी किशिनचंद आडवाणी जी से, जिनके पुत्र लालकृष्ण आडवाणी, बाद में उपप्रधानमंत्री बने थे। फिलहाल सीबीआई ने हमारा परिवार तोड़ दिया।

इस बीच होली के त्यौहार पर लखनऊ गया। यह अवकाश पहले से ही अनुमोदित था। अत: नागपुर से मैं बड़ौदा गया और सुधा को लेकर लखनऊ। मगर रास्ते में सूरत स्टेशन पर मशहूर नान खटाई मिठाई अपने बच्चों के लिए खरीदी। लिपटे अखबारी कागज पर मेरी नजर पड़ी। मोटे अक्षरों में छपा था, ‘सुरंग कांड उजागर’। गुजराती में डायनामाइट को सुरंग कहते हैं। मैं तुरंत भांप गया कि इमरजेंसी के विरोध वाला मेरा नेटवर्क छिन्न-भिन्न हो गया। लखनऊ से चंद दिन बाद वापस बड़ौदा फिर जाना था। इस बीच चारबाग रेलवे स्टेशन पहुंच कर मैंने देखा, चौधरी चरण सिंह तिहाड़ जेल से रिहा होकर लखनऊ उतर रहे थे। मैंने प्लेटफार्म पर ही उन्हें अवगत करा दिया कि साथी जॉर्ज फर्नांडिस के साथ हम कई लोग इमरजेंसी का सक्रिय प्रतिरोध कर रहे हैं। चौधरी चरण सिंह से जुड़ा एक प्रसंग याद आया। तब वे मोरारजी काबीना में गृहमंत्री थे और नॉर्थ ब्लॉक में बैठते थे। राज नारायण जी ने मुझे उनसे भेंट करने को कहा था।

बात 1977 के जुलाई की है। गृह मंत्रालय के अतिथि कक्ष में बैठा था। तभी मैंने चंडीगढ़ के आयुक्त रहे एक आईएएस अधिकारी को प्रफुल्लित होकर मंत्री कक्ष से बाहर निकलते देखा। मैंने गृहमंत्री के पीए से पूछा कि यह तो चंडीगढ़ में थे। वे बोले, हां। फिर कहा, यह एक बहुत ऊंचे पद पर अधिकारी नियुक्त हो गए हैं। मेरा माथा ठनका। वहीं गृहमंत्री से भेंट पर मैंने बताया कि इमरजेंसी के दौरान जालिमाना हरकतों की जांच कर रहे न्यायमूर्ति जेसी शाह (पूर्व प्रधान न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट) ने उन कमिश्नर साहब पर लोकनायक जयप्रकाश नारायण की किडनी जानबूझ कर खराब करने का आरोप लगाया। चौधरी चरण सिंह ने तुरंत वह नियुक्ति निरस्त कर दी। इस बीच लखनऊ में हमारी होली बड़ी फीकी रही। ‘नेशनल हेराल्ड’ के स्थानीय संपादक सीएन चित्तरंजन ने मुझे बताया कि लखनऊ पुलिस अधीक्षक एचडी पिल्लई मेरी खोज कर रहे हैं। गुजरात पुलिस का संदेशा आया था। यह पिल्लई साहब आईपीएस अधिकारी थे, जो इंदिरा गांधी के सुरक्षा अधिकारी रहे।

मैंने संपादक चितरंजन को बताया कि मैं अहमदाबाद पहुंच कर स्वयं को पुलिस को सौंप दूंगा, क्योंकि परिवार के कारण मैं भूमिगत नहीं रह सकता। सुधा रेल अधिकारी हैं। पुलिस ने मोहलत दे दी। मैंने अहमदाबाद में पुलिस महानिरीक्षक पी. एम. पंत के समक्ष खुद को पेश किया। ये पंत साहब पत्रकार राजदीप सरदेसाई के नाना हैं। फिर तीस दिन की पुलिस रिमांड के बाद मुझे बड़ौदा सेंट्रल जेल में रखा गया। वहां छ: अन्य साथियों के साथ मुझे भी काल कोठरी के तन्हा सेल में वहां रखा गया। डबल ताले में।

(पुस्तक ‘पत्रकार की आत्मकथा’ से साभार। यह आलेख उन्होंने 20 जुलाई 2024 को लिखा था।)

 

 

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